राहुल गाँधी, जाति और सामाजिक न्याय
“राहुल गाँधी के दादा जी पारसी थे, फिरोज गाँधी। दादी कश्मीरी मूल की ब्राह्मण। इंदिरा नेहरू। राहुल गाँधी की मां क्रिश्चन इटालियन हैं। पिता पारसी दादा और ब्राह्मण मां के बड़े पुत्र। अब उनकी मां भारतीय नागरिक हो गयी हैं, उनका धार्मिक विश्वास अभी क्या है, पता नहीं।
भारत में पारंपरिक तौर पर और कानूनन भी जाति पिता से बेटे या बेटी को जाती है। कानूनन मां से तब बेटे को जाएगी जब मां ने ही उसे पाला है। रोहित वेमुला प्रसंग में इसपर काफी चर्चा हुई है।
जाति का पिता या दादा से निर्धारण पितृसत्ता का सबसे सटीक उदाहरण है। वरना तो इसी भारतीय संसद में कभी समाजवादी राजनारायण ने अपनी जाति (उनकी भूमिहार थी) पूछे जाने पर कहा था कि ‘जाति तो मां से पूछ कर बताऊंगा।’ क्योंकि वही जानती है कि पिता कौन है? (प्रसंग : प्रेम कुमार मणि जी से ज्ञात)। यह प्रसंग राजनारायण की वाकपटुता से अधिक उनके साहसी हस्तक्षेप का प्रसंग है। वरना तो अपनी कथित ऊंची जाति का गर्वोन्नत उद्गार वे संसद में कर सकते थे, जो उनके ‘ज्ञात’ पिता की थी, या जो दर्ज थी।
अनुराग ठाकुर की भाषा और हमारे पी एम साहेब को पसंद आने वाला कटाक्ष दरअसल राहुल की जाति नहीं उनके पिता को लेकर ‘लंपट भाषा और कटाक्ष’ है। जिसका समुचित जवाब तो राज नारायण जी के प्रसंग में है। तो मां से जाति तो हर किसी को पूछना पड़ेगा, संसद में जिसने जाति पूछी उसे भी अपनी जाति के लिए मां से ही कन्फर्म होना पड़ेगा।
सवाल है कि राहुल गाँधी की सबसे बड़ी ताकत उनका ‘निर्जात’ होना ही तो है। बाबा साहेब का मानना था कि अन्तरजातीय, अन्तराधार्मिक संबंधों के जरिए जाति टूटेगी। हालांकि जाति कुछ यूं टूटी नहीं। राहुल गाँधी के परिवार में ऐसी शादियाँ कई हैं। उनके खुद के दादा और पिता की तो है ही।
व्यर्थ ही उनके सलाहकारों ने 2017 से 2022 तक उन्हें जनेऊ धारी बनवा दिया, दत्तात्रेय गोत्र वाला कौल ब्राह्मण। एक निर्जात राहुल जाति गणना की माँग करने के लिए, उसके दवाब बनाने के लिए सहज योग्य और सर्वाधिक समर्थ। बस उन्हें इस ताकत पर धमक कर खड़ा होना होगा, गर्व करना होगा। भूलकर भी दुबारा जनेऊ की ओर न जाएं।
अखिलेश यादव इस प्रसंग में इंडिया ब्लॉक में सबसे समर्थ नेता हैं, जो जाति पूछने पर सांसद अनुराग ठाकुर की मजम्मत कर सकें। उनके साथ घटित मंदिर के मामले में या सीएम आवास से बाहर आने के बाद के प्रसंगों में जाति की क्रूरता स्पष्ट है।उन्होंने सचेत जाति तोड़ने की कोशिश भी की है। अन्तरजातीय विवाह किया है। अब यह परंपरा है, पितृसत्ता का असर है कि राजपूत डिंपल जी को यादव सरनेम मिल रहा है और वे यादव कोटे में गिनी जा रही हैं। अखिलेश जी के बेटे, बेटी के साथ भी जाति व्यवस्था की यह नियति लागू होगी।
