हाशिए पर भारत के समुद्री मछुवारे
भारत में मुख्यधारा के विमर्श के बाहर एक ऐसा समुदाय है जिनके बारे में चर्चाएँ बेहद कम होती हैं। ये समुदाय समुद्री मछुवारों का है जो लगभग 8000 से भी ज्यादा लम्बे भारतीय समुद्र तट पर बसे हैं। यह समुदाय विभिन्न जातियों तथा सम्प्रदायों में बँटा हुआ है जिनका मुख्य पेशा विशाल एवं गहरे समुद्र में विभिन्न पद्दतियों द्वारा मछली पकड़ना तथा पालन करना है। विभिन्न सरकारी आँकड़ों के मुताबिक भारत के नौ राज्यों तथा दो केन्द्रशासित प्रदेशों के 3288 मछुवा बस्तियों में इनकी आबादी 40 लाख से ऊपर है। इतना ही नहीं, भारत की अर्थव्यवस्था में समुद्र मात्स्यिकी का बड़ा योगदान है तथा यह सबसे ज्यादा विपणन होने वाला खाद्य पदार्थ है।
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अगर सम्पूर्ण मात्स्यिकी की बातकरें (जिसमें समुद्र तथा अन्तःस्थलीय मात्स्यिकीआती है)तो इसकी वृद्धि दर कृषि क्षेत्र से अधिक है। बहरहाल, समूची दुनिया को स्वादिष्ट सी-फूड्स उपलब्ध कराने वालायह समुदाय आज हाशिए पर है।भारत में इनकी 60 प्रतिशत से अधिक आबादी गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रही है तथा साक्षरता का प्रतिशत भी लगभग इतना ही है। ऊपर से पूँजीवादी व औद्योगिक मात्स्यिकी तथा विकास के नाम पर समुद्र तटों पर बढ़ते औद्योगीकरण तथा शहरीकरण इनके अस्तित्व पर लगातार प्रहार कर रहे हैं।
भारत तथा सम्पूर्ण विश्व के समुद्री मछुवारों को मुख्यतः दो वर्गों में बाँटा जा सकता है- पहला, छोटे पैमाने के पारम्परिक मछुवारे जो छोटी नौकाओं तथा अन्य यांत्रिक-तकनीक रहित पद्दति से बेहद ही कम मात्रा में संग्रहण कर रहे हैं। इनकी कार्यावधि कुछ घंटों की होती है, जैसे कि, मछुवारे सूर्योदय से पूर्व ही नौका लेकर निकल पड़ते हैं तथा नौ बजते-बजते कुछ किलो (10-12 किलो) मछलियाँ, झींगे, केकड़े आदि पकड़ कर ले आते हैं। इनका मत्स्यन क्षेत्र काफी छोटा तथा कम गहराई वाला होता है तथा उपकरण के नाम पर इनके पास छोटे जाल ही होते हैं।
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इनकी नौकाएँ अधिकतर मानव शक्ति द्वारा संचालित होती थी परन्तु आजकल यन्त्र-चालित नौकाओं का चलन बढ़ चुका है। आज बहुत सारी छोटी नौकाओं में ईंधन द्वारा संचालित मोटर लगे होते हैं। इन छोटे मछुवारों के द्वारा संग्रहित उत्पाद घरेलू उपभोग के साथ-साथ स्थानीय स्तर पर उपभोग कर लिया जाता हैं। समुदाय की महिलाएँ टोकरियों में भर कर आस-पास के गाँवों में भ्रमण कर बेच आतीं हैं। बचे हुए उत्पाद सुखाकर रख लिए जाते हैं तथा बेचे भी जाते हैं। सूखे उत्पादों का अपना एक विस्तृत बाज़ार है।
दूसरा महत्त्वपूर्ण वर्ग बड़े मछुवारों का है जिनके पास अपेक्षाकृत ज्यादा संसाधन होते हैं जिसके फलस्वरूप भारी मात्रा में संग्रहण करते हैं। यह व्यापारिक तथा पूँजीवादी मछुवारों का वर्ग हैं जिनकी कमाई छोटे मछुवारों से कई गुना ज्यादा होती है तथा इनके उत्पाद निर्यात आधारित होते हैं। इनका व्यापार देश के बड़े-बड़े मत्स्यन बन्दरगाहों जैसे वेरावल, पोरबन्दर, मंगलौर,कोच्चि, चेन्नई, रायचक, विशाखापत्तनम आदि जगहों से कार्यान्वित होता है।
परम्परागत रोजगार पर संकट
यूँ तो इनकी संख्या छोटे मछुवारों की तुलना में काफी कम है तथा समग्र रूप से छोटे पैमाने की मात्स्यिकी ही सबसे ज्यादा संग्रहण करती है फिर भी भारतीय मात्स्यिकीमें इनका ही वर्चस्व है। इसका मुख्य कारण इस वर्ग का संगठित होना है। राजनीति तथा नीति-निर्धारण में भी इस वर्ग का वर्चस्व है अतः ये दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहे हैं।
