मॉडर्न लव: मुंबई में अधुना प्रेम
‘प्यार को रोकना भी नफरत फ़ैलाने जैसा ही है’
‘प्यार को रोकना भी नफरत फ़ैलाने जैसा ही है’ के मूल सिद्धांत को अपने भीतर समेटे मॉडर्न लव: मुंबई सीरीज़ की सभी छह लघु फ़िल्में आधुनिक युग में प्रेम की सामाजिक स्वीकृति की ओर महत्वपूर्ण पहल है साथ ही व्यक्ति में प्रेम की व्यावहारिक समझ, साहस, व सहजता के विकास को हमारे सामने अलग-अलग चरित्रों के माध्यम से व्यक्त करता है। मुंबई के बहु-सांस्कृतिक परिवेश में पनपे ये अधुना प्रेम ‘लव आजकल’ सरीखे फ़िल्मी स्टाइल के बिलकुल नहीं बल्क़ि एक बड़े शहर में प्रेम के विविध पके, अधपके, कच्चे रंग बिखेरते सहज और सरलता से आपको भीतर तक सराबोर कर जाते हैं। फिल्म की सभी कहानियाँ प्रेम के लुके-छिपे, डरे-दुबके, परंपरागत नैतिकता के दबाब से परे आधुनिक सोच का विस्तार करती है, सबसे अच्छी बात कि ये फ़िल्में प्रेम की कोई नई परिभाषा गढ़ने की कोशिश में नजर नहीं आती बल्क़ि ‘चाहो जिसे मुक्त कर दो उसे’ के दर्शन को आत्मसात करती, प्रेम की उन्मुक्तता और स्वच्छंदता के सहज गुण को बिखेरती चलती हैं तभी ‘रात की रानी’ की लाली जो अब तक अपनी हर ख़ुशी को ‘प्रेमी से पति’ बने लुत्फ़ी से बंधकर ही देख पाती है अंत में लुत्फ़ी को मुक्त कर अथवा कहें अपनी खुशियों के लिए लुत्फ़ी के प्रेम पर अपनी निर्भरता से खुद को बंधनमुक्त करती है। मनमौजी, बिंदास व मेहनती लाली पुरानी ‘जेंट्स साईकल’ में अपने इरादों के दम पर जान भर देती है तथा पितृसत्ता के तमाम पुलों को पार कर लेती है। वह वो सब करती है जो ‘नॉट अलाउड’ है। जेंट्स साईकल पर लाली का बैठना और सुचारू रूप से चलाना अपने आप में चुनौती था जिसे लाली ने सफलता से निभाया।
मुंबई का अधुना प्रेम बताता है कि प्रेम एक शाश्वत भाव है, हर युगकाल में सामान रूप से विकसित होता है किसी आयु, वर्ग, लिंग, भाषा और सरहदों में नहीं बंधा होता।‘मुंबई ड्रैगन’ में भारतीय लड़का और चीनी लड़का जिसका जन्म भारत में ही हुआ,के प्रेम ने सरहदों को तोड़ने का साहस किया है। भारत में कई दशकों से रह रही चीनी माँ और उसके सिंगर बेटे के संबधो और प्रेम का ख़ूबसूरती से चित्रण करती है, माँ की शर्त है ‘तब तक हिन्दी नहीं बोलूँगी जब तक बेटा भारतीय लड़की को नहीं छोड़ देता, पर आज का आधुनिक प्रेम ‘शर्त’ आधारित नहीं है, माँ से भी नहीं अंतत: उसकी माँ गर्लफ्रेंड को वेजीटेरियन खाना भेजकर प्रेम को शर्तों से मुक्त करती है, स्वीकार्यता देती है, जो परम्परागत माँ के लिए आसान न था। आपको बता दें कि चीनी माँ का किरदार मलेशियाई-सिंगापुर अभिनेत्री यों यान यान ने बहुत ही शानदार तरीके से निभाया, अन्तरराष्ट्रीय स्तर की अभिनेत्री ने इसके लिए हिन्दी सीखी और सरदार के रोल में नसीरुद्दीन शाह से कहीं भी कमतर नहीं लगीं, बॉलीवुड के नए उभरते कलाकारों को इनसे अभी बहुत सीखना होगा।
