और चीन से नाराज भारत ने अमेरिका को मौका दे दिया
15 जून को 20 भारतीय सैनिकों के मारे जाने पश्चात अमेरिका से राइफलें खरीदी गयी हैं, असॉल्ट राइफलें। भारत अमेरिका के साथ नौसेना अभ्यास में जुटा है। वो चीन को ये सन्देश देना चाहता है कि वो अकेला नहीं है। उधर अमेरिका भी लगातार भारत की पीठ ठोक रहा है। चीनविरोधी सूर अमेरिका में काफी तेज हो गये हैं। अमेरिका व उसके सहयोगी देश हुवेई कम्पनी को विकसित देशों पर प्रवेश करने से रोक रही है। भारत ने भी 58 चीनी ऐप बन्द करने, कई बड़े प्रोजक्ट्स को चीनी कम्पनियों को हटाने तथा 5 जी तकनीक के प्रवेश पर रोक लगा दी है। उधर अमेरिका का गूगल नरेन्द्र मोदी के सबसे विश्वस्त उद्योगपति मुकेश अंबानी के माध्यम से भारतीय बाजार में और अधिक दखल जमाने की ओर बढ़ चुका है।
15 जून की गालवान घाटी में हुए सैन्य झड़प, जिसमें 20 भारतीय सैनिक मारे गये थे, का परिणाम ये हुआ है कि अमेरिका का दखल भारत में बढ़ता चला गया। अमेरिका की तरफदारी का जो काम थोड़ा दबे-ढ़ंके ढ़ंग से होता था वो अब खुलकर होने लगा है। भारत की अमेरिका की ओर जाता देख दूसरे देशों ने भी अपने पैंतरे बदलने शुरू कर दिए है। भारत के पुराने मित्र ईरान ने चाबदार बन्दरगाह की परियोजना से भारत को बाहर कर दिया। कहा जा रहा है ऐसा उसने चीन के इशारे पर किया हैं। जबसे नरेन्द्र मोदी सरकार आयी है अमेरिका को भारत का स्वाभाविक सहयोगी बताने वालों की संख्या में बहुत इजाफा हुआ है। 15 जून की घटना के बाद से तो भारत में सक्रिय पुरानी अमेरिकी लॉबी की बांछे और अधिक खिली हुई है। भारत और चीन के मध्य सीमा विवाद को दोनों देश सुलझाने की कोशिश में लगे हुए हैं।
1991 के बाद से अमेरिका से बढ़ती नजदीकी
1991 के बाद यानी सोवियत संघ के पतन के बाद भारत धीरे-धीरे अमेरिका की तरफ झुकता चला गया है। इसमें तेजी आयी 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनने के बाद। इसी वक्त तत्कालीन विदेश मन्त्री व उनके अमरीकी समकक्ष स्ट्राल्बोर्ट के मध्य कई चक्रों की वार्ता चली। इन वार्ताओं के बाद जसवंत सिंह ने एक ऐसी बात कही जो भारत की पिछले पचास वर्षों की पारम्परिक विदेश नीति में एक निर्णायक बदलाव का सूचक था। जसवंत सिंह के अनुसार पिछले पचास वर्षों की विदेश नीति ‘वेस्टेड डेकेड्स’ की तरह थे।
यानी इन बहुमूल्य दशकों को हमने बर्बाद कर दिया। ‘बर्बाद कर दिया’ इसका मतलब शीतयुद्ध के जमाने में भारत दोनों शक्तिशाली देशों से भिन्न गुटनिरपेक्षता की नीति पर चल रहा था, वो बेकार था। अमेरिका के विदेश प्रतिनिधि से वार्ताओं के बाद भाजपा के विदेशमन्त्री को ये दिव्य ज्ञान हुआ था। लगभग उसी समय से भारत ने गुटनिरपेक्ष देशों के समूह ‘नॉन एलाइन्ड मूवमेंट’ में दिलचस्पी लेना कम करने लगा था। इसी दौरान तत्कालीन रक्षा मन्त्री जॉर्ज फर्नांडीस ने चीन को भारत का दुश्मन नंबर एक घोषित किया था।
अमेरिका से रणनीतिक समझौता और वामपंथी दल
2004 में यू.पी.ए -1 की सरकार बनी जो वामपंथी दलों के बाहरी सहयोग पर निर्भर थी। 2005 में न्यूनतम साझा कार्यक्रम के बाहर जाकर काँग्रेस ने अमेरिका से असैन्य नाभिकीय समझौता (सिविल न्यूक्लियर डील) और सामरिक समझौता (डिफेंस फ्रेमवर्क) किया था। अमेरिका से सम्बन्धों को लेकर, 2005 के पश्चात लगभग तीन वर्षों तक वामपंथी दलों व मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली काँग्रेस के बीच खींचतान, चलती रही। वामपंथी दल चीख-चीख कहते रहे थे कि ये न्यूक्लियर डील हमें अमेरिका का पिछलग्गू बना देगा। हम दक्षिण एशिया में अमेरिका के मातहत देश में तब्दील हो जायेंगे। वामपंथी दलों के प्रति भारत के एलीट में एक जन्मजात पूर्वाग्रह रहा करता है।