आज भारत के समुद्री मछुवारे जिनमें से अधिकतर छोटे पैमाने के हैं तथा मछली पकड़ने के अपने पारम्परिक व्यवसाय को सदियों से करते आ रहे है, अनेक समस्याओं से जूझ रहे हैं तथा उनके अस्तित्व पर अब खतरा मँडराने लगा है। ये खतरे बड़े पैमाने कीमात्स्यिकीद्वारा पैदा किये गये रोजी-रोजगार के प्रश्न के साथ-साथ तटीय क्षेत्रों में कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे विकास योजनाओं द्वारा प्रायोजित हैं। जहाँ बड़े मछुवारे भारी तकनीक से सामुद्रिक-मात्स्यिक संसाधनों का अनवरत दोहन कर रहे हैं वहीं तटों पर आधारित औद्योगीकरण, शहरीकरण, विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज), तटीय राजमार्ग, पोत परिवहन, तथा तटीय पर्यटन मछुवारों की बस्तियों तथा जीवन-यापन के लिए लिए खतरा बन गये हैं।
समय का ये पल थम सा गया
इनका कार्यक्षेत्र संकुचित होता जा रहा है। प्राकृतिक आपदाओं से तो पहले से मछुवारा समुदाय त्रस्त रहा ही है, अब मानव रचित आपदाओं का सामना करना इनके लिए बड़ी चुनौती बन गयी है। तटीय शहरों तथा फैक्ट्रियों द्वारा भारी मात्रा में अपशिष्टों का प्रवाह तटीय पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी तन्त्र को नष्ट कर रहा है जिसका तत्काल तथा सीधा प्रभाव इन छोटे स्तर के मछुवारों पर पड़ रहा है जो तट के समीप ही मछलियाँ पकड़ते हैं। आज आप देश के किसी भी समुद्री मछुवा बस्तियों में जाएँगे तो यह सुनने को अवश्य मिलेगा कि ‘तट के आस-पास अब मछलियाँ मिलना कम हो गयी हैं’, जिसका मुख्य कारण प्रदूषण तथा अतिविदोहन (ओवर- एक्सपलॉयटेशन) है। इन छोटे मछुवारों के विकल्प दिन प्रतिदिन सीमित होते जा रहे हैं।
पिछले कई दशकों से, या यों कहें कि आज़ादी के बाद से ही (जब सरकारों का ध्यान अधिक दोहन के लिए नौकाओं के मशीनीकरण की तरफ गया तब से ही) छोटे मछुवारों ने संगठित हो कर तत्काल तथा भविष्य में इनके होने वाले दुष्प्रभावों के ख़िलाफ़ आवाज उठाना शुरू कर दिया था। उन्हें आभास था कि भविष्य में तकनीकों तथा मशीनों से जो समाज के गिने-चुने समृद्ध मछुवारों के लिए ही सुलभ है, सामुद्रिक सम्पदाओं का अतिविदोहन होना ही है। आज इसका परिणाम हमारे सामने है जहाँ समुद्र से मात्स्यिकीसंग्रहण स्थिर होता जा रहा है। छोटे मछुवारों के पास रोजी रोजगार का दूसरा कोई विकल्प नहीं है क्योंकि यह एक पारम्परिक समुदाय है।
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आज पूरे भारत के समुद्री मछुवारे अनेक संगठनों के माध्यम से अतिविदोहन, प्रदूषण तथा तटों का उद्योगों द्वारा हथियाने के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रहे हैं। इनके राष्ट्रव्यापी संगठन नेशनल फ़िशवर्कर्स फोरम लगातार मछुवारों के हितों, रोजी-रोजगार, समुद्री प्रदूषण के ख़िलाफ़, तथा टिकाऊ मत्स्यन की वकालत कर रहा है।
इन संगठनों तथा हितैषियों को समाज का एक वर्ग विकास विरोधी की संज्ञा देता है लेकिन विकास के इस दौड़ में यह देखना महत्त्वपूर्ण है कि एक बड़ी आबादी का अस्तित्व खतरे में है। साउथ इंडियन फेडरेशन ऑफ़ फिशरमैन सोसाइटीज से सम्बन्धित सामाजिक कार्यकर्ता वी. विवेकानन्दन कहते हैं कि- “तटीय क्षेत्रों में उभरते विभिन्न खतरे सिर्फ मछुवारा समुदाय के लिए ही नहीं है। यह आन्तरिक भूभागों में रह रहे बड़ी आबादी के लिए भी एक खतरा है। इसे एक राष्ट्रीय चुनौती के रूप में स्वीकार करना चाहिए साथ ही इस ग़लतफ़हमी में भी नहीं रहना चाहिए कियह मछुवारों की ही समस्या है। वे सिर्फ पहले लोग होंगे जो इस समस्याओं का सामना करेंगे, बाकी इसके चपेट में एक दिन सबों को आना होगा।”
अतः यह समझना होगा कि यह विकास का विरोध नहीं बल्कि सतत् विकास की वकालत है।
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