पारिवारिक संस्था में बुजुर्ग अपनी इच्छाओं को मार देते हैं ताकि घर परिवार खुश रहे पर क्या बढ़ती उम्र में जीवनसाथी के चले जाने पर उन्हें दोबारा उस अनुभव से गुजरने का अधिकार नहीं? प्रेम की पहली शर्त ‘आकर्षण’ जो कोई दायरा या दीवार नहीं मानता ‘दिल आया गधी पर तो परी क्या चीज है’ जैसे वाक्य समाज ने प्रेम को हीन बताने को ही गढ़े होंगे लेकिन ‘माय ब्यूटीफुल रिंकल्स’ प्रेम के प्रति परिपक्कव सोच को नया आयाम प्रदान करती हैं, 60 पार की दिलबर से प्रेम करने वाला 20-22 साल का युवा इस परिपक्वता का गवाह बनता है तो दिलबर (सारिका) किसी भी नैतिकता के दबाब से परे साहस (कुछ लोग इसे दुस्साहस कहेंगे) के साथ अपने प्रेम को फैंटसी की कल्पना में रचकर, प्रेम और आदिम दैहिक वासना का संजीदगी से आनंद लेती है ‘उम्र सिर्फ एक संख्या है’ जहाँ प्रेम बासी नहीं होता।
‘शहर बदल गये सड़कों के नाम बदल गए लेकिन अब्बू नहीं बदले’ जो अंत तक नहीं बदलते लेकिन माँ और बहन समलैंगिक प्रेम को आधुनिक सोच के साथ गले लगा लेतीं हैं अब्बू ‘पितृसत्ता’ हैं तो बहन और माँ प्रगतिशील‘बाई’ में समलैंगिक मंजूर अली की माँ कहती है ‘छोड़ क्यों नहीं देते सब’ तो वो कहता है ‘आदत नहीं है माँ’ उसकी पहचान स्वाभाविक है कृत्रिम नहीं इसलिए वो बार-बार जोर दिए जाने पर भी शादी से इंकार कर रहा है। ये भी सच ही है ‘विवाह संस्था’ बचपन से ही दो व्यक्तियों में साथ रहने की आदतों का विकास करना सिखातीं हैं जबकि प्रेम उन्मुक्त होता है, यहाँ अपनों तक अपनी भावनाएं पहुँचाने के संघर्ष व पितृसत्तात्मक बंधन तोड़ने का साहस दिखाई पड़ता है, मंजूर अली के किरदार में प्रतीक गांधी ने दिल जीत लिया। शेफ़ राजबीर जब मंजूर अली से कहता है -“खाना और गाना मुश्किल से मुश्किल बात को आसानी से कहने का जरिया बनता है” तब मंजूर अपनी बात ‘बाई’ से कह पाता है,व्यक्ति और परिवार दोनों पक्षों की प्रेम में यह स्वीकार्यता प्रेम को मज़बूत बनाती, जो पहले परिवार से ही आरम्भ होगी। अंत में मंजूर कहता है ‘जीवन में प्यार स्वादानुसार ही होना चाहिए’ यानी प्रेम के क्षेत्र में सबकी अपनी पसन्द और चुनाव होते हैं, होने चाहिए। मुंबई ड्रैगन और बाई के निर्देशकों विशाल भरद्वाज और हंसल मेहता ने सिंगर चांग और शेफ़ रणबीर बरार के वास्तविक जीवन के पेशे को कहानी में बखूबी पिरोया है, संगीत और खाने में प्रेमरस की घुलनशीलता ने फिल्म के अनुभव को बहुत स्वाभाविक और रोमांचक बना दिया है।
