सामयिक

झरे पात, बहे बयार फागुनी

 

लोक जीवन में हास्य और व्यंग्य की सृष्टि का एक बड़ा आधार आपसी नोकझोंक और हाजिर जवाबी रही है। इसमें से ज्यादातर वाचिक परंपरा या बोलचाल में व्यक्त हुआ है और इसलिए लिखित प्रमाण कम ही मिलते हैं। लोक-जीवन में तमाशेबाज़ी, बातपोशी, रसकथाओं, गालीबाजों, भांड़ों और बहुरुपियों ने हास्य-व्यंग्य वृत्तांत वर्णित किए हैं। विवाह और होली पर्व पर हमारा विनोदी स्वभाव उभर आता है। मृच्छकटिक नाटक के रचयिता राजा शूद्रक हैं। वह ब्राह्मणों की खास पहचान यज्ञोपवीत की उपयोगिता के बारे में ऐसा व्यंग्य करते हैं जिसे सुन कर हंसी आती है। वह कहता है कि यज्ञोपवीत कसम खाने के काम आता है। अगर चोरी करना हो तो उसके सहारे दीवार लांघी जा सकती है। व्यंग्य को भले ही लेटिन के ‘सेटुरा’ से व्युत्पन्न बताया गया हो, किंतु भारत के प्राचीन साहित्य में व्यंग्य की बूझ रही है।

ऋग्वेद में मंत्रवाची मुनियों को टर्राने वाले मेढकों की उपमा दी गई है। भविष्येतर पुराण तथा भर्तृहरिशतकत्रयं में खट्टी-मीठी गालियों के माध्यम से हमें हास्य-व्यंग्य प्रसंग उत्पन्न किए हैं–‘गालिदानं हास्यं ललनानर्तनं स्फुटम्’, ‘ददतु ददतु गालीर्गालिगन्तो भवन्तो’। वाल्मीकि रामायण में मंथरी की षड्यंत्र बुद्धि की कायल होकर, कैकेयी उसकी अप्रस्तुत प्रशंसा करती है, ‘‘तेरे कूबड़ पर उत्तम चंदन का लेप लगाकर उसे छिपा दूँगी, तब तू मेरे द्वारा प्रदत्त, सुंदर वस्त्र धारण कर देवांगना की भाँति विचरण करना।’’ रामचरितमान में भी ‘तौ कौतुकिय आलस नाहीं’ (कौतुक प्रसंग) तथा राम कलेवा में हास्य-व्यंग्य वार्ताएँ हैं। संस्कृत कवियों- कालिदास, शूद्रक, भवभूति ने विदूषक के ज़रिए व्यंग्य-विनोद का कुशल संयोजन किया है, ‘‘दामाद दसवाँ ग्रह है, जो सदा वक्र व क्रूर रहता है। जो सदा पूजा जाता है और सदा कन्या राशि पर स्थित है।’’

नागार्जुन ने ‘बलचनमा’, ‘रतिनाथ की चाची’, ‘बाबा बटेसरनाथ’, ‘नयी पौध्, ‘जमनिया का बाबा’, ‘दुखमोचन’ आदि उपन्यासों में पात्रों के जरिए ही आम जनजीवन की समस्याओं को उठाया है। जमींदारों के अत्याचार और शोषण से लेकर दहेज की समस्या, अनमेल विवाह, ढोंग-पाखण्ड, बेतुके रीति-रिवाज आदि ज्वलंत प्रश्नों को यहाँ उठाया गया है। भारतीय समाज अनेकानेक जातियो और वर्गों में विभक्त होने के कारण जातिगत और वर्गगत विषमताओं का हमारे समाज में अम्बार-सा लगा हुआ है। नागार्जुन जाति की उच्चता और विचारों की निम्नता पर ‘रतिनाथ की चाची’ उपन्यास में बुध्ना चमार की पत्नी के माध्यम से प्रहार करते हैं।।।‘एक बात कहती हूँ, माफ करना, बड़ी जातिवालों की तुम्हारी यह बिरादरी बड़ी मलिच्छ, बड़ी निठुर होती है, मलिकाइन। हमारी भी बहू-बेटियाँ राँड़ हो जाती हैं, पर हमारी बिरादरी में किसी के पेट से आठ-आठ, नौ-नौ महीने का बच्चा निकाल कर जंगल में फेंक आने का रिवाज नहीं है। ओह कैसा कलेजा है तुम लोगों का ! मइया री मइया।

