मुद्दा

सत्ता की पक्षधरता और साहित्यकारों के लेखन पर अविश्वास का संकट

 

यह कथन आमतौर पर प्रचलित है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है और वह हर काल में राजनीति को दिशा प्रदान करता है| राजनीति को दिशा प्रदान करने का आशय ही यही है कि जहाँ भी राजनीति लोकहित के मार्ग से विचलित होती है, साहित्य तत्काल उसे आइना दिखाने का काम करता है| इस आइना दिखाने में तमाम तरह के सवालात होते हैं जो लोक के हित में खड़े होते हैं ताकि अपनी पटरी से उतरी हुई राजनीति इन सवालातों से जूझते हुए अपनी पटरी पर पुनः लौट आए| साहित्य के इस मूल कर्म में राजनीति का एक प्रतिपक्ष अपने आप खड़ा हो जाता है| जो काम विपक्ष  का सत्ता पक्ष से सवाल खड़ा करने का है वही काम साहित्य का भी है|

इस अर्थ में देखें तो साहित्य और सत्ता पक्ष के विपक्ष की राजनीति, सत्ता पक्ष के राजनेताओं को सतही तौर पर एक साथ खड़े नजर आते हैं| यह नजरिया आज के समय में कहीं अधिक सघन हुआ है| साहित्य के प्रतिपक्षी कर्म के कारण साहित्यकारों को वामी, कांग्रेसी जैसे विशेषणों से जोड़ देने का चलन सोशल मीडिया पर आम है जो कि बहुत सतही और दोषपूर्ण चलन है| यह नजरिया इतना अधिक सघन हुआ है कि सत्ता पक्ष के राजनेताओं और कार्यकर्ताओं को साहित्यकार अपने दुश्मन तक नजर आने लगे हैं| सत्ता पक्ष का यह नजरिया  आज अत्यन्त चिन्ता का विषय है| जो सत्य है, जो आमजन के हित में है, कुछ इन्हीं विषयों को लेकर प्रेमचंद और उनके समकालीन लेखकों ने सामन्ती प्रवृत्तियों के प्रतिपक्ष का साहित्य अपने समय में रचा और उससे बहुत हद तक सामाजिक बदलाव भी हुए|

प्रेमचंद की ठीक बाद की पीढ़ियों ने भी बहुत हद तक सत्ता की सामन्ती प्रवृत्तियों के प्रतिपक्ष का साहित्य रचकर अपनी भूमिका को बखूबी अंजाम दिया| ये अलग विषय है कि समय के साथ राजनीति के हित-अहित सम्बन्धी दृष्टि के चलते इन लेखकों को भी विभिन्न प्रकार की विचारधाराओं से जोड़ कर देखे जाने की एक संकीर्ण परम्परा विकसित हुई| जबकि यह कहा जा सकता है कि प्रेमचंद और उनकी बाद की पीढ़ी के लेखकों, जिनमें भीष्म साहनी, अमरकांत, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश इत्यादि शामिल हैं, का नजरिया पूरी तरह नैसर्गिक है, उसे वाम या दक्षिण जैसी अनेकानेक विचारधाराओं से जोडकर देखा जाना न्यायोचित नहीं है| उनका लेखन भले ही जिस किसी विचारधारा के सांचे में फिट होता हो, उन्हें जो सच और लोकहितकारी लगा वैसा ही उन्होंने रचा जो हमेशा सामन्ती शक्तियों के प्रतिपक्ष में ही खड़ा नजर आया|

आज हम देख रहे हैं कि सत्ता के पक्ष में लेखकों का समूह आ खड़ा हुआ है और जनहितैषी प्रतिपक्षी साहित्य-रचना के अपने मूल कर्म को दरकिनार कर वह सत्ता के  अंध समर्थन की खुले आम अपील  भी कर रहा है| चिन्ता का विषय यह है कि इस समूह में हम सब की आदरणीय, नाला-सोपारा जैसी उपन्यास की मशहूर लेखिका चित्रा मुद्गल जी भी हैं जिन्हें हाल ही में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है| उनका यह निर्णय भले ही उनका निजी विषय  है पर उनसे समाज और आम पाठकों की अपेक्षाएँ भी जुड़ी हैं| नोटबंदी जैसे अलोकप्रिय सरकारी निर्णय के समर्थन से भी आम लोगों को उनसे निराशा ही हुई है| जो सत्य है, जो जनहितकारी है, जो सामाजिक सद्भाव और प्रेम को प्रश्रय देने वाला कर्म है, वैसा कर्म लेखक करे तो उसके लेखन की विश्वसनीयता हर काल में बनी रहती है| यह कर्म अक्सर लेखक को सत्ता के प्रतिरोध में ही ले जाता है और शायद यही लेखक का असल दायित्व भी है|

इस कर्म से विचलन की नयी राह जिस तरह सत्ता पक्ष दिखा रहा है, और उस राह पर चल पड़ने की जल्दी जिस तरह लेखक-लेखिकाओं के मन में आज घर करने लगी है, वह अत्यन्त चिन्ताजनक है| कथनी और करनी के अंतर से साहित्य लेखन की विश्वसनीयता पर भी संकट के बादल मंडराने लगे हैं| आज जरूरत है कि निष्पक्ष रूप में किसी विचारधारा से मुक्त होकर लेखक-लेखिकाओं को इस विषय पर मंथन करना चाहिए और वही मार्ग अपनाना चाहिए जो सत्ता से सवाल करे और उसे सही दिशा दिखाकर जन हितैषी बनाए।

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रमेश शर्मा

लेखक व्याख्याता और साहित्यकार हैं। सम्पर्क +917722975017, rameshbaba.2010@gmail.com
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