स्मृति शेष

हर दिल अज़ीज़ थे प्रोफेसर लाल बहादुर वर्मा

कोरोना काल में देश के जानेमाने इतिहासकार, लेखक प्रो लाल बहादुर वर्मा भी चले गये। 10 जनवरी 1938 को जन्मे प्रोफेसर साहब ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाया, यूरोप से पीएचडी की और फिर यूरोप में रहने का विकल्प होते हुए भी भारत के प्रति अपनी नैतिक जिम्मेदारी निभाई और देश वापस लौटे।

प्रोफेसर साहब ने ‘यूरोप का इतिहास’, ‘आधुनिक विश्व इतिहास की झलक’, ‘जीवन प्रवाह में बहते हुए’ जैसी बहुत सी पुस्तकें लिखीं। मैंने उनके बारे में उनके चले जाने के बाद ही जाना जब प्रोफेसर के मित्रों द्वारा उनकी स्मृति पर ज़ूम में एक स्मृति सभा का आयोजन किया गया और हिंदी पट्टी के सभी मुख्य समाचार वेब पॉर्टलों में उनके जाने की ख़बर चली।

राजेश उपाध्याय ने ज़ूम प्लेटफॉर्म पर इस स्मृति सभा का संचालन किया। रवि सिन्हा और कंचन सिन्हा ने ज़ूम पर साथ बैठ प्रोफेसर को याद किया। रवि ने बताया कि बहादुर लाल वर्मा वह व्यक्ति थे जिन्होंने उनके जीवन की धारा को मोड़ दिया। 1973 में 21 साल की उम्र में रवि प्रोफेसर से पहली बार मिले थे। प्रोफेसर ने हजारों वामपंथियों को प्रेरणा दी और वह उसकी पहली खेप में थे।

रवि ने कहा कि मेरे जैसे प्रोफेसर के जीवन में सैंकड़ों थे पर उनके लिए प्रोफेसर जैसे सिर्फ़ एक थे। 1973 में ‘भंगिमा’ शुरू होने पर वह एक साल प्रोफेसर के घर रहे। मिट्टी की मोटी दीवार वाले उस पुराने घर में बैठ प्रोफेसर ने ‘यूरोप का इतिहास’ लिखी थी। हमने उनकी हस्तलिपि पढ़नी सीखी और उसे प्रेस के पढ़ने लायक बनाया। प्रोफेसर के नाटकों में मैंने हीरो का रोल निभाया तो हीरोइन कंचन पांडे थी जो बाद में मेरी पत्नी बनी। रवि और प्रोफेसर की अंतिम मुलाकात पांच छह साल पहले हुई थी जब प्रोफेसर ने अपने दिल का ऑपरेशन कराया था। वह अपने शिष्यों को अपना गुरु कहते थे।

विकास नारायण राम ने प्रोफेसर को याद करते हुए कहा कि इतनी पीढ़ी उनकी प्रशंसक रही क्योंकि वह कई यूनिवर्सिटियों में प्रोफेसर रहे। जो भी उनसे जुड़ा उसमें प्रोफेसर का व्यक्तित्व है पर हम सब ने भी उन्हें बहादुर लाल वर्मा बनाया। हमने उन्हें खुद में सुरक्षित रखना है और आगे बढ़ाना है।

शमशूल इस्लाम और नीलिमा ने ज़ूम पर साथ आते हुए कहा कि इस तरह हम ज़ूम पर कभी न मिलें। दोनों ने हाथों में लाल झंडा लिये एक कविता गाई, जिसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं-

लाल झंडा लेकर कॉमरेड आगे बढ़ते जाएंगे,
तुम नही रहे इसका गम है पर फिर भी लड़ते जाएंगे।
इस जहाँ के सारे नौजवान चल पड़े हैं आज तेरी राहों में,
कर रहे वार बार-बार वे जालिमों के किले के द्वार पे।

