शख्सियत

अपने समय को रच रहे हैं श्री कैलाश सत्‍यार्थी

 

  • पंकज चौधरी

 

नोबेल शान्ति पुरस्‍कार से सम्‍मानित श्री कैलाश सत्‍यार्थी ने पिछले दो-तीन महीनों के दरमियान दो ऐसी मकबूल कविताएँ लिखी हैं जो हमारे समय को अभिव्‍यक्‍त कर रही हैं। विगत कुछ सालों से विशेषकर पिछले तीन-चार माह के दौरान पूरे देश के सामाजिक और सांस्‍कृतिक ताने-बाने को बिगाड़ने की जो अहर्निश साजिश चल रही है, उससे श्री सत्‍यार्थी काफी व्‍यथित हुए हैं और उन्‍होंने अपनी व्‍यथा और संवेदना को कविताओं में दर्ज किया है। इस विकट महामारी के दौर में प्रकृति से जहाँ लोगों को खौफ खाना चाहिए था, वहीं हिन्दुस्तान को लिंचिस्‍तान में बदल देने की कवायद चल रही है। धर्म विशेष के हाशिए के लोगों को गाहे-बगाहे हिंसा का शिकार बनाया जा रहा है।

इन कविताओं में गाँधीजी के शब्‍दों में कहें तो ‘अन्तिम जन’’ के प्रति बेहिसाब दर्द छलकता है। श्री सत्‍यार्थी के गुस्‍से और व्‍यंग्‍य हालात की भयावहता का पता देते हैं। इसके बावजूद उन्‍हें भरोसा है कि यह उदास मंजर छंटेगा क्‍योंकि सुबह की प्रविष्टि घने अन्धकार के बाद ही होती है।

होली समानता और भाईचारे का प्रतीक है। इससे हमारी एकजुटता भी परिलक्षित होती रही है। लेकिन पिछले कुछ महीनों से पूरे देश में जो जलजला आया हुआ है, खून-खराबा और कत्‍लेआम हुआ है वे किसी भी संवेदनशील इंसान के रोंगटे खड़े करने के लिए काफी हैं। जलते हुए देश ने हमारे आपसी विश्‍वास और साम्‍प्रदायिक सद्भाव को तार-तार करने का काम किया है। क्षत-विक्षत हो चुकी है इससे हमारी सामासिक संस्‍कृति।

Kailash Satyarthi Rescued The Five Year Old Child Who Was Fighting ...श्री सत्‍यार्थी इस पूरे सिचुएशन को अपनी कविता में कुछ इस तरह अभिव्‍यक्‍त करते हैं-

‘’इस बार

सिर्फ एक रंग में रंग डालने के

पागलपन ने

लहूलुहान कर दिया है

मेरे इन्द्रधनुष को।‘’

यह इन्द्रधनुष भारत के सभी धर्मों, जातियों, भाषाओं, संस्‍कृतियों, क्षेत्रों का समन्वित रूप है। इस समन्वित रूप के विखण्डन का दुष्‍परिणाम यह हुआ है-

‘’अब उसके खून का लाल रंग

सूख कर काला पड़ गया है

अनाथ हो गए मेरे बेटे के आँसुओं की तरह

जिनकी आँखों ने मुझे

भीड़ के पैरों तले

कुचल कर मरते देखा है।‘’

जिन्दा देश को दफन कर देने की कोशिश के भयावह दृश्‍य को श्री सत्‍यार्थी के कवि ने जिस तरह महसूस किया है और फिर उसको प्रस्‍तुत किया है, उस स्थिति में कौन जमीर वाला इंसान होली मनाने की संवेदनहीनता दिखाएगा? किसके साथ होली मनाएगा? भारत और दिल्‍ली के भयानक मंजर को देखते हुए श्री सत्‍यार्थी होली नहीं मनाने का निश्‍चय करते हैं।

