पिछले कुछ सालों से मणिपुर का बहुसंख्यक मैतेई समुदाय अनुसूचित जनजाति (एस.टी.) के दर्ज़े की माँग कर रहा है और वहाँ का कुकी आदिवासी समुदाय मैतेई समुदाय की इस माँग का विरोध करता आया है। दुर्भाग्य से विगत 27 मार्च को आये मणिपुर उच्च न्यायालय के एक अदालती आदेश ने इन दोनों समुदायों के बीच चले आ रहे तनाव को चरम बिंदु पर पहुँचा दिया जिसका परिणाम है इन दोनों समुदायों के बीच जारी वर्तमान हिंसक जातीय संघर्ष। अदालत के इस आदेश के तत्वाधान में राज्य सरकार द्वारा मैतेई समुदाय को एस.टी. सूची में शामिल करने की संभावित अनुशंसा के खिलाफ मणिपुर के ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन द्वारा राज्य के चुराचांदपुर जिले में आयोजित एक विरोध रैली के साथ मैतेई समुदाय की जो झड़प 3 मई को हुई थी, तब से लेकर अब तक लगभग तीन महीने गुजर चुके हैं लेकिन मणिपुर की यह आग थमने का नाम नहीं ले रही है। अब तक 150 से ज्यादा लोग इस हिंसा में अपनी जान गंवा चुके हैं और लगभग साठ हजार आबादी को अपने घरों से विस्थापित होना पड़ा है। हिंसा में कुकी और मैतेई, दोनों समुदायों के घर, व्यावसायिक प्रतिष्ठान और उपासना स्थल तक जलाये गये हैं।
स्थिति की भयावहता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि सेना, असम राइफल, बीएसएफ, सीआरपीएफ और एसएसबी के 40 हजार से ज्यादा सुरक्षा बलों की उपस्थिति के बावजूद हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है। स्थानीय महिलाओं की ओर से भी सुरक्षा बलों का जबर्दस्त प्रतिरोध हुआ है। अब केंद्र 35 हजार और सुरक्षा बल तैनात करने जा रहा है। भीड़ के द्वारा जन प्रतिनिधियों और मंत्रियों तक के ऊपर हमले हुये हैं। उनके घरों आदि को भी जलाने और तोड़-फोड़ किये जाने की खबरें सुर्खियों में रही हैं। देश के गृहमंत्री मई में मणिपुर का दौरा कर चुके हैं और केंद्र सरकार समेत राज्य सरकार बीच में स्थिति सामान्य होते जाने का दावा भी कर चुकी है किंतु जमीनी धरातल पर हिंसा और गतिरोध ज्यों का त्यों बना हुआ है जो इन दावों को सिरे से खारिज कर देता है। चुराचांदपुर और इंफाल आदि में दुकानों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर सामुदायिक नाम लिख दिये गये हैं ताकि हिंसा के दौरान भीड़ अपने समुदाय की दुकान और प्रतिष्ठान को पहचान सके और उन्हें क्षति न पहुँचाए। विरोधी समुदाय की भीड़ द्वारा घरों को जलाये जाने और अपने परिजनों-परिचितों को गोली से उड़ाने जाने के दृश्यों और खबरों ने पीड़ित पक्षों को जिस मानसिक त्रासदी में डाला है, उसका अनुमान ही किया जा सकता है। मणिपुर का केंद्रीय विश्वविद्यालय तक हिंसा से नहीं बच पाया है।