बिहार में अभी जाति और संतति की जाति का प्रसंग चुनावी चर्चा में था। मीरा कुमार (दलित ) के बेटे को अपने कुशवाहा पिता के कारण सामान्य सीट पर चुनाव लडना पड़ा।वहीं बिहार की समस्तीपुर सीट पर अनुसूचित जाति से आने वाले अशोक चौधरी की बेटी सांभवी चौधरी की उम्मीदवारी अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट पर बनी। विडंबना यह कि उनके भूमिहार परिवार में ससुराल को लेकर चर्चाएं खूब रही कि यह सीट भूमिहार घर में गयी।
ऐसा ही महागठबंधन की जमुई से उम्मीदवार उम्मीदवार अर्चना दास के बारे में चर्चा में था। उनके पति यादव हैं। इन दोनो ही मांओं की संतानों को उनकी मां की जाति नहीं मिलेगी। उनकी संतान मां की जाति लेकर आरक्षित सीट से नहीं लड़ पाएगी। वह भूमिहार होगी, या यादव।
इस देश में जाति एक जटिल विषय है। पितृसत्ता से पुष्ट। जाति गणना की बात हो या सामाजिक न्याय की बातें राहुल गाँधी लंपट ‘ ठाकुर ‘ सांसद को ठेंगा दिखाते हुए पूरे आत्मविश्वास के साथ कर सकते हैं। उन्हें करना चाहिए। दुबारा जनेऊ की शरण में न जाएं तो अच्छा। राहुल गाँधी निर्जात हैं। यही उनकी ताकत है।”
राहुल गाँधी को एक डेलिकेट व्यवहार में क्यों होना चाहिए। मोदी जी की तरह खुद को सेंटर में रखकर विक्टिम भाव में क्यों होना चाहिए। आखिर वे स्वयं लोगों से उनकी जाति पूछ रहे हैं, पत्रकारों से, अफसरों से, नेताओं से तो उन्हें अपनी जाति के बारे में स्पष्ट होना चाहिए और संघ परिवार के ऐसे हमलों का डटकर जवाब देना चाहिए। समस्या कहाँ है। पड़ताल करता हूँ तो दिखता है कि राहुल सामाजिक न्याय को सही मायने में समझे बिना सामाजिक न्याय कर रहे हैं।
9 अगस्त 2022 को नीतीश कुमार के महागठबंधन के साथ आने और सरकार बनाने के दो महीने पहले ही जाति सर्वे का नोटिफिकेशन बिहार सरकार ने कर दिया था। तब नीतीश एनडीए सरकार के मुखिया थे लेकिन राष्ट्रीय जनता दल के सम्पर्क में रहते हुए महागठबंधन की ओर आने और एक देशव्यापी भूमिका लेने की तैयारी में थे। 7 जनवरी 2023 से जाति सर्वे का डेटा कलेक्शन भी शुरू हो गया था। 7 मार्च 2023 को रायपुर कन्वेंशन में पहली बार काँग्रेस ने जाति गणना की बात की। यह कन्वेंशन सामाजिक न्याय के विविध प्रस्तावों के साथ सम्पन्न हुआ। हम सबके लिए यह एक स्वागत योग्य कदम था।
मेरे जैसे लोग कई सालों से काँग्रेस को इस दिशा में जाने की कामना कर रहे थे। अपनी -अपनी सीमाओं में लिखकर, मिलकर, प्रस्ताव देकर। नेशनल हेराल्ड सहित कई अखबारों, पोर्टल में भारत जोड़ो यात्रा की समीक्षा करते हुए भी इस आवश्यकता की माँग कर रहे थे।यह एक पैन इण्डिया पार्टी का सामाजिक न्याय के स्पेस पर आना था। काँग्रेस के पास ओबीसी, दलित मुख्यमंत्रियों, नेताओं और उनके योगदानों की फेहरिस्त रही थी। तो एक इतिहास यह भी कि मंडल कमीशन के लागू होने के खिलाफ राजीव गाँधी ने ’10 ग्लास’ पानी पीकर लंबा भाषण दिया था। और भी कई शिकायतें। शिकायतें थीं तो योगदान भी। काँग्रेस नेता राहुल गाँधी की अब नयी भूमिका बनी सोशल जस्टिस, सामाजिक न्याय के साथ काँग्रेस को और खुद को जोड़ने की।