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इसके बावजूद श्री सत्‍यार्थी के कवि के आशावादी मन को यह विश्‍वास है कि यह उदास मौसम बदलेगा, क्‍योंकि रात के बाद ही सहर (सुबह) होती है। और फिर हम सबको होली खेलने से कोई नहीं रोक पाएगा-

‘’आसमान में टकटकी लगाकर

देखते रहना मेरे दोस्त

फिर से बादल गरजेंगे

फिर से ठंडी फुहारें बरसेंगी

और फिर इन्द्रधनुष उगेगा

वही सतरंगा इन्द्रधनुष

और मेरा बेटा, तुम्हारी बेटी, हमारे बच्चे

उसके रंगों से होली खेलेंगे।‘’

.

हम देखते हैं कि श्री सत्‍यार्थी अपनी इस खूबसूरत कविता का अन्त महान कवि और दार्शनिक अल्‍लामा इकबाल के अन्दाज में करते हैं कि कुछ तो है कि हस्‍ती मिटती नहीं हमारी। जीवन में जिस तरह ध्‍वंस और निर्माण का सिलसिला बना रहता है, इस कविता में भी उसका कुशल संयोजन श्री सत्‍यार्थी ने किया है। नाटकीयता किसी भी बड़ी रचना की अन्‍यतम विशेषता होती है, जो इस कविता में भी देखने को मिलती है। हम कह सकते हैं कि श्री सत्‍यार्थी ने अपनी इस कविता के जरिए अपने समय का दस्‍तावेज रचा है।

कविता में अनायास एक विलक्षण प्रयोग भी हुआ है। मेरा ख्‍याल है कि यह प्रयोग कविता को परोक्ष रूप से सशक्‍त बनाने का काम करता है–

‘’अनाथ हो गए मेरे बेटे के आँसुओं की तरह।‘’ यह प्रयोग जो एक मेटाफर (रूपक) है, वर्तमान दिल्‍ली की भयावहता को दिखाने का काम कर जाता है।

 कैलाश सत्‍यार्थी की दूसरी कविता है ‘’मरेगा नहीं अभिमन्‍यु इस बार।‘’ प्रकारांतर से इस कविता को हम पहली कविता का ही विस्‍तार कह सकते हैं। कविता का नायक एक अजन्‍मा शिशु है जो माँ के गर्भ से ही बाहर के कोलाहल को सुन रहा है। उसके पिता की उन्‍मादी भीड़ ने हत्‍या कर दी है। उसी उन्‍मादी भीड़ ने उसके पिता की हत्‍या की है, जो भारत के भाईचारे की संस्‍कृति को छिन्‍न-भिन्‍न करने पर तुला हुआ है। जैसा कि अक्‍सर देखने में आता है कि भीड़ का मुकाबला कोई इंसान करना भी चाहे तो वह अपनी चिन्ता करके सायास उसमें नहीं फँसता है और वह भी परोक्ष रूप से उस भीड़ का हिस्‍सा बन जाता है, वह इस कविता में भी देखने में आया है। लेकिन उसका इतना सुन्दर काव्‍यात्‍मक प्रयोग श्री सत्‍यार्थी ने किया है कि पूरा दृश्‍य जीवन्त हो उठा है-

‘’बाहर हर तरफ भीड़ ही भीड़ है

कहाँ दुबक गए हैं इंसान

शायद बचे ही नहीं

इंसानियत मरती है तभी जनमती है भीड़

उसके जिन्दा रहने पर तो समाज बनता है।‘’

.

कहना नहीं होगा कि श्री सत्‍यार्थी के कवि ने वर्तमान सामाजिक हालात पर इन पंक्तियों के जरिए एक बड़ा कटाक्ष किया है। ये पंक्तियाँ उनको तिलमिला देने के लिए काफी हैं, जो दिन-रात अपने को जगतगुरु बताने में मुब्तिला रहते हैं। इन पंक्तियों के माध्‍यम से एक ओर जहाँ वर्तमान भारत की अचूक और सटीक अभिव्‍यक्ति हुई है, वहीं दूसरी ओर उस पर भेदक टिप्‍पणी भी की गयी है। जो इंसान सामाजिक सरोकार से लैस होगा या जिनके पास सामाजिक व्‍यवस्‍था का कटु अध्‍ययन और अनुभव होगा, वही लिख सकता है ‘’इंसानियत मरती है तभी जनमती है भीड़। उसके जिन्दा रहने पर तो समाज बनता है।‘’ हम कह सकते हैं कि श्री सत्‍यार्थी के समाज की यही परिभाषा है।