बचपन में अपने गाँव में मैने कुछ यूं देखा : दशहरे के कुछ दिन पहले की बात है, आठ दस साल की उम्र वाले चार छ्ह लड़के घर के सामने गीत गाते हुए आए।‘ टेसू अटर करें, टेसु बटर करें, टेसु लेई के टरैं।’ मेरे लिए यह कौतूहल पूर्ण था। छोटी अईया ने कहा ‘टेसू आए हैं’ । मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था कि लड़के और टेसू, आखिर टेसू क्या चीज़ है ? छोटी अईया ने इतनी देर में कहीं से दो पैसे ढूँढ निकाले। पैसे और अनाज का कटोरा ले कर वे दरवाज़े की ओर चलीं, मैं भी पीछे पीछे गया। वहाँ देखता क्या हूँ कि उन लड़कों में से एक ने दोनों हाथों में बिजूका जैसा कुछ पकड़ रखा है। वह लकड़ी का बना हुआ था। उस के सिर पर पगड़ी रखी हुई थी, जो शायद मिट्टी पका कर बनाई गई थी।

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सबसे आश्चर्यजनक बात थी कि उस के पैर सीधे लम्बवत न हो कर एक दूसरे को काटते हुए दिख रहे थे, अंग्रेज़ी के एक्स अक्षर की तरह। टेसू का यह राज़ मेरी समझ में कभी नही आया। फिर तो टेसू दशहरे के एक दिन पहले तक रोज़ ही आते रहे। ‘ टेसू अटर करें, टेसु बटर करें’ गा कर अनाज ले जाते रहे। उधर टेसू जिस दिन से आना शुरू हुए, उसी दिन या उस के एकाध दिन बाद कुछ लड़कियाँ भी गाती हुई आईं। क्या गा रही थीं, याद नहीं पड़ता पर उन के पास खूबसूरत सी कंदीलनुमा मटकी थी, जो पकी हुई मिट्टी की बनी थी और बहुत बड़ी भी नहीं थी। उस में चारों तरफ गोल और लम्बे कटे हुए छेद थे, जिन में से प्रकाश बाहर आ रहा था। उस के अंदर दीपक रखा था। यह ‘झाँझी’ थी। उन्हें भी अनाज दे कर विदा किया गया। दशहरे के एक दिन पहले तक यह क्रम चलता रहा।दशहरे के दिन घर में तलवार और दूसरे लोहे के औज़ारों की पूजा हुई तो वहीं हुकुम सिंह दाऊ के घर के सामने टेसू और झाँझी का विवाह सम्पन्न हुआ। विवाह स्थल गोबर से लीपा गया, आटे से चौक पूरा था। चारों और आदमी औरतों की भीड़ थी। बीच मे बच्चे थे। लड़के टेसू लिए थे, लड़कियाँ झाँझी। कोई पंडित भी था। टेसू और झाँझी की भाँवरें पड़नी शुरू हुईं तो औरतों ने मंगल गान गाने शुरू किए, आदमी मज़े से हँस रहे थे। विवाह संपन्न हुआ तो पंडित जी ने सब के हाथों में लाल पीले धागे बाँधे, बतासे बाँटे गए। कुछ ही देर बाद लोग बाग दूल्हा दुल्हन को ले कर पोखर की ओर चल पड़े। टेसू और झाँझी विवाह के तुरंत बाद पोखर के हवाले कर दिए गए। सब लोग हँसते बोलते अपने घर लौट आए। (पाँव जमीन पर)।