लिहाजा उस वक्त अखबारों में वामदलों की इस नीति को उनके अन्ध अमेरिका विरोध की विचारधारात्मक चश्मे के रूप में व्याख्यायित किया गया। इनके अनुसार दुनिया बदल चुकी है और वामपंथी अभी भी शीत युद्ध के मानस में जी रहे हैं। जबकि अब यथार्थ बहुत बदल चुका है। अमेरिका अब यथार्थ्जन्य है उससे हमें ‘एंगेजमेंट’ करना होगा। वाम नेताओं पर निजी हमले किए गये। अन्ततः अमेरिका के साथ सामरिक समझौते को लेकर वामपंथी दलों ने समर्थन वापस खींच लिया। आजाद भारत में पहली दफे विदेश नीति को लेकर इतनी गहरी व तीखी बहस चली थी।
अमेरिका के साथ हितों की वकालत करने वाले मनमोहन सिंह अपने कार्यकाल के अन्त में यानी 2014 के आम चुनावों के वक्त एक इंटरव्यू में कहा ‘‘अब चीन हमें घेरने का प्रयास कर रहा है।’’ भारत का अमेरिका के साथ जाना और चीन के साथ बढ़ती दूरी लगभग एक साथ घटने वाली परिघटना थी है। भारत के शासक वर्ग में चीन के कम्युनिस्ट शासन के प्रति हमेशा से एक पूर्वाग्रह रहा है।
अमेरिकी पक्षधर विदेश नीति के भारतीय पैरोकार और उनका सामाजिक आधार
जब ये असैन्य नाभिकीय समझौता हो रहा था लगभग उसी के आसपास सर्वेक्षण करने वाली एक प्रमुख संस्था पिउ ने तीसरी दुनिया के एलीट लोगों का सर्वेक्षण किया। उस सर्वेक्षण से एक चैंकाने वाली बात ये सामने आई कि समूचे विश्व में सर्वाधिक प्रो-अमेरिकन एलीट यानी अमेरिकीपक्षधर एलीट, भारत में पाया गया। सर्वेक्षण में भारत के 71 प्रतिशत एलीट अमेरिका के समर्थक पाए गये। इतनी बड़ी संख्या तीसरी दुनिया के किसी दूसरे देश में नहीं थी। वैसे भी भारत के उच्च मध्यवर्ग के परिवारों का कोई न कोई सदस्य अमेरिका में बसा हुआ होता है या वहाँ बसने की आकांक्षा रखता है। इसलिए अमेरिका किसी देश पर अपना प्रभाव बनाने के लिए क्या करता है ?
देश के प्रमुख पदों पर बैठे एलीट लोगों को मैनेज कर पूरे देश को अपने प्रभाव में लेने की कोशिश करता है। यही काम उसने दक्षिण कोरिया से लेकर पूरी दुनिया के तीसरी दुनिया के देशों के साथ किया। भारत की नौकरशाही के अधिकांश लोगों का प्रशिक्षण अमेरिका में कराया जाता है। नौकरशाही के प्रषिक्षण के नाम पर भारत के इन नौकरशाही का एक तरह से इनडॉटरिनेशन या कहें अमेरिकी दृष्टिकोण से सोचना सिखाया जाता है। यह अकारण नहीं है कि जिसने भी पुराने नौकरशाहों के लेख भारत के अंग्रेजी अखबारों में पढ़ने को मिलते हैं उन सब में एक ही रिकार्ड बार-बार बजाया जाता है कि चीन से लड़ने के लिए भारत को अमेरिका के साथ बेधड़के जाना चाहिए। फिर अंर्तराष्ट्रीय एन.जी.ओ वगैरह हैं जो एक अमेरिकी इशारे पर एक साथ सक्रिय हो उठते हैं।
शासक वर्ग का यही वो सामाजिक आधार था जो भारत के रणनीतिक हित को अमेरिका के साथ जुड़ा देखना चाहता था। खुद अमेरिका के अंदर ये ‘नॉन रिसीडेंट इंडियन’ का समूह अमेरिकी चुनाव में रिपब्लिकन ओर इंग्लैंड में कंजरवेटिव पार्टी का समर्थक बनता चला गया था। अमेरिका में हाउडी मोदी कार्यक्रमों को आयोजित करने से लेकर भीड़ जुटाने तक का काम यही वो वर्ग किया करता है। ये लोग खुद तो अमेरिका-इंग्लैंड में बसना चाहते हैं लेकिन भारत को नरेन्द्र मोदी के हाथो देखना चाहते हैं। ऐसे लोगों के बारे में हिंदी के चर्चित पत्रकार राजेंद्र माथुर ने काफी पहले कहा था कि ये लोग ‘‘ भा, भा, भा ’ हैं यानी ‘भारत से भागा हुए भारतीय है’।
