• सबलोग डेस्क

 

 ये रास्ता कहां जाता है?… जी हां, यह सवाल आप से है, आप उन दर्शकों से जो टीवी स्क्रीन पर डिबेट के नाम पर हंगामा करने वाले एंकर्स के बहाने सवालों के खोखले तर्क-कुतर्क ढूंढने में व्यस्त रहते हैं। प्रतिष्ठित टाइम मैगजीन के मैनेजिंग एडिटर रह चुके हेनरी अनतोले ग्रूनवाल्ड ने एक दफे जिक्र किया था ‘पत्रकारिता कभी भी शांत नहीं रह सकता है। यह इसका सबसे महानतम गुण है। इसे अवश्य बोलना चाहिए, तुरंत बोलना चाहिए, आश्चर्य में, जीत में और जब हवा में डर हो तब भी।’

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हांफती भारतीय मीडिया

डॉयचे वेले, सीएनएन, टाइम, बीबीसी, सीबीसी, स्काई न्यूज, अल ज़जीरा समेत कई नामों को आप दुनिया के प्रतिष्ठित समाचार माध्यमों और चैनल्स में गिन सकते हैं। धारदार रिपोर्ट के जरिए ये सरकार से लेकर प्रशासन तक की बखिया उधेड़ने से नहीं चूकते। अब बात भारत की। कितने चैनल्स को आप गंभीरता से लेते हैं? इसका जबाव अगर आप ढूंढ लेंगे तो यकीन मानिए यह सवाल भी हल कर सकेंगे कि यह रास्ता कहां जाता है? जी हां, यही हकीकत है हमारे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की।

वाजपेयी, राणा अयूब के बाद गौरी लंकेश महज़ नाम भर

पुण्य प्रसून वाजपेयी का नाम सुना है आपने। राणा अयूब का नाम जानते हैं आप। इस्लामिस्ट, जिहादी जेन और आईएसआईएस की सेक्स स्लेव तक कहा गया राणा अयूब को। क्योंकि, उन्होंने गुजरात दंगों पर एक किताब लिखी ‘गुजरात फाइल्स- एनाटॉमी ऑफ़ ए कवर अप’ के नाम से। किताब के बाद राणा अयूब को धमकी देने का सिलसिला शुरू हो गया। गौरी लंकेश को आप जरूर जानते होंगे। यह महज़ नाम भर नहीं है, यह वह रास्ता है जहां आपको कोई मंजिल नहीं मिलेगी।

अब बात पुण्य प्रसून वाजपेयी की, एक शानदार एंकर, हाजिर जवाब मिजाज़ का शख्स, कईयों के प्रेरणास्रोत तो कईयों के दिल में उनके लिए कुछ और ना जाने क्या-क्या। पुण्य प्रसून वाजपेयी के बहाने आपको वर्तमान मीडिया की वो तल्ख हकीकत देखने को मिलेगी, जिसके सहारे आप सड़ते जा रहे लोकतंत्र के चौथे खंभे को कभी भी दरकता और गिरता हुआ देख सकेंगे। एक बड़े चैनल से विदाई हो गई पुण्य प्रसून वाजपेयी की। देश हतप्रभ रहा। कहा गया सरकार का विरोध भारी पड़ गया। लेकिन, वो अड़े  हैं, लड़ रहे हैं और लौटेंगे। उन्हें लौटना होगा उस मंज़िल का पता बताने के लिए जिसका सवाल वो अक्सर पूछा करते थे, ये रास्ता कहां जाता है?

जनाब, मामला ‘कैचिंग द आईबॉल’ का है…

खैर, तय घंटों से भी ज्यादा न्यूज रूम में बिताने वाले पत्रकारों को पता है कि आखिर कौन सी न्यूज चलेगी और कौन नहीं। मामला कैचिंग द आईबॉल का है। लेकिन, क्या पत्रकारों का जीवन इतना तिरस्कृत हो चुका है कि उनको किसी का एजेंट बताकर गरिया दिया जाए। नहीं, एक पत्रकार इसलिए दोषी नहीं है कि वो न्यूज करता है। दरअसल, वो पत्रकार अब एम्प्लाई हो चुका है। जहां चैनल्स को टीआरपी की दौड़ में बनाए रखने के लिए वो सब करना पड़ता है जो शायद एथिक्स के विपरीत है।

इन आंकड़ों से आपकी आंखे खुल जाएगी…

  • साल 2014 से अभी तक करीब 11 पत्रकारों की हत्या की गई। पिछले बीस सालों में हत्या का आंकड़ा 47 है। यह जानकारी कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट की साइट पर मिल जाएगी।
  • कई पत्रकारों ने माना है कि सरकार के खिलाफ लिखने पर उन्हें धमकियां दी गई। इंडिपिडेंट मीडिया के लिए भी खतरा बढ़ता जा रहा है।
  • कुछ सालों में कई संपादकों ने नौकरी छोड़ दी। क्योंकि, उन्होंने सरकारों के खिलाफ स्टोरी की और उसे बेहतर कवरेज प्रदान किया।
  • वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम की मानें तो 2018 में भारत पत्रकारिता की दुनिया में 138वें पायदान पर है। युद्धग्रस्त अफगानिस्तान भी हमसे बेहतर स्थिति में है।
  • भारत दुनिया में 13वें स्थान पर है, जहां पत्रकारों की हत्या के आरोपियों को सजा दी जाती है।

पत्रकार कभी आसमान से नहीं टपकता…

अब सोचिए इस हालात में, सुविधाओं के अभाव में, कम सैलरी के बावजूद अगर कोई पत्रकार हकीकत को बयां कर रहा है तो उसका क्या कसूर है? आखिर यह स्थिति क्यों आई कि कभी पत्रकारिता को लोकतंत्र की खूबसूरती की संज्ञा देने वाला समाज उसे कठघरे में खड़ा करता है। योग्य संपादकों के होते हुए कोई राजनीतिक पार्टी हेडलाइंस तय करने में कैसे सफल हो रही? जबाव आपको ढूंढना होगा, क्योंकि पत्रकार आसमान से नहीं टपकता, वो हमारे बीच का ही शख्स होता है।

(यह लेखक के अपने विचार हैं।)

अभिषेक मिश्रा
(लेखक टीवी पत्रकार हैं)
9334444050
9939044050
mishraabhishek504@gmail.com

 

 

कमेंट बॉक्स में इस लेख पर आप राय अवश्य दें। आप हमारे महत्वपूर्ण पाठक हैं। आप की राय हमारे लिए मायने रखती है। आप शेयर करेंगे तो हमें अच्छा लगेगा।

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी

5 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments


sablog.in



डोनेट करें

जब समाज चौतरफा संकट से घिरा है, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, मीडिया चैनलों की या तो बोलती बन्द है या वे सत्ता के स्वर से अपना सुर मिला रहे हैं। केन्द्रीय परिदृश्य से जनपक्षीय और ईमानदार पत्रकारिता लगभग अनुपस्थित है; ऐसे समय में ‘सबलोग’ देश के जागरूक पाठकों के लिए वैचारिक और बौद्धिक विकल्प के तौर पर मौजूद है।
sablog.in



विज्ञापन

sablog.in