कविता के नायक में कवि महाभारतकालीन अभिमन्‍यु का अक्‍श देखते हैं। यह अभिमन्‍यु भी माँ के गर्भ में ही मोहब्‍बत, अमन, इंसानियत के उन पाठों को सुन लेता है जो उसके पिता उसकी माँ को सुनाया करते थे-

‘’न जाने कहाँ, कब और किससे सुनी थी

मेरे पिता ने एक कहानी

किसी अभिमन्‍यु की कहानी

जिसे सुनाकर वे मेरी माँ को या शायद मुझे

सुनाते रहते थे और भी ढेरों कहानियाँ

मोहब्‍बत की, अमन की, इंसानियत की

नहीं होती थी उसमें कोई कहानी

मजहब की, अन्धभक्ति की और सियासत की

शायद वे जानते थे कि इन्‍हीं से भीड़ बनती है

या फिर कोई और कहानी जानते ही नहीं थे।‘’

.

कविता में एक चीज जो विशेष रूप से लक्ष्‍य करने वाली है वह है ‘’भीड़’’। भीड़ का बार-बार प्रयोग श्री सत्‍यार्थी करते हैं। वह दिखाते हैं कि भीड़ तभी बनती है जब मजहब, अन्धभक्ति और सियासत उफान पर होती है। श्री सत्‍यार्थी के पास कमजोर, हाशिए के समाज और अल्‍पसंख्‍यकों के मनोविज्ञान का गहरा इल्‍म है और वह यह संदेश देते जान पड़ते हैं कि वे लोग क्‍योंकर मजहब, अन्धभक्ति और सियासत के दलदल में फंसेंगे, जिससे कि उनका हाल और बुरा ही होगा? इसलिए हम देखते हैं कि कवि ने जिन पात्रों को उठाया है वे सिर्फ और सिर्फ मोहब्‍बत, अमन, इंसानियत और भाईचारे का पैगाम देते हैं।

 सत्‍यार्थी समाज की वस्‍तुस्थिति से हमें अवगत कराते चलते हैं। अपने समय के महत्‍वपूर्ण रचनाकार वही कवि या लेखक साबित होते हैं जो सामाजिक, राजनीतिक हलचलों, घटनाओं और गतिविधियों को ईमानदारी एवं पूरी वस्‍तुनिष्‍ठता से अपनी रचनाओं में टांकते चलते हैं। उनकी पक्षधरता और प्रतिबद्धता केवल और केवल समाज में हाशिए पर धकेल दिए गए लोगों के प्रति होती है। विश्‍व साहित्‍य इस बात का गवाह है कि रचनाकार हमेशा प्रतिपक्ष में रहे हैं। रचनाओं में वे अपने विचारों का आरोपन नहीं करते। विचार तो स्‍वयं कथा और दृश्‍य पैदा करते हैं, जिसको रचनाकार को पकड़ना होता है। इस कविता में भी हम देखते हैं कि जो विचार या संदेश प्राप्‍त हो रहे हैं वे उसके पात्रों के जरिए पैदा हो रहे हैं। ऐसा उन्‍हीं रचनाकारों से संभव हो पाता है जिनकी अपने समय पर पैनी निगाह होती है। कोई भी रचनाकार यहीं विशिष्‍ट हो जाता है।