 गुण और दोष का मिश्रण ही मनुष्य की खास पहचान है। हम आनंद की अनुभूति के लिये पैदा हुये हैं। रोने-धोने, बिसूरने और निषेधात्मक भयादोहन करने वाली चिंताओं में बैचेन रह कर जिंदगी गुजारना हमारे जीवन का मकसद कतई नहीं है। समाज में विषमताएं हैं, गरीबी है, आर्थिक द्वंद हैं, दुरूह समस्याएं हैं इसके बावजूद हर हाल मे हंसते रहना और चुनौतियों का डट कर मुकबला करना हमारी संस्कृति का मूल संदेश है। इसलिये हम आये दिन त्यौहार मनाते हैं और सारे गमों को भुलाकर आनंद की नदी में डुबकी लगाते हैं। हम बूढ़े नहीं होते। हमारा शरीर बूढ़ा होता है। बुढ़ापे में भी फागुन आता है तो होली के हुड़दंग में जवान महिलाओं को बुढ़ऊ बाबा से देवर का रिश्ता जोड़ने में कोई हिचक नहीं होती। वे मगन हो कर गाने लगती हैं -फागुन में बाबा देवर लागे।

लोक जीवन का हास्य बोध हमारे आधुनिक जीवन में कभी-कभार अचानक प्रकट होकर हमें चौंका देता है, जैसा कि पीपली लाइव जैसी एक फिल्म ने कुछ समय पहले किया था। हास्य और विनोद के क्षण वैसे तो हम सभी के जीवन में आते हैं और काफी आते हैं, लेकिन बहुत कम स्थान और अवसर हैं जहां उन्हें सर्वसुलभ और सुरक्षित रखा जा सके। संसद की कार्यवाही विधिवत दर्ज होती है, इसलिए इसके सदनों में मनोविनोद के किस्से आम तौर पर हमारी स्मृति में रहते हैं। यही वजह है कि अक्साई चिन की सुरक्षा पर चल रही बहस में जब देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने थोड़ा गुस्से से कहा था कि वहां एक तिनका तक नहीं उगता, तब एक वरिष्ठ विरोधी सांसद की वह हाजिर जवाबी हमें आज भी गुदगुदा देती है जिसमें अपने गंजे सिर को आगे करते हुए उन्होंने मासूमियत से कहा था कि प्रधानमंत्री जी, उगता तो मेरे सिर पर भी कुछ नहीं है लेकिन क्या इसीलिए मैं इसे दुश्मन के हवाले कर दूं!

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हिन्दी और उर्दू साहित्य के विकास के साथ ही हास्य व्यंग्य विधा परवान चढ़ने लगी। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और अकबर इलाहाबादी जैसे कवियों ने इसे कलेवर दिया। बाबू बालमुकुंद गुप्त अपने अन्योक्तिपूर्ण व्यंग्य लेखन के लिये व्यंग्य साहित्य में एक नया मानक बनाने मे सफल हुये। उर्दू शायरों ने तो ब्रिटिश शासनकाल में अंग्रेजियत पर ऐसे तीखे प्रहार किये कि अंग्रेज उसे समझ भी नहीं पाते थे और हिन्दुस्तानी उसका जायका लेते थे। जनाब अकबर इलाहाबादी ब्रिटिश अदालत में मुंसिफ थे लेकिन वे अपने व्यंग के तीरों से ऐसा गहरा घाव करते थे कि पढ़नेवाला एक बार उसे पढ़कर हजारों बार उस पर सोचने को मजबूर हो जाता था। लार्ड मैकाले की शिक्षा पध्दति का पोस्टमार्टम जिस बेबाकी से अकबर साहब ने किया उसकी गहराई तक आज के व्यंगकार सोच भी नहीं सकते हैं – तोप खिसकी प्रोफेसर पहुंचे। बसूला हटा तो रंदा है। प्लासी की लड़ाई में सिराजुद्दौला को शिकस्त देकर, तमाम देसी रियासतों को जंग में मात देकर अंग्रेजों ने तोप पीछे हटा ली और अंग्रेजी पढ़ाने वाले प्रोफेसरों को आगे कर दिया। तोप के बसूले ने समाज को छील दिया और प्रोफेसर के रंदे ने उसे अंग्रेजों के मनमाफिक कर दिया। तोप और प्रोफसर का यह तालमेल ब्रिटिश शिक्षापध्दति पर बेजोड़ और बेरहम हमला है।