‘आई लव ठाणे’ की नायिका डेटिंग-एप पर प्रेम खोजने में असफल रही, उसे आश्चर्य होता है कि मुंबई से सटे ठाणे शहर में एक लड़का ऐसा भी है जो सोशल मीडिया से कोसों दूर है, खुश है उदार दृष्टिकोण सम्पन्न जबकि मुंबई जैसे बड़े शहरों के लड़के एप से लड़की ढूंढते है लेकिन शादी के लिए वही रूढ़िवादी सोच और शर्तें रखते हैं, तभी वो शादी करने से घबरा रही हैं।लेकिन अंत में कहती है ‘मुंबई आखिरकार एक ऐसा शहर है जो आपको आशा देता है! लेकिन शादीशुदा लतिका की समस्या प्यार नहीं बल्क़ि उपन्यास है जिसे वह सत्रह साल से पूरा नहीं कर पा रही ‘कटिंग चाय’ लतिका और डैनियल भरोसेमंद और व्यवहारिक रिश्ते को ख़ूबसूरती से प्रस्तुत करती है जो मतभेदों के बाद एक विश्वास के बंधन में सुख की कामना के साथ बंधा है ‘कितना सुख है बंधन में कि तर्ज पर’ अरशद वारसी और चित्रंगदा की केमिस्ट्री शानदार है,आश्चर्य इस फिल्म बात नहीं हो रही मुझे लगता है ये कहानी उन सभी उभरती स्थापित लेखिकाओं को समर्पित मानी जा सकती हैं जो अपने लेखन के लिए समय नहीं निकाल पाती उन्होंने अपनी प्राथमिकताएं डाइवर्ट कर दिन हैं और अब बैचैन हैं इस पर थोड़ा विस्तार से बात करना बनता है।
लतिका अभी तक शादी के सत्रह साल पहले पी गई ‘कटिंग चाय’ के स्वाद में ही जी रही है पर वह उपन्यास भी लिख रही है पर लिख नहीं पा रही, इसके लिए जिमेदार कौन है? खुद लतिका या उसका लेट लतीफ़ पति जो शेफ़ होते हुए भी घर के काम में हाथ नहीं बटाता जबकि होटल में अपनी जॉब के अंतर्गत वह सभी ‘घरेलु माने जाने वाले’ काम करता है। इस अंतिम फ़िल्म ‘कटिंग चाय’ में 17 साल पुरानी शादी में दर्शक शायद मॉडर्न लव खोज रहे हैं इसलिए उनका निराश होना लाजिमी ही है वास्तव में इसे आप आधुनिक रोमाँटिक क्लासिक कह सकते हैं जो मॉडर्न युग में भी उसी अंदाज़ में मोहित कर रही है जैसे अमोल पालेकर, विद्या सिन्हा, बासु चटर्जी की फ़िल्में किया करती थी ‘कटिंग चाय’ बहुत सरल-सहज ढंग से यह गहरी बात समझाने की कोशिश कर रही है कि‘क्या प्रेम में हम दूसरे को खुश रखने के लिए खुद को बदलते है’ अथवा ‘ये हमें अच्छा लगता है कि हम उन्हें ख़ुशी दे पा रहें है’ या हमें पता ही नहीं चलता ‘कब हम प्रेम के वशीभूत दूसरे के अनुसार ढलते जाते है’ फिल्म के दो संवाद इन स्थितियों को बहुत सूक्ष्मता से बयां कर रहें हैं जब उसका पति और बाद में ‘लेखकीय कल्पना’ में विक्रम चौधरी भी एक ही बात कहतें हैं “तुम्हें लिखना होता तो पहले लिख लेती…यू कान्ट राईट एंड डोंट ब्लेम में” क्या सचमुच उसमें लिखने की काबिलियत नहीं अथवा वह लिखने की स्थिति में नहीं वह अपने लेखन को जॉब मानती है इसलिए खुद को हाउस वाइफ नहीं मानना चाहती पति से झल्ला कर कहती है ‘व्हेवर इस स्पेस टू राईट…मेंटल स्पेस मेरे दिमाग में तो बस गैस बुक करना भिन्डी खरीदना धोबी का हिसाब भरे हैं लिखने के लिए स्पेस कहाँ बचा’ दूसरा संवाद रेलवे स्टेशन पर लतिका नये ज़माने की लड़की जिसकी अभी हाल ही शादी हुई है कहती है ‘मैंने जो करैक्टर क्रीएट किया है न, उससे मेरी स्ट्रगल चल रही है मतलब जो मैं उससे करवाना