मैतेई समुदाय की एक उग्र भीड़ द्वारा दो कुकी महिलाओं के साथ किये गये सामूहिक बलात्कार और उन्हें नग्न करके घुमाने का एक वीडियो 19 जुलाई को वायरल होने के बाद मणिपुर में दोनों समुदायों के बीच तनाव और भी ज्यादा बढ़ गया है। पड़ोसी राज्य मिजोरम में मणिपुर के कुकियों के समर्थन में वहाँ के कुकी और नागा आदि आदिवासियों ने अभी हाल ही में एक बड़ी रैली निकाली है जिसमें दलगत राजनीति से ऊपर उठकर राज्य के मुख्यमंत्री और मंत्रियों तक ने शिरकत की है। मिजोरम में शरण पाये मैतेई विस्थापितों के ऊपर राज्य छोड़कर वापस लौटने का दबाव बढ़ता जा रहा है। वायरल हुई यह घटना 4 मई की बतायी जाती है लेकिन राज्य में इंटरनेट बंदी के कारण यह घटना अभी तक दबी हुई थी। आशंका है कि ऐसी और कई घटनाएँ हुई हैं जिनमें महिलाओं को बलात्कार और हिंसा का शिकार बनाया गया है।
19 जुलाई के वीडियो के सामने आने के बाद अभी तक मणिपुर की हिंसा पर चुप्पी साधे बैठे प्रधानमंत्री जी को भी अपना मुँह खोलना पड़ा है और उन्होंने इसे 140 करोड़ देशवासियों के लिए शर्म का विषय बताया है। यह अलग बात है कि अपने इस बयान में भी वे राजनीति करने से बाज नहीं आये हैं। इससे पूर्व प्रधानमंत्री की निष्क्रियता और उनके मौन से व्यथित हो उनके मन की बात कार्यक्रम का बहिष्कार करते हुए इंफाल में कुछ लोगों ने सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन करते हुए अपने रेडियो सेट भी तोड़ डाले थे। मणिपुर को लेकर कांग्रेस समेत समूचा विपक्ष केंद्र की भाजपा सरकार पर हमलावर बना हुआ है और यह लेख लिखे जाने तक संसद के मौजूदा सत्र में पक्ष-विपक्ष के बीच घमासान मचा हुआ है। प्रधानमंत्री और उनकी सरकार पर चर्चा से भागने के आरोप लग रहे हैं। संसद में लगातार जारी गतिरोध के बीच विपक्ष सरकार की निष्क्रियता को लेकर अविश्वास प्रस्ताव भी ले आया है। इस बीच इस मुद्दे के चलते वैश्विक स्तर पर भी देश की खूब किरकिरी हो रही है। यूरोपीय संसद ने 13 जुलाई को एक प्रस्ताव पारित करके भारतीय अधिकारियों से मणिपुर में हिंसा को रोकने और धार्मिक अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए सभी उपाय करने की अपील तक कर डाली है।
कुकी बाहुल्य वाले पहाड़ी जिले चुराचांदपुर और मैतेई बाहुल्य वाले घाटी अंतर्गत स्थिति बिशुनपुर जिले की सीमा बनाने वाले हाईवे से गुजरते वक्त इन दोनों समुदायों के बीच बन चुकी अविश्वास और नफरत की गहरी खाई को साफ-साफ देखा और महसूस किया जा सकता है। पहाड़ और इंफाल घाटी के बीच के भौगोलिक विभाजन ने अब राजनीतिक विभाजन और जातीय गोलबंदी का रूप ले लिया है। राज्य की पहाड़ी कुकी आबादी में अब घाटी की मैतेई आबादी से प्रशासनिक पार्थक्य और स्वायत्तता की माँग जोर पकड़ती जा रही है। कुकी समुदाय से आने वाले दस विधायकों, जिनमें सत्ताधारी भाजपा के 7 विधायक भी शामिल हैं, ने केंद्र सरकार के समक्ष कुकी पहाड़ी क्षेत्र के लिए अलग प्रशासन हेतु एक प्रतिवेदन भी दे दिया है। इन 7 भाजपाई विधायकों में से 2 तो राज्य सरकार में मंत्री भी हैं। कुकियों द्वारा अपने लिए अलग राज्य का भी तक़ाज़ा किया जाने लगा है। इसके विरोध में मैतेई ‘एक मणिपुर एक राज्य’ का नारा लगा रहे हैं।
