SIGNUM:‚µë Sˆ>oœìAnžÏ‹
व्यंग्य

सुनिये प्रधानमन्त्री जी – वेद प्रकाश भारद्वाज

 

  • वेद प्रकाश भारद्वाज

 

सुनिये प्रधानमन्त्री जी! मैं आपके देश का एक अदना सा नागरिक आपको बड़े दुखी मन से यह पत्र लिख रहा हूँ। जब से चुनाव शुरू हुए मैं आपको पत्र लिखने की सोच रहा था पर आपकी व्यस्तताओं को देखते हुए लिखा नहीं। पर अब स्थिति कुछ ऐसी हो गयी है कि मुझसे रहा नहीं गया इसलिए यह पत्र आपको भेज रहा हूँ। सबसे पहले तो मैं आपसे क्षमा माँग लेता हूँ। क्षमा इसलिए माँग रहा हूँ कि मैं जो कुछ कहने जा रहा हूँ वह आपकी शान में गुस्ताखी होगी। वैसे तो इस देश में गुस्ताख लोगों की कमी नहीं हैं, तो एक मैं भी सही। पर हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है। अब गंगा है तो बहेगी, उसका उदाहरण देने की कौन-सी बात है। पर बात तो है। गंगा सिर्फ नदी नहीं है। वह हमारी संस्कृति है और संस्कृति में मेरी पूरी आस्था है। और संस्कृति कहती है कि कभी ऐसे बोल नहीं बोलना चाहिए जिनसे किसी का दिल दुखे। आप तो नेता हैं। इस बात को अच्छी तरह समझते हैं। आप नहीं समझेंगे तो कौन समझेगा। जनता तो समझने से रही। इसलिए अपनी संस्कृति का पालन करते हुए मैं पहले से ही क्षमा माँग लेता हूँ।

मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि इधर चुनाव में मुँहजोरी और सीनाजोरी बहुत हो रही है। यह कोई नयी बात नहीं है। हमेशा से ऐसा ही होता आया है। पिछले तीस-चालीस साल से तो यही हो रहा है। पहले बीमारी फर्स्ट स्टेज पर थी तो कोई ध्यान नहीं देता था। पर अब तो हद हो गयी है। जिसे देखो वह किसी के बारे में कुछ भी बोलने लगता है। और तो और आपके बारे में भी पता नहीं क्या-क्या बोल रहे हैं। उनकी बातें सुनकर यह भी नहीं कहा जा सकता कि क्या ‘क्या अकल घास चरने चली गयी है।‘ क्योंकि उनकी बातें सुनकर तो लगता नहीं है कि उनका वास्ता अकल नामक किसी पदार्थ से है।

अचानक इतिहास और वर्तमान एक किये दे रहे हैं। कोई टोक दे तो हीं हीं हीं करके कहने लगते हैं जी सॉरी जुबान फिसल गयी थी। थोड़ी देर बाद फिर फिसल जाते हैं। लगता है आदत से मजबूर हैं। ऐसा लगता है जैसे फिसलने की कोई प्रतियोगिता चल रही है। अब ऐसे माहौल में आपका फिसल जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। पर जान की अमान पाऊँ तो एक बात कहूँ, यह सब आपको शोभा नहीं देता। आप तो प्रधानमन्त्री हैं। संस्कृति के रक्षक हैं। भारतीयता आपकी रगों में बहती है। और भारतीय संस्कृति कहती है कि हमें कभी अपने मुख से अपशब्द नहीं निकालने चाहिए। महात्मा गाँधी ने कभी अँग्रेजों को गाली नहीं दी। बस हाथ में लाठी रखते थे। आज के गाँधी नामधारी हों या उनके सगे वाले, सब फर्जी हैं। गाँधी का तो एक गुण नहीं है उनमें। पर आप तो वैसे नहीं हैं। कहते हैं कीचड़ में पत्थर फेंको तो कीचड़ आपके ही कपड़ों पर लगता है। माना कि राजनीति कीचड़ की खान है पर आपकी अलग शान है। अब आप ही कीचड़ से खेलने लगेंगे तो भला दूसरों को कैसे रोकेंगे!

माना कि हिन्दूस्तानी हैं और होली अपना प्रिय उत्सव है। होली में नालियाँ साफ हो जाती हैं। उनका सारा कीचड हाथों के रास्ते कपड़ों से होता हुआ चेहरे तक को बदलने का काम करता है। होली का असली मज़ा तो कीचड़ से ही आता है। पर यह क्या कि आप नेताओं ने चुनाव को ही होली बना दिया है। बरसाने की लठमार होली भी गनीमत है। कम से कम मारने वाले और मार खाने वाले को पता होता है कि अभिनय करना है। देखने वाले भी जानते हैं कि सिर्फ रस्म निभाई जा रही है। पर इस चुनाव में सब कुछ असली लगता है। आपसे निवेदन है कि यदि यह सब असली नहीं है तो बता दीजिए। आप लोगों की बातों को सच मानकर जनता कुछ का कुछ कर गुजरती है। और यदि आप लोग सचमुच में अभिनय किया करते हैं तो आप सबको ऑस्कर मिलना चाहिए।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं|

सम्पर्क-  +919871699401,  bhardwajvedprakash@gmail.com

.

कमेंट बॉक्स में इस लेख पर आप राय अवश्य दें। आप हमारे महत्वपूर्ण पाठक हैं। आप की राय हमारे लिए मायने रखती है। आप शेयर करेंगे तो हमें अच्छा लगेगा।

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments


sablog.in



डोनेट करें

जब समाज चौतरफा संकट से घिरा है, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, मीडिया चैनलों की या तो बोलती बन्द है या वे सत्ता के स्वर से अपना सुर मिला रहे हैं। केन्द्रीय परिदृश्य से जनपक्षीय और ईमानदार पत्रकारिता लगभग अनुपस्थित है; ऐसे समय में ‘सबलोग’ देश के जागरूक पाठकों के लिए वैचारिक और बौद्धिक विकल्प के तौर पर मौजूद है।
sablog.in



विज्ञापन

sablog.in