चाह रही हूँ उससे पेज पर करवा नहीं पा रहीं हूँ’, वास्तव में ये करैक्टर लतिका ही है लड़की उसे त्वरित समाधान दे देती है ‘तो करैक्टर बदल दो, लतिका हैरान परेशान-सी पूछती है ‘ऐसे कैसे बदल दूं मैं अपना करैक्टर, ऐसे थोड़ी होता है’ लड़की बहुत सरलता से कहती है ‘क्यों आजकल तो सब कुछ बदल सकता है,जम नहीं रहा तो चेंज कर दो न’…‘जमता नहीं है तो बदल डालो’ लगता है हल मिल गया अब वो अपना उपन्यास पूरा कर लेगी ऐसा मुझे भी लगता है।
शादी के सत्रह साल बाद भी लतिका के पति डैनियल की (अरशद वारसी) आदतों में कोई बदलाव नहीं आया, वह पहले भी लेट लतीफ़ था आज भी लेट लतीफ़ है लेकिन उसके प्रेम के अंदाज़ में भी कोई परिवर्तन नहीं आया, फिर क्या कारण है कि जो बातें लतिका को पहले बहुत अच्छी और प्यारी लगती थी, जिन पर बहुत प्यार आया करता था वही बातें उसे चिढ़ा जाया करती हैं। अपनी ननद से वो कहती है ‘पहले तो इतना स्वीट सेंसटिव था और जो छोटी-छोटी चीज़े पहले क्यूट लगती थी न, अब इरीटेटिंग लगती है! जो चीज़े मैं इतनी आसानी से इग्नोर कर देती थी अब बम बनकर फूटती है’ जबकि लतिका के तो प्रेम की शुरुआत ही डैनियल की पसंदीदा कटिंग चाय पीने से हुई वह तो कॉफी पीना चाहती, वो कब उसके पसन्द के हिसाब से अपना जीवन बना लेती हो उसे भी नहीं पता चलता। जब उसकी ननद कहती है ‘ किसने कहा था उससे शादी करो’… ‘उसी ने कहा था’… ‘वो तो ऐसे ही बोलेगा’ न लतिका मासूमियत से कहती है ‘मैं बेफकूफ मान भी गई’ खुद को बेवकूफ मानकर पति और बच्चों की खुशियों और माँगो में खुद के ‘लेखकीय व्यक्तित्व’ को दफन जान बड़बड़ाती खीजती नजर आती है पति से कहती है ‘तुमने कभी सपोर्ट की मेरी राइटिंग? तुमने कभी परवाह नहीं की! इसलिए आज तक ‘अपनी नॉवेल पूरी नहीं कर पाई ! वास्तव में जीवन की एकरसता में अपने लेखकीय व्यक्तिव की खोज में लतिका झल्लाई हुई है उसकी झल्लाहट पर डैनियल कहता है ‘बट यू लव में’ तो वो कहती है ‘ हाँ पर हर साल थोड़ा कम हो रहा है’ लेकिन अंत में ट्रेन के दृश्य को देख लगता ही नहीं ये प्रेम कम हो रहा है बल्कि साफ़ दिख रहा है कि मज़बूत हो रहा है।
वास्तव मेंलेखिका के रूप में लतिका कभी भी महत्वाकांक्षी नहीं थी उसकी बॉस जब कहती है ‘30 साल कि उम्र में देखो बेस्ट सेलर बन गया ‘लतिका तुम भी कर सकती हो लतिका लोगों से मिलो जुलो और उन्हें अपनी कहानियों में बुनो’ तो भी वह ऐसा नहीं करती, उसका संकोची स्वभाव है इसलिए नहीं बल्कि वह एक बहुत ही भावुक सरल लड़की रही है जिसे बौद्धिक वर्ग से मिलना जुलना पसन्द नहीं। वहीँ वह डेनियल से मिलती है जो ‘कटिंग चाय’ में जिन्दगी का फ़लसफ़ा बताता है ‘जिन्दगी उतनी ही सिम्पल और कम्पलीकेटिड है जितना हम उसे बनाते है’ कि ‘थोड़ी है पर बहुत बढ़िया’ याद आता है गीत ‘थोड़ा है, थोड़े की जरूरत है जिन्दगी