हमारे शहरों में आए दिन होने वाले कवि सम्मेलनों के मंच एक और ऐसा स्थान हैं जहां कविताओं के अलावा कवियों की नोकझोंक और हाजिर जवाबी के दिलचस्प प्रसंगों के जरिये हास्य की अनवरत गंगा बहती है। ऐसे प्रसंग भी या तो खुद कवियों की स्मृति में जिंदा है या श्रोताओं की स्मृति में। उनमें से कई उन कवियों और श्रोताओं के साथ दुयरेग से विलुह्रश्वत भी हो चुके होंगे। चिक परंपरा की जिस कविता धारा में स्नान करने हजारों-लाखों लोग रात-रात भर बैठे रहते हैं, वही महफि़ल कविता के अधिक घनत्व के कारण या आनंद की खुमारी में कई बार बोझिल हो जाती है। तभी कवि सम्मेलनों में कवियों और संचालक के बीच होने वाली सहज बातचीत उसे इतनी रोचक, तात्कालिक और आनंददायिनी बना देती है कि सारा वातावरण फिर उत्फुल्ल हो उठता है। एक बार चेतना सारे परिवेश में न केवल उमगने लगती है, बल्कि और उत्सुक होकर बोलती-बतियाती महसूस होती है। जनकवि नाथूराम शर्मा शंकर की दावेदारी के बाद भी जब एक बड़ा पुरस्कार थोड़े कम ज्ञात और कम मान्य कवि त्रिशूल जी ले गए, तो उस पर तत्काल की गई नाथूराम शर्मा शंकर (अब स्वर्गीय) की टिह्रश्वपणी – ‘पुरस्कार तो ले गया शंकर का हथियार’- अपने समय में काफी चर्चित रही थी। इसी प्रकार प्रसिद्ध हिन्दी ग़ज़लगो स्वर्गीय बलबीर सिंह रंग एक बार अनेक कवियों के साथ उत्तर प्रदेश में इटावा से एटा जा रहे थे। रास्ते में किसी कवि ने सड़क किनारे मिले मित्र को सूचनात्मक लहजे में बताया कि ‘इटावा से एटे चले जा रहे हैं’। इस पर रंग जी ने शेर ही कह डाला – ‘इटावा से एटे चले जा रहे हैं, किसी लक्ष्मीपति के बुलावे पे देखो, सरस्वती के बेटे चले जा रहे हैं’।

कोई भी समाज सिर्फ आधुनिकताबोध के साथ नहीं जीता, उसकी सांसें तो ‘लोक’ में ही होती हैं। भारतीय जीवन की मूल चेतना तो लोकचेतना ही है। नागर जीवन के समानांतर लोक जीवन का भी विपुल विस्तार है। खासकर हिन्दी का मन तो लोकविहीन हो ही नहीं सकता। हिन्दी के सारे बड़े कवि तुलसीदास, कबीर, रसखान, मीराबाई, सूरदास लोक से ही आते हैं। नागरबोध आज भी हिन्दी जगत की उस तरह से पहचान नहीं बन सका है। भारत गांवों में बसने वाला देश होने के साथ-साथ एक प्रखर लोकचेतना का वाहक देश भी है। आप देखें तो फिल्मों से लेकर विज्ञापनों तक में लोक की छवि सफलता की गारंटी बन रही है। बालिका वधू जैसे टीवी धारावाहिक हों या विगत वर्षों में लोकप्रिय हुए फिल्मी गीत सास गारी देवे (दिल्ली-6) या दबंग फिल्म का मैं झंडू बाम हुयी डार्लिंग तेरे लिए इसका प्रमाण हैं। ऐसे तमाम उदाहरण हमारे सामने हैं। किंतु लोकजीवन के तमाम किस्से, गीत-संगीत और प्रदर्शन कलाएं, शिल्प एक नई पैकेजिंग में सामने आ रहे हैं। इनमें बाजार की ताकतों ने घालमेल कर इनका मार्केट बनाना प्रारंभ किया है। इससे इनकी जीवंतता और मौलिकता को भी खतरा उत्पन्न हो रहा है। 

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शैलेन्द्र चौहान

लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं। सम्पर्क +917838897877, shailendrachauhan@hotmail.com
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