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कविता का समापन बड़े ही दिलचस्‍प अन्दाज में होता है। हम सब इस कथा को जानते हैं कि महाभारतकालीन अभिमन्‍यु का वध सातवें और अन्तिम चक्रव्‍यूह भेदन के दौरान कर दिया जाता है। लेकिन कविता के अभिमन्‍यु को विश्‍वास है कि इस बार भीड़ उसका वध नहीं कर सकेगी और वह मजहब, अन्धभक्ति और सियासत के चक्रव्‍यूह को भेदकर बाहर भी निकलेगा। क्‍योंकि जब वह माँ के गर्भ में था, तब पिता ने उसे हिन्दू या मुसलमान नहीं, सिर्फ और सिर्फ इंसान बनने का पाठ सुनाया था-

‘’मेरी माँ जल्‍दी ही जागेगी

मैं जल्‍दी ही आऊँगा दुनिया में

लेकिन इस बार भीड़ वध नहीं कर सकेगी

अभिमन्‍यु को अकेला घेरकर

चक्रव्‍यूह तोड़ेगा अभिमन्‍यु इस बार

और बाहर भी निकलेगा

क्‍योंकि सबसे अलग थे मेरे पिता

माँ के पेट में उन्‍होंने मुझे

हिन्दू या मुसलमान नहीं

सिर्फ और सिर्फ इंसान बनाया है

मरेगा नहीं अभिमन्‍यु इस बार

अभिमन्‍यु जीतेगा।‘’

.

 कैलाश सत्‍यार्थी की इस कविता का भाष्‍य करते हुए महान शायर और गीतकार साहिर लुधियानवी की वह मशहूर नज्‍म याद आ रही है, जिसमें वह कहते हैं-

‘’तू हिन्दू बनेगा

न मुसलमान बनेगा

इंसान की औलाद है

इंसान बनेगा।‘’

.

हम कह सकते हैं कि उल्‍लेख्‍य कविता का अभिमन्‍यु महाभारतकालीन अभिमन्‍यु का विकास है। आज के अभिमन्‍यु की प्रासंगिकता तभी सिद्ध होगी जब वह सारे चक्रव्‍यूहों को भेदता हुआ दिखे। और श्री सत्‍यार्थी के अभिमन्‍यु में ऐसा करने का विश्‍वास है। श्री सत्‍यार्थी उसको नया अर्थ और सन्दर्भ देते हैं। वह उसकी नई व्‍याख्‍या प्रस्‍तुत करते हैं। इसलिए श्री सत्‍यार्थी का अभिमन्‍यु सर्वथा मौलिक, नया और प्रासंगिक हो उठता है।

निष्‍कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि आलोच्‍य कविताएँ हमारे समय के आख्‍यान हैं। इनमें एक ओर यदि हमारे समय का विद्रूप है, तो वहीं दूसरी ओर उनके समाधान भी हैं। सत्‍यार्थी जी के कवि की यही सकारात्‍मकता है। घने अन्धकार और निराशा में भी उम्‍मीदों और आशा की किरणों को ढूँढ लेना कोई श्री सत्‍यार्थी से सीखे। वे अपने भाषणों में इस बार का जिक्र भी करते रहते हैं कि दुनिया में यदि सौ समस्‍याएँ हैं तो उनके लाख समाधान भी हैं।

सबसे बड़ी बात यहाँ यह नोटिस करने वाली है और जो इन कविताओं का सार भी है, वह यह है कि वर्तमान में पूरी दुनिया में जो जलजला आया हुआ है वह मनुष्‍य द्वारा ही ईजाद की गयी घृणा, नफरत, लूट, झूठ, अहंकार, पाखण्ड, गैर-बराबरी, अनीति और अत्‍याचार का ही परिणाम है। कुछ लोगों ने इस सुन्दर कायनात को बिगाड़ दिया है, प्रकृति उसी का हिसाब करने में लगी हुई है। वह इस कायनात को फिर से स्‍वस्‍थ और सुन्दर बनाना चाहती है। कविता के अभिमन्‍यु के द्वारा।

लेखक हिन्दी के चर्चित युवा कवि-पत्रकार हैं|

सम्पर्क- +919910744984, pkjchaudhary@gmail.com

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सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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