शमशूल ने कहा कि हमने कभी खुद को इतना असहाय महसूस नही किया, कोविड की वजह से मौतें हत्याएं हैं। हमने रमेश उपाध्याय को खोया जिन्हें वेंटिलेटर बेड नही मिल सका, हज़ारों लोगों के साथ यह हो रहा है। प्रोफेसर से उनकी आखिरी मुलाकात दिल्ली में हुई थी जब बहादुर लाल वर्मा ने भगत सिंह कथा शुरू की थी। सदियां लगती हैं जब एक बेहतरीन कॉमरेड पैदा होता है, प्रोफेसर वही थे। वह हमेशा खुद को छात्र मानते थे इसलिए महान शिक्षक हुए।

पद्मा सिंह ने प्रोफेसर को याद करते हुए कहा कि 1985 में शहीद मेले के नाटक कार्यक्रम में उनकी पहली मुलाकात हुई। प्रोफेसर ने चादर, चुन्नी और घूंघट पर पद्मा से पहला लेख लिखाया था। आज सब कह रहे हैं, वो मेरे अज़ीज़ थे, प्रोफेसर सबके मित्र थे।

अशोक कुमार पांडे ने कहा अपनी पहली मुलाकात में उन्होंने प्रोफेसर से पूछा कि आप वामपंथी क्यों हैं तो उन्होंने कहा था कि दुनिया को बेहतर बनाने के लिए मुझे यही रास्ता ठीक लगता है, कल अगर कोई और रास्ता मिलेगा तो मैं उसी रास्ते पर चल पड़ूंगा। वह केरल जाकर गांधी पर एक किताब तैयार करना चाहते थे और उनकी कुछ किताबें अभी आनी शेष हैं।

विनोद शाही ने प्रोफेसर को याद करते हुए कहा कि वर्मा जी हाल के वर्षों में बहुत से सवालों से जूझ रहे थे। वह उनके प्रेरक, गुरु और मित्र थे। वह इतनी उम्र होने के बाद भी कोरोना काल में सिंघु बॉर्डर पर किसान आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी के लिए आए हुए थे। उनकी ऐसी यात्राओं को देख उन्हें मन सलाम करता है। वह पर्यावरण और मनुष्य को बचाने के बारे में सोचते थे। प्रोफेसर ने सिंघु बॉर्डर पर दो अलग धर्म के लोगों को मैत्री भावना के साथ रहते देखा इसलिए वह कहते थे कि किसान आन्दोलन सम्प्रदायिक द्वेष को कुंद कर सकता है। विनोद शाही ने अंत में कहा कि उनके जाने के दिन को मैत्री दिवस के रूप में मनाया जाए।

पंकज श्रीवास्तव ने प्रोफेसर को याद करते हुए कहा कि वह वर्मा जी से तीस साल पहले एक शोध छात्र के रूप में जुड़े। मिलने से पहले उन्हें यह लगा था कि प्रोफेसर का लंबा चौड़ा व्यक्तित्व होगा पर वह सामान्य कदकाठी के थे। वह आप से और आपके परिवार से जुड़ कर आपको बेहतर मनुष्य बनाते थे। वह लोगों को बेहतर दुनिया बनाने के संघर्ष से जुड़ाते थे। प्रोफेसर यह भूल गये थे कि वह 84 साल के हो गये हैं, विद्वान तो बहुत हैं पर अपनी अंतिम सांस तक उन्होंने पुनर्जागरण की बात करी। किसान आन्दोलन में तीन फीट की दीवार फांद गाज़ीपुर पहुंच उन्होंने तीर्थयात्रा जैसा अनुभव किया और वहाँ उन्होंने लंगर भी खाया। प्रोफेसर लोगों को प्रेरित कर बड़ा काम करने के लिए मज़बूर कर देते थे। वह उत्सवप्रियता के शौकीन थे और उनसे मिलने पर कोई बौद्धिक आतंक नही होता था, आप उनसे गले लग सकते थे।

राकेश कुमार प्रोफेसर को याद करते कहते हैं कि शुरुआती दिनों में वैचारिक मतभेद के बाद उनका प्रोफेसर से घनिष्ठ रिश्ता बना। वो आपको ज्यादा सुनते थे और उसी बात से कुछ निकाल कर आपको आगे का काम देते थे।