दिक्कत यह हुई कि राहुल गाँधी को यह अहसास होने लगा कि वे ही ‘सामाजिक न्याय के मसीहा’ हैं। उनके साथ ही सामाजिक न्याय का आदि और सामाजिक न्याय का अन्त है। रायपुर कन्वेंशन के बाद राहुल गाँधी ने जाति गणना पर जोर देना शुरू किया। इसके साथ ही उनके भाषणों और वादों में ओबीसी एक स्थायी भाव की तरह जुड़ता गया। 20 सितम्बर 2023 को लोकसभा में महिला आरक्षण के भीतर ओबीसी आरक्षण की माँग करते हुए राहुल गाँधी ने भाषण दिया। यह काँग्रेस के स्टैंड का एक शिफ्ट था। हमलोग इस लाइन पर कई सालों से माँग कर रहे थे। 2015 में एनएफआईडव्ल्यू और स्त्रीकाल ने लगभग सभी पार्टियों के महिला संगठन के नेताओं और एक्टिविस्ट्स की एक बैठक बुलाकर प्रस्ताव दिया था। इस बैठक में राजनीतिलक आदि वैसी महिला नेता भी थीं, जिन्होंने 1996 में पहली बार महिला आरक्षण बिल के पेश होने के समय से ‘कोटा विद इन कोटा’ की माँग का समर्थन किया था।
सामाजिक न्याय विरोधी तत्वों द्वारा जाति सर्वे के खिलाफ हर हथकंडे असफल होने के बाद, न्यायालयों में उनके मुकदमों के बेअसर होने के बाद 2 अक्टूबर 2023 को बिहार ने जाति सर्वेक्षण के आंकड़े जारी कर दिये और 8 नवम्बर 2023 को उसे विधान सभा में पेश कर दिया। अगले ही दिन 9 नवम्बर को उन आंकड़ों के आधार पर विधानसभा ने सर्वसम्मति से आरक्षण का अनुपात का बढ़ा दिया। अनुसूचित जाति, जनजाति, ओबीसी, ईबीसी आदि को पहले से मिल रहे 49.5 % आरक्षण को बढाकर 65 % कर दिया गया। यह लोकसभा चुनावों के पहले सामाजिक न्याय का बिहार मॉडल था। स्वाभाविक है कि नीतीश कुमार गुजरात मॉडल के विकास और धर्म के कॉकटेल को बिहार मॉडल के विकास और सामाजिक न्याय के कॉकेटल से चुनौती देना चाह रहे थे। यह एक कारगर फॉर्मूला था।
राहुल गाँधी अपने ही अंदाज में ‘सामाजिक न्याय’ की नयी मुद्रा में थे। अभी कुछ वक्त ही गुजरा था, जब एक निर्जात नेता, जिसकी ताकत है निर्जात होना, अपना जनेऊ दिखा रहा था, अपना दत्तात्रेय गोत्र बता रहा था, वह ओबीसी और जाति गणना को अपने भाषणों, अपने प्रेस कांफ्रेंस में स्थायी टेक बना चुका था। पीढ़ी-दर-पीढ़ी अन्तरजातीय-अन्तरधार्मिक विवाहों से भरे एक गौरवशाली परिवार के होने का बोध उसका अपना आत्मगौरव होना चाहिए था, वह इस ऐतिहासिकता से शून्य अपना गोत्र बताने लगा था। काँग्रेस पार्टी के अपने इतिहास में ओबीसी और सामाजिक न्याय के दोनों ही पहलू रहे हैं। इसकी ऐतिहासिकता से जुड़े बिना यह नेता सामाजिक न्याय का स्वम्भू और अपने ही स्टाइल का मसीहा की भूमिका में था। इस प्रसंग में इसके दामन दागदार थे। पिता राजीव गाँधी ने मंडल कमीशन के लागू होने का विरोध 10 ग्लास पानी पीकर डेढ़ घंटे तक भाषण देकर किया था। इस प्रसंग में पार्टी के दामन में चंद सितारे भी थे। तमिलनाडु को इसने परिवर्तनकारी ओबीसी मुख्यमंत्री दिया था, के. कामराज। अर्जुन सिंह ने 2006 में ओबीसी को उच्च शिक्षा में आरक्षण देकर सामाजिक न्याय को गति दी थी।