फिर भी यहाँ खूबसूरत है’ मजा तो तभी है जब थोड़े में ज़िदगी का लुत्फ़ उठाया जाये। लतिका स्टेशन पर भीड़ को देखकर कहती है ‘मुंबई की इनर्जी यहीं से शुरू होती है इतने लोगों में बंट जाती है पर कभी ख़त्म ही नहीं होती मुंबई सबको अपनी बाँहों में भर लेती है कितनी कहानियां बसी हैं’ अपनी पहली शोर्ट कहानी भी यही पर लिखी थी, आज जब वो डैनियल का इंतजार कर रही है तो समझ आ रहा है ‘इंतजार करवाने वालों की मर्ज़ी पर ही तो दुनियां चलती हैं’ सोचते हुए वो अकेले ही ट्रेन में चढ़ जाती है अब वो अपनी ट्रेन नहीं छोड़ेगी। कहानी का यह अंत आपको संतोष देता है जब वहां आपको डैनियल दिखाई देता है जिसने 10 साल से ट्रेन में सफ़र नहीं किया और अब ट्रेन में आया है लतिका की खातिर, उसे सॉरी बोलने के लिए लेकिन अब लतिका के लिए सॉरी कोई मायने नहीं रखता उसने इस सफर (लेखन) को अकेले शुरू कर दिया अब वो बेहतर लिखने की स्थिति में आ चुकी है क्योंकि एक चैप्टर तो उसने स्टेशन पर ही लिख लिया था विक्रम चौधरी वाला।
इसी सन्दर्भ में लतिका उस लड़की के पति को डाँटते हुए कहती है ‘इन्हें चाय पसन्द है कॉफ़ी नहीं सिर्फ आपको खुश करने के लिए पीतीं हैं और ऐसी ही चीज़ों से शुरू होता है’ फ़िल्म सन्देश दे रही है कि अब कोई और लतिका न बने ‘आपका अपना जीवन आपकी प्राथमिकता’ ये फिल्म भागदौड़ की जिन्दगी में खुद से प्यार करने की सीख दे रही है जब डैनियल ने कहा था ‘चाय से अधिक बौद्धिक कुछ नहीं हो सकता’ तो वो उस समय का सच मान बैठती है वास्तव में कोई आपसे वह बातें करे, जो आप सुनना चाहते हो तो वो आपको पसन्द आता है अथवा कहें कि आपको वही पसन्द आता है जो आपके अनुकूल है तो आप वहीँ ठहर जाते हैं लेकिन लतिका सत्रह साल से वहीँ ठहर गई आखिर ‘जिन्दगी कितनी देर यहीं पर रुकी है कितनी देर कितनी देर…’ इसलिए ‘जो भी हुआ है तूने ही किया है, तूने ही चुना है’ के बाद भी आपको लगता है कि लतिका की स्थिति पर स्त्री विमर्श के सन्दर्भों पर अलग से विचार की जरूरत है! शायद नहीं, यह एक खूबसूरत क्लासिक वैवाहिक प्रेम कहानी है जो विश्वास पर टिकी है जिस पर बौद्धिकता का मुल्लमा नहीं चढ़ा सकते जो लतिका और डैनियल को भी पसन्द न था।
कुल मिलाकर मॉडर्न लव: मुंबई की सभी फ़िल्में आपको जीवन का सार यानी प्रेम की बात कर रहीं है, प्रेम जिसे आप किसी भी रूप में कहीं भी पा सकतें है जहाँ किरदारों के अद्भुत अभिनय, बेहतरीन पटकथा, और सरल कहानियों के बीच एक साथ मन को सुकून और बैचैन करने वाला गीत संगीत है जो मानव मन का सुंदर चित्रण करता है। आधुनिक जीवन से जब प्रेम गायब होता जा रहा है ऐसे में ये फ़िल्में आपके ह्रदय को निश्चय ही झंकृत करेंगी जहाँ प्रेम में वे सभी भाव जिनमें आपकी कमजोरियां, सुख दुःख में हँसी-ख़ुशी दुःख दर्द सिर्फ और सिर्फ प्रेम रह जाते हैं।