कसौली का कहर
दिल्ली की ‘हसीन दिलरूबा’ पर ‘कसौली का कहर’ कुछ इस तरह पड़ता है कि फिल्म की कहानी जासूसी उपन्यास में तब्दील हो जाती है। इस बात में तनिक संदेह नहीं कि साहित्य का प्रभाव समाज पर प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से हमेशा रहा है। दिनेश पण्डित के उपन्यासों का असर फिल्म की मुख्य किरदार रानी कश्यप (तापसी पन्नू) के जीवन पर अंत तक बना रहता है।
कहानी शुरू होती है, दिल्ली की रानी कश्यप और ज्वालापुर (हरिद्वार) के ऋषभ सक्सेना (विक्रांत मैसी) की शादी से! रानी कश्यप हिन्दी साहित्य में एम.ए है और ऋषभ (रिशु) इंजीनियर है। शादी होने के बाद कहानी एक रोचक मोड़ लेती है। पति-पत्नी के अच्छे सम्बन्ध न होने के कारण रानी के अपने देवर (ऋषभ के मौसेरे भाई) नील (हर्षवर्धन राणे) से सम्बन्ध बन जाते हैं। जिसको हमारे समाज में ‘एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर’ कहा जाता है।
रिशु, रानी से पूछता है- आपको कैसा लड़का चाहिए था रानी जी? रानी कहती है- जिसका सेंस ऑफ ह्यूमर हो, डेशिंग हो, नॉटी हो, प्यार में पागल हो, कभी-कभी तो बाल खींच ले, कभी-कभी चूम ले, थोड़ा सिरफिरा, एक तरह से सिक्स-इन-वन टाइप लड़का! तब रिशु कहता है- आपको पाँच-छ: लड़के एक साथ चाहिए रानी जी! अब एक में कहाँ मिलेगा यह सब?
हमारे समाज में आज भी संपूर्णता की चाह बनी रहती है चाहे वह लड़की में हो या लड़के में। पर यह भी चिन्तन का विषय है कि ऐसे रिश्तों की अंदरूनी खटास के कारण क्या होते हैं? या समाज के सामने क्या दिखाए जा रहे हैं? केवल शारीरिक संतुष्टि ही विवाह-विच्छेद का कारण है? या मानसिक संतुष्टि भी?
फिल्म में एक संवाद है- ‘रिश्ते तो मानसिक होते हैं, फिजिकल तो संभोग होता है? जब लड़की अपना परिवार छोड़कर नए समाज में परिवेश करती है; तो उसे वहाँ के समाज को समझने में समय लगता है। रहन-सहन, खान-पान वह तुरन्त अपनाए ऐसी अपेक्षाएं संबंधों को कमजोर बनाती हैं। रानी अपनी मम्मी से बात करते हुए कहती है- “कभी होमली फील कराओ कभी मैनली फील कराओ कितनी फिलिंग्स देनी पड़ेगी रिश्ते को बनाने या बनाए रखने के लिए” फिल्म की कहानी फर्स्ट हाफ में थोड़ी धीमी और सेकंड हाफ में तेजी से बढ़ती है।
फिल्म गंगा के पानी और आग के धुंए से शुरू होती है। फिर एक कटा हुआ हाथ सामने आता है जिस पर रानी लिखा होता है। दरअसल होता यह है कि जब रिशु की शादी रानी से तय हो जाती है, तो वह उसके नाम का टैटू अपने हाथ पर करा लेता है। और शुरुआती दौर में दर्शकों को यह भ्रम हो जाता है कि जिस व्यक्ति की आग में जलकर मृत्यु हुई है वह रिशु है, लेकिन कहानी के अंत में पता चलता है कि वह नील था।
पूरी कहानी समझने के लिए आपको नेटफ्लिक्स पर फिल्म देखनी होगी। विनील मैथ्यू द्वारा निर्देशित और कनिका ढिल्लो द्वारा लिखित ‘हसीन दिलरूबा’ में मुख्य किरदार तापसी पन्नू और विक्रांत मैसी का है। पर सच कहे तो पूरी फिल्म तापसी के कंधों पर ही टिकी रहती है। लेकिन विक्रांत मैसी ने इस फिल्म में अपनी पूर्व फिल्मों से अलग किरदार निभाया है जो काफी आकर्षित करता है। विलेन की भूमिका में हर्षवर्धन राणे अच्छा प्रभाव छोड़ते हैं।
विनील मैथ्यू इससे पहले ‘हंसी तो फंसी’ (2014) फिल्म का निर्देशन भी कर चुके हैं। बतौर पटकथा लेखिका कनिका ढिल्लों ‘मनमर्जियां’, ‘जजमेंटल है क्या’ और ‘गिल्टी’ जैसी फ़िल्मों की पटकथा लिख चुकी हैं। ‘हसीन दिलरूबा’ फिल्म की भाषा दिल्ली और ज्वालापुर दोनों को मिला-जुला कर प्रस्तुत की गई है। काफी बार गंगा के दर्शन भी होते हैं। निर्देशन के रूप में कुछ चीजें दिमाग में खटकती रहती हैं।
पहली तो यह है कि जब नील का हाथ काटते समय रानी के कपड़ों पर खून का कोई भी दाग न दिखाई देना, यहाँ तक की पांच से दस मिनट तक की उस पूरी कहानी में रानी का रिशु को उठा के ले जाना और उसके कपड़े एकदम साफ रहना। फिल्म की शुरुआत में रानी का दरवाजे से मुस्कुराते हुए बाहर आना, अंत में वही सीन दोबारा देखने पर उसके चेहरे पर घबराहट दिखाई पड़ना आदि।
फिल्म में एक डायलॉग है- “अमर प्रेम वही है जिस पर खून के हल्के-हल्के से छींटे हो ताकि उसे बुरी नजर ना लगे” पर यह छींटे रानी के कपड़ों पर फिल्म में नहीं दिखाई दिए। फिल्म में संगीत परिस्थिति अनुसार लिया गया है। जिसमें एक गाना ‘आने जाने वाले सारे तकने लगे, नाम तेरा हम नींद में बकने लगे’ भी है। फिल्म में दृश्यों की बात करें तो हरिद्वार बार-बार दिखाई पड़ता है। फिल्म की कहानी तेजी से बढ़ती है एडिटिंग उसके अनुसार की गई है।
निष्कर्षत: फिल्म की कहानी जासूसी उपन्यास की तरह लगती है और दर्शकों को बांधे रखती है। दिनेश पण्डित के उपन्यासों की प्रशंसक रानी कश्यप अपने जीवन में भी उसी कहानी को दोहराती हैं। मुख्य रूप से फिल्म की विषय-वस्तु ‘एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर’ पर आधारित है। अभिनय के मामले में फिल्म की रैंकिंग में कोई कटौती नहीं की जा सकती। कहानी को दर्शाने के तरीके पर प्रश्न चिन्ह लगाया जा सकता है!