राहुल गाँधी को न जाने क्यों एक अहसास होता है कि जो तथ्य उन्हें आज ज्ञात हुआ है, वह पहली बार अविष्कृत हुआ हो। हम सब 2014-15 से सवाल कर रहे थे, फॉरवर्ड प्रेस जैसी पत्रिकाएं, या दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ ओबीसी प्रोफेसर्स, सोशल मीडिया में सामाजिक न्याय के लिए लिखते-पढ़ते लोग, इस तथ्य को सामने ला रहे थे। सूचना अधिकार के आवेदन दिए जा रहे थे। विश्वविद्यालयों में प्रोफ़ेसर और मंत्रालयों में सेक्रेटरी आदि की संख्या पूछी जा रही थी।
वे सरकार में ओबीसी सेक्रेट्री की संख्या बताते और सवाल दागते वर्तमान सरकार पर। सवाल उनकी ओर तेज से प्रहार से वापस आता। आखिर आज सेक्रेटरी स्तर तक पहुँचे अफसर काँग्रेस की सरकारों के दौरान ही तो नियुक्ति, प्रोमोशन की प्रक्रिया से गुजरे थे। वे पत्रकारों से पूछते हैं आपके बीच ओबीसी कितने हैं? 2006 में योगेंद्र यादव की सक्रियता से जितेंद्र कुमार आदि ने बड़े मीडिया घराने में ओबीसी, दलित पत्रकारों, संपादकों का एक सर्वे किया था। बिहार में एक ऐसा सर्वे बाद के वर्षों में सबाल्टर्न पत्रिका ने छापा था। राहुल कुछ यूं सवाल करते, जैसे ये उनका आत्मबोध हो, ताजा-ताजा।पलटकर उनसे पूछ लिया जाता कि काँग्रेस की मीडिया टीम में कितने ओबीसी हैं तो? पूछा भी गया, वे बमुश्किल 3-4 पेश कर पाये।
राहुल और काँग्रेस के लोग फ़रवरी 2023 के बाद सामजिक न्याय की बैठकें करने लगे। कुछ बैठकें राहुल की टीम ने अलग से उनके लिए आयोजित की। ऐसी ही एक बैठक राहुल गाँधी ने ओबीसी, दलित और आदिवासी सुमदाय से कुछ चुनींदा पत्रकारों से की। उस बैठक में उनसे ओबीसी समुदाय से आने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार ने सवाल किया कि आपकी मीडिया टीम में कितने ओबीसी के लोग हैं। राहुल गाँधी ने अपनी टीम से कुछ लोगों की जातियाँ बतायी। 5 दर्जन से अधिक सदस्यों वाली मीडिया टीम में बमुश्किल चार ओबीसी पत्रकार थे। आगे उन्हीं वरिष्ठ पत्रकार ने राहुल गाँधी को यह भी बताया कि ‘यह तो अच्छा है कि आपने काँग्रेस अध्यक्ष एक दलित नेता को बनाया। लेकिन सवाल है कि आपकी पार्टी के लोग उन्हें कितना सम्मान देते हैं या उन्हें अध्यक्ष मानते भी हैं!’ राहुल के इस पर प्रतिप्रश्न करने और आश्चर्य जताने पर उन्होंने कहा कि ‘रायपुर कन्वेंशन में काँग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का बेहद शानदार भाषण था लेकिन प्रेस नोट में उनका बेहद नजरअंदाज किया गया कोट था।’
उसी बैठक में राहुल गाँधी ने ब्राह्मणवादी कह डाला। देखते ही देखते माहौल तल्ख़ हो गया। वहाँ उपस्थित एक दलित पत्रकार ने अपना आपा खो दिया। उन्होंने राहुल गाँधी की इसी सोच को ब्राह्मणवादी बतलाते हुए कहा कि ‘आप एक हाशिये से आयी दलित महिला नेता का संघर्ष नहीं समझ सकते।’ इस बैठक का कोई वीडियो जारी नहीं किया गया।