मुकुल ने उन्हें याद करते हुए कहा कि बहादुर लाल वर्मा के व्यक्तित्व के कई पहलू थे। वह इस बात से बदनाम थे कि यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर स्कूटर से चलता है और सड़क पर नुक्कड़ नाटक करता है।वह सबसे कहते थे कि खुद को गम्भीरता से लो। उन्होंने पूरी जिन्दगी इंसान को बेहतर बनाने का कार्य किया।

शुभेंदु घोष ने लाल बहादुर वर्मा को याद करते हुए ग़ज़ल पेश की,

आप की याद आती रही रात भर
चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर
गाह जलती हुई गाह बुझती हुई
शम-ए-ग़म झिलमिलाती रही रात भर 

अशोक मेहता ने उन्हें याद करते हुए कहा कि प्रोफेसर दोस्त की तलाश में घूमते रहे इसलिए आज इंटरनेट की इस आभासी दुनिया में सौ लोग उनकी याद में जुड़े हैं।

राकेश गुप्ता ने बताया कि प्रोफेसर की इच्छा थी कि मरने के बाद उनकी बॉडी मेडिकल कॉलेज को दी जाए जहाँ किसी के काम आने वाले अंग निकाल लिए जाएं पर कोरोना की वजह से उनकी यह इच्छा अधूरी रह गयी। उनके पास भविष्य में आने वाले बीस सालों के लिए योजनाएं थी। उनके पास प्रोफेसर और उनकी बातचीत की इतनी ऑडियो क्लिप संरक्षित है कि उस पर पूरी एक किताब लिखी जा सकती है।

रुपाली सिन्हा ने प्रोफेसर को याद करते हुए कहा की वह बचपन में कविता लिखकर उन्हें दिखाती थी जिस पर वह शाबाशी देते थे। कई सालों के बाद मिलने पर भी वह बड़ी आत्मीयता से मिलते थे।उन्होंने अपनी कविता भी सुनाई जो प्रोफेसर को बहुत पसंद थी, उसकी कुछ पंक्तियां हैं-

भागो मत दुनिया को बदलो,
मत भागो दुनिया को बदलो।
कल भी तुम्हारा था,
कल भी तुम्हारा है
सब मिलजुल कर बाजू कसलो।

सुभाष गाताडे ने कहा कि लोगों को कैसे प्रेरित किया जाए वाली कला प्रोफेसर में थी। वह लोगों को कैसे प्रेरित करते थे हमारी आखिरी बात से पता चलता है जब उन्होंने कहा कि क्या लिख रहे हो, तुम्हारे लेखन के बड़े चर्चे हैं। स्मृति सभा के अंत में अशोक कुमार पांडे ने इस सभा में प्रोफेसर पर बटोरी हुई स्मृतियों के ऊपर विस्तार से लिखकर एक किताब प्रकाशित करवाने का सुझाव दिया।

आलेख लिखने से पहले जब मैंने राजपाल एन्ड सन्स के यूट्यूब पेज़ पर प्रोफेसर का पल्लव द्वारा जनवरी में लिया गया इंटरव्यू देखा तो उन्हें वैसा ही पाया जैसा उन्हें स्मृति सभा में बताया गया था। इंटरव्यू की शुरुआत में ही पल्लव का उत्साहवर्धन करते हुए प्रोफेसर कहते हैं कि पल्लव आप युवा संस्कृति कर्मियों में बहुत प्रखरता से अपनी जगह बना रहे हो। आपके प्रश्न पूछने से पहले मुझे मार्क्स की वो बात याद आती है कि हर प्राणी अपने साथ उत्तर लेकर पैदा होता है। उत्तर कहाँ मिलेंगे यह प्रश्न पूछने वाले को ही ढूंढना होता है।

प्रोफेसर लाल बहादुर वर्मा को श्रद्धांजलि और यदि आप उनके कुछ आलेख पढ़ना चाहते हैं तो यहाँ क्लिक करें

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हिमांशु जोशी

लेखक उत्तराखण्ड से हैं और पत्रकारिता के शोध छात्र हैं। सम्पर्क +919720897941, himanshu28may@gmail.com
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