मणिपुर की इस हिंसा में चरमपंथी समूहों की भागीदारी की खबरें भी मिली हैं। म्यांमार के कुकी उग्रवादियों के साथ-साथ मैतेई चरमपंथी संगठनों की संलग्नता भी हिंसा में देखी गई है। अरामबाई तेंगगोल और मैतेई लीपुन जैसे जिन मैतेई समूहों के लड़ाके स्वचालित हथियारों से कुकियों पर हमले करते पाये गये हैं, उनके बारे में यह भी कहा जा रहा है कि ये दोनों संगठन आरएसएस से जुड़े हुए हैं। पुलिस और सुरक्षाबलों के शस्त्रागारों से भारी संख्या में हथियार और गोला-बारुद लूटा जाना सामान्य बात नहीं है। कथित तौर पर लगभग चार हजार हथियार और पाँच लाख नग से ऊपर का गोला बारुद और मोर्टार आदि सरकारी शस्त्रागारों से लूटा गया है। मीडिया में ऐसी खबरें हैं कि बिना सरकारी मिलीभगत के ऐसा संभव न था। गृहमंत्री अमित शाह और मुख्यमंत्री एन. वीरेन सिंह की अपील के बावजूद अभी भी लूटे गये सरकारी हथियार आदि बड़ी संख्या में लोगों के पास है। सड़कों के किनारे लोगों द्वारा अपनी सुरक्षा में बनाये गये बंकर जगह-जगह देखे जा सकते हैं। असम राइफल और एसएसबी आदि पर पक्षपात के आरोप भी लग रहे हैं। सरकारी मशीनरी सामुदायिक आधार पर कुकी और मैतेई के बीच जमीनी स्तर पर बंटी हुई नज़र आती है।
ऊपर से यह सारा झगड़ा एस.टी. आरक्षण पर केंद्रित दिखाई देता है। कुकी आदिवासी किसी भी कीमत पर आरक्षण में मैतेइयों की साझेदारी के लिए तैयार नहीं हैं लेकिन मैतेइयों की एस.टी. आरक्षण विषयक इस माँग के साथ भूमि अधिकार का मसला भी जुड़ा है। संविधान के अनुच्छेद 371 सी और मणिपुर भू राजस्व और भू सुधार अधिनियम, 1960 के तहत पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले कुकी आदि आदिवासियों को भूमि विषयक विशेष अधिकार प्राप्त हैं। सामान्यत: मैतेई व्यक्ति पहाड़ी क्षेत्र में जमीन आदि नहीं खरीद सकता। दूसरी ओर इंफाल घाटी में कुकी आदि आदिवासी समुदायों से संबंद्ध जमीन का हस्तांतरण मैतेई आदि गैर आदिवासी आबादी को नहीं हो सकता।
मैतेई आबादी द्वारा एस.टी. दर्ज़े के लिए जो शोर-शराबा किया जाता रहा है, उससे कुकी आबादी में अपने भू अधिकारों को लेकर एक आशंका पैदा हुई है। कुकी लोगों को यह भय खाये जा रहा है कि अगर मैतेई एस.टी. अंतर्गत परिगणित कर लिये जाते हैं तो अनुच्छेद 371 और 1960 वाले पूर्वोक्त अधिनियम के तहत प्राप्त कुकियों के भू अधिकार और विशेषाधिकार भी छिन जाएंगे। मणिपुर विधानसभा से पारित भू-राजस्व और भू सुधार विधेयक 2015 में भी एक ऐसा संसोधन प्रस्तावित है जो अनुसूचित जनजातियों के अधिकारों को कमजोर करने वाला है। इस विधेयक के खिलाफ उस वक्त चुराचांदपुर जिले में हुए धरना-प्रदर्शनों में 9 लोग मारे गये थे। तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह को द आल ट्राइबल स्टूडेंट्स’ यूनियन ऑफ मणिपुर और मणिपुर ट्राइबल’स फोरम, दिल्ली जैसे मणिपुर के विभिन्न आदिवासी संगठनों के प्रतिनिधि मंडल को आश्वासन भी देना पड़ा था कि केंद्र सरकार राज्य द्वारा पारित इस विधेयक पर कोई निर्णय लेने से पहले सभी पक्षों से सलाह मशवरा करेगी। स्पष्ट है कि मैतेइयों को एस.टी. सूची में शामिल करने की तैयारी और कुकियों के भू अधिकारों को कमजोर करने वाली विधायिका की पहल ने राज्य के कुकी आदिवासियों के अंदर संविधान प्रदत्त अपने विशेषाधिकारों को लेकर एक असुरक्षाबोध भर दिया है।
