केन्द्र में मोदी सरकार को देखते-देखते पांच साल पूरे होने को आये। सरकार के कार्यकाल की यदि समीक्षा करें, तो उसमें काम कम और सरकार का विज्ञापन ज्यादा दिखलाई देता है। इन पांच सालों में सरकार, पूरा समय विज्ञापनों और प्रोपेगेंडा से ही अपना चेहरा चमकाने में लगी रही। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देशवासियों के कल्याण के लिए कई सरकारी योजनाएं शुरू तो कीं, लेकिन इन योजनाओं की हकीकत क्या है और इनका जनता को कितना फायदा मिल रहा है ? इसका जवाब, प्रधानमंत्री की सबसे महत्वाकांक्षी योजना ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ने दिया है। लोकसभा में बीते चार जनवरी को एक सवाल के जवाब में केंद्रीय महिला एवं बाल विकास राज्य मंत्री डॉ. वीरेंद्र कुमार ने बतलाया था कि ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’योजना के तहत पिछले चार सालों में आवंटित हुए कुल फंड का 56 फीसदी से ज्यादा हिस्सा सिर्फ प्रचार पर ही खर्च किया गया है। जबकि 25 फीसदी से भी कम दूसरे कामों पर। यही नहीं 19 फीसदी फंड जारी ही नहीं किया गया।
पांच सांसदों भाजपा के कपिल पाटिल और शिवकुमार उदासी, कांग्रेस की सुष्मिता देव, तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के गुथा सुकेंदर रेड्डी और शिवसेना के संजय जाधव ने सदन में ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’योजना को लेकर सरकार से एक सवाल पूछा था। मंत्री जी की ओर से जो जवाब आया, उसने योजना की पोल खोल कर रख दी। केन्द्रीय मंत्री का कहना था कि सरकार ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना के लिए साल 2014-15 से लेकर साल 2018-19 तक कुल 648 करोड़ रुपये आवंटित कर चुकी है। इस पैसे में से केवल 159 करोड़ रुपये ही जिलों और राज्यों को भेजे गए हैं। जबकि कुल आवंटन का 56 फीसदी से ज्यादा पैसा यानी कि 364.66 करोड़ रुपये ‘मीडिया संबंधी गतिविधियों’पर खर्च किया गया है। 25 फीसदी से कम धनराशि जिलों और राज्यों को बांटी गई। इस जवाब में सबसे चैंकाने वाली बात यह थी कि 19 फीसदी से अधिक धनराशि सरकार ने जारी ही नहीं की। साल 2018-19 की बात करें, तो इस साल सरकार ने इस योजना के लिए 280 करोड़ रुपये आवंटित किए थे, जिसमें से 155.71 करोड़ रुपये केवल मीडिया संबंधी गतिविधियों पर खर्च कर दिए गए। और 70.63 करोड़ रुपये ही राज्यों और जिलों को जारी किए गए। जबकि सरकार ने 19 फीसदी से अधिक की धनराशि यानी 53.66 करोड़ रुपये जारी ही नहीं किए। जाहिर है कि आंकड़े खुद गवाही दे रहे हैं कि सरकार ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना पर कितनी संजीदा है। यदि सरकार वाकई देश में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना को लागू करने के लिए गंभीर होती, तो योजना के फंड का ज्यादातर पैसा विज्ञापनों पर खर्च नहीं करती। जो रकम राज्यों और जिलों को भेजी गई, वह इतनी कम थी कि उससे कुछ ज्यादा हासिल होना नहीं था। योजना महज नारों और कागजों में ही रहीं, कहीं क्रियान्वयन नहीं हुआ।
‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ योजना को लेकर अकेले केन्द्र सरकार का रवैया खराब नहीं था, बल्कि राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारों ने भी इस योजना के प्रति उदासीन रवैया अपनाया। भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक, यानी सीएजी ने भी अपनी एक रिपोर्ट में इस बात की आलोचना की थी कि देश के तमाम राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारें योजना के फंड का एक बड़ा हिस्सा खर्च करने में नाकामयाब रहीं हैं। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना के तहत राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की ओर से 20 फीसदी से कम फंड खर्च किया गया है। योजना का ज्यादातर फंड राज्य सरकारों के खजाने में पड़ा रहा और केन्द्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने पिछले फंडों के इस्तेमाल की जांच किए बगैर ही राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को नया फंड जारी कर दिया। कुछ राज्य, मंत्रालय को अधूरे ’यूटिलाइजेशन सर्टिफिकेट’ दाखिल कर ज्यादा फंड हासिल करते रहे। जाहिर है कि यह योजना के दिशानिर्देशों का पूरी तरह से उल्लंघन था। सीएजी रिपोर्ट के मुताबिक ‘बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ’ योजना को जमीन पर उतारने के लिए राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की ओर से महज 1,865 लाख रुपये इस्तेमाल या खर्च किए गए। बाकी बचे 3,624 लाख अभी भी खर्च नहीं हुए हैं। यानी योजना को पलीता लगाने के काम में केन्द्र सरकार के अलावा राज्य और केन्द्र शासित सरकारें भी शामिल हैं। उन्होंने भी अपने काम को गंभीरता से नहीं किया।
‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना 22 जनवरी, 2015 को शुरू हुई थी। इस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस योजना को महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय और मानव संसाधन विकास मंत्रालय के माध्यम से देश भर में लागू करने का फैसला किया था। योजना का मुख्य मकसद देश में लिंग अनुपात में समानता लाना, बेटियों की सुरक्षा और कन्या भ्रूण हत्या को रोकना था। योजना में मुख्य रूप से राष्ट्रव्यापी जागरूकता अभियान और बहु-क्षेत्रीय कार्रवाई शामिल है। बहु-क्षेत्रीय कार्रवाई में ‘पीसी एंड पीएनडीटी’ अधिनियम को लागू करना, बच्चे के जन्म से पहले और जन्म के बाद मां की देखभाल करना, स्कूलों में लड़कियों के नामांकन में सुधार, सामुदायिक सहभागिता/ प्रशिक्षण/ जागरूकता सृजन आदि चीजें शामिल हैं। जाहिर है कि जिस नेक मकसद से यह योजना शुरू हुई थी, उसका 10 फीसदी हिस्सा भी हासिल नहीं हुआ। यदि योजना सही तरह से अमल में आती, तो उसका असर पूरे देश में दिखाई देता। लैंगिक समानता की दिशा में सरकार का यह एक बहुत बड़ा काम होता। संसद में सरकार के खुद कबूलनामे और सीएजी रिपोर्ट के बावजूद सरकार इस योजना को नाकाम नहीं मानती। उसकी नजर में योजना ‘कामयाब’ है। योजना का ज्यादातर पैसा विज्ञापन पर खर्च करने के बाद भी सरकार को नहीं लगता कि उसने कुछ गलत किया है।
दरअसल मोदी सरकार अपने कार्यकाल की शुरुआत से ही विज्ञापनों पर ज़्यादा रकम खर्च करने की वजह से सवालों के घेरे में रही है। तमाम रिपोर्टें यह बतलाती हैं कि एनडीए के कार्यकाल में विज्ञापन पर खर्च की गई राशि, यूपीए सरकार के मुकाबले बहुत ज़्यादा है। यूपीए सरकार ने अपने दस साल के कार्यकाल में औसतन 504 करोड़ रुपये हर साल विज्ञापन पर खर्च किए थे। वहीं मोदी सरकार में ये आंकड़ा काफी ज्यादा है। इस दौरान हर साल औसतन 1202 करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं। इस हिसाब से यूपीए सरकार के मुकाबले मोदी सरकार में विज्ञापन पर दोगुनी से भी ज़्यादा राशि खर्च की गई है। यूपीए सरकार के दस साल में कुल मिलाकर 5,040 करोड़ रुपये की राशि खर्च हुई थी। वहीं मोदी सरकार के लगभग साढ़े चार साल के कार्यकाल में ही 4996.61 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। लोक संपर्क और संचार ब्यूरो (बीओसी) ने खुद यह जानकारी दी थी कि केंद्र सरकार की योजनाओं के प्रचार-प्रसार में साल 2014 से लेकर सितंबर 2018 तक 4996.61 करोड़ रुपये की राशि खर्च की गई है। इसमें से 2136.39 करोड़ रुपये प्रिंट मीडिया में विज्ञापन के लिए खर्च किये गये हैं। वहीं 2211.11 करोड़ की राशि को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जरिए विज्ञापन में खर्च किया गया है। मोदी सरकार ने इसके अलावा 649.11 करोड़ रुपये आउटडोर पब्लिसिटी में खर्च कर दिए।
एक तरफ मोदी सरकार विज्ञापनों पर करोड़ों रूपया खर्च कर रही है, तो दूसरी ओर सरकार द्वारा पेश किए गए बजटों में कई सामाजिक योजनाओं के लिए आवंटित की जाने वाली राशि में कटौती की गई है। केंद्र सरकार ने मनरेगा समेत कई महत्वपूर्ण योजनाओं के लिए आवंटित की जाने वाली राशि को बहुत ज़्यादा कम कर दिया है। मसलन मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिए तत्कालीन केन्द्र सरकार ने अपने बजट में जहां साल 2013-14 में इसके लिए 570 करोड़ रुपये का आवंटन किया था, तो मोदी सरकार ने साल 2017-18 में इस काम के लिए सिर्फ पांच करोड़ रुपये का आवंटन किया। सच बात तो यह है कि इस योजना के लिए पिछले चार सालों में एक रुपया भी जारी नहीं किया गया है। मोदी सरकार जनता के पैसे को लगातार अपने प्रचार में पानी की तरह बहा रही है लेकिन जब किसानों की कर्ज माफी और उसकी फसल के वाजिब दाम देने, शिक्षा और स्वास्थ में बजट बढ़ाने की बात आती है, तो सरकार बजट का रोना रोने लगती है। सरकार को यह जरूरी नहीं लगता कि गैर जरूरी खर्चों और विज्ञापनों पर लगाम लगाकर वह इस पैसे का सही इस्तेमाल करे। विज्ञापन और प्रोपेगेंडा से किसी भी सरकार की उम्र ज्यादा नहीं चलती। जिस दिन ढोल का पोल खुलता है, वह स्पॉट से बेदखल हो जाती है।