अमरीकी कंपनी वॉलमार्ट ने भारतीय ई-कॉमर्स कंपनी फ्लिपकार्ट को ख़रीद लिया। यह नया चलन है. इस डील से भारत की ई कॉमर्स इंडस्ट्री पर बड़ा असर पड़ने जा रहा है। दुनिया की सबसे बड़ी रिटेल डील कारोबारियों और उपभोक्ताओं दोनों पर असर डालेगी। यह नया चलन है। अब तक उत्पादन करने वाली बड़ी-बड़ी कंपनियाँ मिल रही थीं। कैडबरी और पेप्सी मिलीं। ऐसी तमाम उत्पादक कंपनियाँ मिलकर बड़ी-बड़ी इजारेदारियाँ क़ायम कर रही थीं। उससे बाज़ार पर एकाधिकार तो होता ही था, प्रतिस्पर्धा भी ख़त्म होती थी। अब विक्रय कंपनियों ने इजारेदारी क़ायम करना शुरू किया है।
इसके कई चिंताजनक पहलू हैं।
एक, विंडो शॉपिंग का ज़ोर कम हो रहा है, ई-शॉपिंग का प्रचलन बढ़ रहा है; पहले ही यहाँ एकाधिकार कर लेने पर छोटे प्रतियोगियों के घुसने का मौक़ा ही नहीं रहेगा।
दो, विकासशील देशों के ई-बाज़ार पर आसानी से क़ब्ज़ा जमाया जा सकेगा, स्थानीय प्रतियोगी पहले ही हार चुके होंगे।
तीन, खुदरा व्यापार में भी ऐसी कंपनियाँ जब माल बनाएंगीं तो सभी चीज़ें उनके नियंत्रण में रहेंगी। इस प्रक्रिया को ‘मर्जर मैनिया’ खुद अर्थशास्त्रियों ने नाम दिया है।
चार, भारत की एक ‘स्टार्ट अप’ कंपनी बहुराष्ट्रीय कंपनी की खुराक बन गई।
भारत में स्कूली शिक्षा के पुस्तक प्रकाशन में ‘मर्जर मैनिया’ का उदाहरन देखा गया है। विकास प्रकाशन ने मधुबन और सरस्वती प्रकाशन को ख़रीदा, फिर इन सबको एस. चाँद ने ख़रीदा और उसके बाद एस. चाँद को अंबानी ने ख़रीदा। अब बाक़ी छोटे प्रकाशकों के लिए नाममात्र की जगह रह गयी व्यापार के लिए। लेकिन यह भी उत्पादक इकाइयों का ‘मर्जर’ था। फ्लिपकार्ट को वॉलमार्ट द्वारा ख़रीदा जाना नयी परिघटना है।
यह छोटे व्यापारियों और विकासशील देशों के हितों के ख़िलाफ़ है। प्रकृति का यह हिंसक नियम यहाँ लागू होता है: बड़ी मछली हमेशा छोटी मछली को खाती है! पूँजीवाद इसी नियम पर चलता है। यह आपसी सहयोग के सभ्य-मानवीय नियम के विपरीत है। सहयोग का नियम श्रम के साथ जुड़ा है जिसने मनुष्य की रचना की है।
यह चेतना कौन पैदा करे?
नयी पीढ़ी को सभ्यता के मूल्य कैसे पता चलें?
किसानों-मज़दूरों-छोटे व्यापारियों के हित जितना एक-दूसरे से आज जुड़े हैं, यदि उस आधार पर कोई विकल्प तैयार हो तो देश की राजनीतिक दिशा बदल जाय!
पर यह कैसे हो, कौन करे??