वास्तव में इस पूरे झगड़े के पीछे संसाधनों के असमान वितरण को साफ-साफ देखा जा सकता है। मैतेई समुदाय की आबादी की हिस्सेदारी राज्य की कुल जनसंख्या में 60 प्रतिशत है जबकि यह 60 प्रतिशत आबादी राज्य के 10 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र में रहती है। मैतेई लोगों का कहना है कि उनकी आबादी में होने वाली वृद्धि और बाहरी लोगों के इंफाल घाटी में बसते जाने से निकट भविष्य में घाटी की जमीन पर आबादी का बोझ भयावह ढंग से बढ़ जाएगा। वे इस संदर्भ में इसीलिए गैर मणिपुरी आबादी पर नियंत्रण की माँग कर रहे हैं। जहाँ वे कुकियों पर आरक्षित वन क्षेत्रों और संरक्षित क्षेत्रों में अतिक्रमण करने के आरोप लगाते रहे हैं, वहीं उनके द्वारा यह भी प्रचारित किया गया है कि कुकी बाहरी हैं और बांग्लादेश और म्यांमार से घुसपैठ करके ये लोग अपने नये-नये गाँव बसाते जा रहे हैं।
मैतेइयों द्वारा कुकियों को बाहरी बताये जाने से कुकियों के अंदर आक्रोश पैदा होना स्वाभाविक है जबकि पूर्वोत्तर के ज्यादातर आदिवासी समुदाय ऐतिहासिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक दृष्टि से देश की सीमाओं की हदबंदी में नहीं अंटते। यह कटु सच्चाई है कि राष्ट्र राज्यों की सीमाओं ने कभी आदिवासियों का सम्मान करना सीखा ही नहीं। इस आक्रोश की आग में घी डालने का काम किया है राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन (एनआरसी)) लागू करने की धमकियों ने। बार-बार घोषित और अघोषित रूप से कुकियों को बाहरी मूल का बताना और पड़ोसी देशों से होने वाली कुकियों की कथित घुसपैठ को रोकने और ऐसी विदेशी आबादी को मणिपुर से बाहर निकालने के लिए राज्य में एनआरसी लागू करने की केंद्र और राज्य सरकारों की योजना से कुकियों को लगता है कि व्यवस्था पर नियंत्रण रखने वाले गैर आदिवासी बहुसंख्यकों द्वारा उन्हें निशाना बनाया जा रहा है। उनकी इस पीड़ा को एनआरसी को लेकर देश भर में मुसलिम आबादी के खिलाफ फैलाये गये सांप्रदायिक उन्माद के संदर्भ में अच्छी तरह से समझा जा सकता है।
मैतेई लोगों का एक आरोप यह भी है कि पहाड़ों में रहने वाले कुकी लोग नार्को आतंकवादियों के इशारे पर अफीम/पोस्ता की अवैध खेती करते हैं और मादक पदार्थों की तस्करी और व्यापार में संलग्न हैं। हर राज्य सरकार की जैसे मणिपुर की सरकार भी मादक पदार्थों की अवैध खेती और उत्पादन के साथ उनके व्यापार के खिलाफ कार्रवाई अभियान चलाती है लेकिन इस सब में कुकियों की कथित संलग्नता के नाम पर उन्हें निशाना बनाने की आशंकाओं पर इनकार नहीं किया जा सकता। दोनों