काँग्रेस या उससे जुड़े संगठन द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में से कई में शामिल एक दलित बुद्धिजीवी ने इन पंक्तियों के लेखक को बताया कि कैसे राहुल की ऐसी बैठकों के बाद मुख्य धारा के मोदी भक्त पत्रकारों को खास तबज्जो दी जाती है और अल्टरनेटिव मीडिया प्लेटफॉर्म के पत्रकारों को उपेक्षित किया जाता है,
एक बैठक, जिसमें मुझे भी होना था, एक युवा साथी ने राहुल गाँधी को एक दिलचस्प सुझाव दिया। उसने सुझाया कि ‘आपने अबतक कई इवेंट किये हैं। कई लोगों से मिले हैं, जुड़े हैं। एक बार गटर में होने वाले मौतों को, गटर की सफाई में उतरने वाले लोगों की असुरक्षा को सम्बोधित करें। एक बार गटर में उतरने की तैयारी करें।’ राहुल उत्साहित हुए। मैंने जब सुना, तो मुझे भी यह दिलचस्प लगा। चुनाव के आखिरी चरण के पूर्व तक मैं इस इवेंट का इन्तजार कर रहा था। हालांकि जब वे ऐसा करते तो उनके अपने राज्य, काँग्रेस शाषित राज्य में गटर में उतरने वाले लोगों की मौतों के मामले जरूर उठते। फिर भी यह एक साहसिक कदम होता और यकीनन, कम से कम काँग्रेस शासित राज्य गटर सफाई की दिशा में वैज्ञानिक पहल के लिए प्रेरित होता।
इवेंट प्रियता का माहौल हम सबने सत्ता पक्ष में देखा है, विपक्ष और खासकर राहुल गाँधी को भी इवेंट प्रेमी के रूप में ही हमने देखा है। अलग-अलग रोल प्ले। कभी किसान, बढ़ई, कभी कुली, कभी मजदूर। ओबीसी मसीहा के रूप में उनकी इवेंट प्रियता का इंतिहा दिखा फ़रवरी 2024 में।
राहुल गाँधी को चाहिए कि वे काँग्रेस को और खुद को अपने ऐतिहासिक श्रेष्ठता से बाहर लेकर आयें। जाति या वर्ण व्यवस्था के प्रति सम्मान, श्रद्धा भाव रखने वाले नेताओं को काँग्रेस ने दलित प्रश्नों पर मसीहा बनाने की ऐतिहासिक कोशिशें की है। 1917 में काँग्रेस का अध्यक्ष बनने के बाद मोहरतमा एनी बेसंट काँग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में अपने द्वारा लिखित ‘दलित उत्थान’ का प्रस्ताव पारित करती हैं। जिसमें वे “दलितों के लिए कहती हैं कि ‘जनता का एक बड़ा वर्ग, असभ्य, अज्ञानी और भाषा तथा आदतों के स्तर पर गन्दा है।‘ (व्हाट काँग्रेस एंड गाँधी हैज डन फॉर अनटचेबल्स, 21)
महात्मा गाँधी यद्यपि एनी बेसेंट की तुलना में ज्यादा संवेदनशील थे लेकिन दलित प्रश्न पर डा. आंबेडकर ने उन्हें हमेशा कटघरे में खड़ा किया और दलितों के नेता या मसीहा होने के उनके दावे को खारिज किया। राहुल गाँधी इसी ऐतिहासिकता में आगे बढ़ते हैं तो उन्हें नुकसान होगा, हुआ। सवाल है कि सामाजिक न्याय की राजनीति की जमीन से आए नीतीश कुमार अपने बिहार फॉर्मूले के साथ ज्यादा विश्वसनीय विकल्प दे पाते या राहुल गाँधी?
यह आलेख संजीव चंदन की आने वाली किताब ‘2024 :जनता की हार का (खल) नायक कौन!’ का एक हिस्सा है।