मुद्दा

आर्थिक प्रश्न और राजनीतिक नीति

 

  आर्थिक प्रश्नों को राजनीतिक मुद्दा नहीं मानना चाहिए हालाँकि आर्थिक स्थिति को निर्धारित करने का निर्णय वे ही करते हैं; फिर भी राजनीतिक प्रणाली का निर्धारण आखिरकार आर्थिक वातावरण ही करता है। पूँजीवादी समाज व्यवस्था में आर्थिक नीति जनसाधारण की न्यूनतम चिंता करती है। हम जिस कॉर्पोरेट पूँजी के महावृत्तान्त में रह रहे हैं, वह जनता को सही या गलत तरीके से वोट देकर सत्ता उत्पन्न करने का माध्यम मानता है, जनता के जीवन और निर्वाह की आवश्यकताओं की कोई चिंता नहीं करता। इसे मेरी निजी राय न समझा जाय। इसके प्रमाण संस्थागत माध्यमों से प्रस्तुत होते हैं।

     जुलाई-सितम्बर की तिमाही में वृद्धि की रफ़्तार तेज़ी से गिरी है और 5.4 प्रतिशत रह गयी है। नतीजा यह कि कॉर्पोरेट सेक्टर में पारिश्रमिक औसत वृद्धि 1 या 2 प्रतिशत से लेकर 4-5 प्रतिशत दर्ज की गयी है जबकि कॉर्पोरेट आय में इसकी चौगुना वृद्धि हुई है। वेतन में वास्तविक वृद्धि की जगह गिरावट के कारण पिछले पाँच वर्षों में मांग घटती जा रही है, जिस कारण नीति निर्माताओं को चिंता हो रही है।

     यह निष्कर्ष 3000 क्लाइंट्स के अध्ययन के आधार पर फिक्की और क्वेस कोर्पोरेशन लिमिटेड के अध्ययन से सामने आयी है। मतलब यह कि न किसी स्वायत्त संस्था ने यह अध्ययन किया है, न सरकारी संस्था ने; बल्कि कॉर्पोरेट पूँजी की अपनी संस्था ने यह निष्कर्ष प्रतावित किया है। इससे ज़ाहिर होता है कि स्थिति कितनी विकराल है।  

    सबसे कम वेतन वृद्धि (0.8%) इंजीनियरिंग, मनुफैक्चरिंग प्रोसेस और इन्फ्रास्ट्क्चर (ईएम्पीआई) में है और सबसे ज्यादा एफएम्सीजी (फ़ास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स) और सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) सेक्टर में है।

     यदि इसपर गौर करें तो संकट केवल बाज़ार में माल बिकने का नहीं है, उत्पादन का भी है। विलासिता की वस्तुएँ बिक रही हैं और सूचना का क्षेत्र कामयाब है। इसके अलावा बाज़ार में मंदी है। इन दोनों क्षेत्रों से कॉर्पोरेट मालिकों की आमदनी चार गुना रफ़्तार से बढ़ी है लेकिन कामगारों की आमदनी चार गुना रफ़्तार से घटी है। इस स्थिति में विषमता बेतहाशा बढ़ रही है। स्वाभाविक है कि शासन के लिए अपनी स्थिरता बनाये रखना कठिन होता जा रहा है। चुनाव की धाँधली, फरेब, संस्थाओं का दुरुपयोग सत्ता के लिए मजबूरी हो गयी है।

     ज़ाहिर है, जिस सत्ता से कॉर्पोरेट को चौगुना मुनाफा होगा, वे उसे बनाये रखने के लिए जी-जान लगा देंगे। चुनाव में भ्रष्टाचार कैसे रोका जा सकता है? गिरती आमदनी के बावजूद अपनी लोकप्रियता के लिए 85 करोड़ को मुफ्त अनाज बाँटना सबसे अधिक जनहितकारी नीति हो गयी है। दूसरी तरफ दोनों हाथों से, बल्कि बीस हाथों से मुनाफा बटोरने वाले कॉर्पोरेट सार्वजनिक संस्थाओं से -बैंक, बीमा कंपनी इत्यादि से- लिया हुआ कर्ज वापस नहीं करते और सरकारें उनके खरबों के कर्ज माफ़ करती रहती हैं।

     आर्थिक संकट और राजनीतिक अवसरवाद के इस दोतरफा खेल में सबसे बुरी स्थिति जिस मध्यवर्ग की है, वही इस कॉर्पोरेट युग की राजनीति का सबसे मुखर प्रवक्ता है। यह कैसी विडम्बना है!

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अजय तिवारी

लेखक हिन्दी के प्रसिद्द आलोचक हैं। सम्पर्क +919717170693, tiwari.ajay.du@gmail.com
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