समुदायों के बीच इस मसले ने भी दरार पैदा करने का काम किया है। वास्तव में यह जमीनी सच्चाई है कि पहाड़ी क्षेत्रों में कुकी लोग अफीम की खेती करना आर्थिक रूप से लाभप्रद पाते हैं किंतु यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि इस पूरे धंधे के पीछे मैतेई पूँजीपति और ड्रग माफिया ही असली गुनहगार हैं। अफीम की खेती कुकी और मैतेई, दोनों का संयुक्त उपक्रम कही जा सकती है। अत: इस अवैध खेती के लिए सिर्फ कुकियों को बदनाम करना और उन्हीं के खिलाफ विशेष कार्रवाई करना अनुचित ही कहा जाएगा।
कुकी-मैतेई संघर्ष का एक आयाम धर्म से भी जुड़ा है। कुकी आदिवासी ईसाई धर्म को मानने वाले हैं। मैतेई समुदाय की भी अपनी एक विशिष्ट देशज धार्मिक पहचान रही है। ये लोग परंपरागत रूप से सानामाही धर्म को मानते थे किंतु अभी मात्र 16 प्रतिशत ही अपने मूल धर्म को मानते हैं जबकि लगभग 83 प्रतिशत धर्मांतरित होकर वैष्णव हिंदू बन चुके हैं। कुछ मैतेई मुसलिम धर्म में भी आस्था रखते हैं। अलग-अलग धर्मों से जुड़े होने के कारण सांप्रदायिक ताकतों के बहकावे में आकर दोनों समुदायों ने आपसी संघर्ष एक-दूसरे के उपसाना स्थलों पर भी हमले किये हैं। यह भी तथ्य है कि दोनों समुदाय के बीच तनाव बढ़ाने में उन घटनाओं ने भी योगदान दिया जिनमें कुछ आक्रामक किस्म के कुकी लोगों ने बहुसंख्यक मैतेई समुदाय के लोगों को उनके दो पवित्र स्थलों पर जाने से रोकने का प्रयास किया। कांगपोकपी जिले के अंतर्गत आने वाला कौब्रू पहाड़ और मोइरांग कस्बे के निकट स्थिति थंगजिन ऐसे ही पवित्र स्थल हैं जिनका मैतेइयों के लिए धार्मिक महत्त्व रहा है।
अंत में गौर तलब है कि मणिपुर उच्च न्यायालय द्वारा राज्य सरकार को दिये गये जिस निर्देश से राज्य के इन दोनों समुदायों के बीच स्थिति विस्फोटक बनी, उसकी संवैधानिक वैधता पर भी सवाल खड़े हो गये हैं। 27 मार्च को मणिपुर उच्च न्यायालय के कार्यवाह मुख्य न्यायधीश मुरलीधरन ने राज्य सरकार को यह निर्देश दिया था कि वह मीतेई / मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने पर अपेक्षित विचार करे। वास्तव में 2013 में केंद्र सरकार के जनजातीय मंत्रालय ने मैतेई को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी अंतर्गत शामिल करने के लिए राज्य सरकार की अनुशंसा चाही थी किंतु राज्य सरकार ने उस पर कोई कार्यवाही नहीं की। इस के बाद मैतेई ट्राइबल यूनियन के कुछ सदस्यों ने इस मामले में मणिपुर उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा दिया कि वह हस्तक्षेप करे। मैतेई ट्राइबल यूनियन की उसी याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायालय ने 27 मार्च को एक आदेश राज्य सरकार को दिया था किंतु अपने इस आदेश में उच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 342 की उस आधारभूत अवधारणा का खुला उल्लंघन कर दिया जो स्पष्ट करती है कि किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूची में डालने या सूची से बाहर निकालने का कोई अधिकार राज्य सरकार के पास नहीं है। प्रत्येक राज्य के लिए अनुसूचित जनजाति की सूची अधिसूचित करने का अधिकार संविधान राष्ट्रपति को देता है और उसमें संशोधन का अधिकार संसद को देता है। सर्वोच्च अदालत ने भी इस संदर्भ में मणिपुर उच्च न्यायालय के आदेश की जोरदार आलोचना की है और इसके तत्वाधान में मणिपुर उच्च न्यायालय ने अपने आदेश पर पुनर्विचार की याचिका स्वीकार कर ली है।
अस्तु, विगत कुछ सालों से जिस प्रकार राजनीतिक लामबंदी और दबाव की राजनीति करके गैर आदिवासी समुदायों को अनुसूचित जनजातियों की सूची में बैकडोर से डालने का जो षडयंत्र किया जा रहा है, मणिपुर का यह पूरा मामला उस व्यापक परिप्रेक्ष्य से भी जुड़ा है। मैतेई समुदाय इस संदर्भ में एक क्लासिकल केस स्टडी का विषय हो सकता है क्योंकि यह समुदाय अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और आर्थिक पिछड़ा वर्ग, तीनों श्रेणियों में आरक्षण का लाभ पहले से उठा रहा है। राज्य विधायिका और प्रशासन में अपने संख्याबल से यह पूरी पकड़ रखता है और अब इसी राजनीतिक-प्रशासनिक ताकत का इस्तेमाल करके यह अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत भी आना चाहता है।
कुल मिलाकर साफ है कि मणिपुर की वर्तमान हिंसा के मूल में संसाधनों के वितरण से जुड़ी राजनीति सीधे-सीधे सक्रिय है। न तो कोई अदालत मैतेई और कुकी समुदाय के बीच के तनाव और आपसी मारकाट को खत्म कर सकती है और न सुरक्षा बलों के बल पर स्थायी शांति बहाल की जा सकती है। अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में गैर आदिवासियों की घुसपैठ से स्थिति और बदतर ही होगी। मणिपुर सरकार का वर्तमान नेतृत्व जिस तरह से विगत कुछ समय से लगातार पक्षपातपूर्ण कदम उठाता आ रहा है और हिंसा को रोकने में नाकामयाब रहा है, उसके मद्देनज़र मुख्यमंत्री को हटाकर राष्ट्रपति शासन लगाना ही इन स्थितियों में सबसे उपयुक्त विकल्प है ताकि राज्य में कानून और व्यवस्था की स्थिति पुन: बहाल की जा सके। इसके साथ ही दोनों पक्षों को वार्ता की टेबल पर लाकर समस्या का राजनीतिक समाधान निकालना पड़ेगा। यह बहुत खेद का विषय है कि संसाधनों के वितरण की राजनीतिक लड़ाई को सांप्रदायिक रंग दिये जाने की कोशिशें हो रही हैं। मैतेई और कुकी के संघर्ष को हिंदू-ईसाई सांप्रदायिक झगड़े के रूप में पेश करने के कुत्सित प्रयास मीडिया द्वारा किये जा रहे हैं। विभाजनकारी दक्षिणपंथी राजनीति करने वाली ताकतों को समझना होगा कि धार्मिक, जातीय, नस्लीय और क्षेत्रीय पहचानों को उभारकर मतदाताओं को परस्पर विभाजित करके चुनाव तो जीता जा सकता है लेकिन लोकतंत्र तभी जिंदा रहता है जब आप पक्ष और विपक्ष, दोनों को साथ में लेकर शासन चलाते हैं। पक्षपातपूर्ण नीतियाँ और इरादे अंतत: शासन सत्ता का इकबाल खत्म कर देते हैं, जैसे अभी मणिपुर में धरातल पर साफ नज़र आ रहा है।