अमेरिकी प्रभाव में गुटनिरपेक्ष देशों से बढ़ती दूरी
‘नॉन एलाइन्ड मूवमेंट’ यानी गुटनिरपेक्ष देशों का समूह संयुक्त राष्ट्र संघ के बाद सबसे बड़ह गोलबंदी थी। इसमें लगभग 120 देश थे। 17 देशों को ‘ऑबसर्बर’ स्टेटस रहा है। 1961 में स्थापित इस संगठन से सर्वाधिक परेशानी अमेरिका को थी। अधिकांशतः नवस्वाधीन देशों से बने गुटनिरपेक्ष देशों में भारत नेतृत्वकारी स्थिति में था। जवाहर लाल नेहरू को इस आन्दोलन का दुनिया भर में नेता माना जाता था। अमेरिका, गुटनिरपेक्ष देशों को लेकर प्रारंभ से काफी असहज स्थिति में था। जसवंत सिंह जब ‘बर्बाद हुए दशकों’ की बात कर रहे थे तो दरअसल उनका इशारा इसी गुटनिरपेक्ष दौर की ओर था।
जैसे-जैसे अमेरिका का दखल भारत की विदेश नीति में बढ़ता चला गया गुटनिरपेक्ष देशों के समूह में भारत की दिलचस्पी कम होती चली गयी। आज स्थिति यहाँ तक पहुँच गयी है कि भारत अब महज औपचारिकता भी नहीं निभाता है। कुछ ही वर्ष पूर्व गुटनिरपेक्ष देशों का सम्मेलन वेनेजुएला में संपन्न हुआ। वहाँ के राष्ट्रपति निकोलस मदूरो ने इस सम्मेलन की तारीख सिर्फ इस कारण से एक साल तक आगे बढ़ाया कि इसके संस्थापक देश भारत के प्रधानमन्त्री शामिल हो सकें।
पहले तो नरेन्द्र मोदी जी बहाना करते रहे कि अभी समय नहीं है, ये देश जाना है, वो देश जाना है। बाद में निकोलस मदूरो ने अपना निजी दूत भेजकर नरेन्द्र मोदी खुद उनके हाथों में पत्र सौंपा। इसके बावजूद प्रधानमन्त्री वेनेजुएला के गुटनिरपेक्ष देशों के सम्मेलन में नहीं शामिल हुए। यहाँ तक कि तत्कालीन विदेशमन्त्री सुष्मास्वराज ने भी कन्नी काट लिया। क्यों? क्योंकि इससे अमेरिका नाराज हो जाता। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भी येन-केन प्रकोरण वेनेजुएला की लोकतांत्रिक ढ़ंग से चुनी हुई वैध सरकार केा गिरा देना चाहते हैं क्योंकि वो उनके कहे अनुसार नहीं चलती।
विदेश नीति पर संसद में चर्चा तक नहीं होती
जब सुषमा स्वराज विदेश मन्त्री थी तब तो लगता ही नहीं था कि विदेश मन्त्रालय काम भी कर रहा है। सारा निर्णय प्रधानमन्त्री खुद किया करते थे। अब भी यही हाल है। विदेश नीति के किसी भी मसले को संसद में पेश तक नहीं किया जाता। संसद से मंजूरी लेना तो दूर की बात है। पहले भारत में चाहे वो किसी भी विचारधारा की सरकार थी विदेश नीति के मामले में सर्वानुमति हुआ करती थी। अब विदेश नीति सम्बन्धी कोई मामला किसी संसदीय समिति को भेजा ही नहीं जाता है। राफेल डील खुद प्रधानमन्त्री अनपनी निजी पहलकदमी पर कर लेते हैं। इतने विवादों के बाद भी किसी संसदीय समिति में उसकी जाँच-परख तक नहीं होती।
भारतीय हितों के खिलाफ काम करते हैं विदेश में रहने वाले भारतीय
ऑस्ट्रेलिया में नरेन्द्र मोदी जी गये तो वहाँ विदेश नीति को लेकर क्या बातें हुई हम नहीं जान पाते बल्कि चर्चा होती है मोदी जी के जलसों की। वहाँ रहने वाले ‘नॉन रेसीडेंट इंडियन्स’ मोदी जी को बुलाकर जलसा करते हैं। कई विश्लेषकों का मानना है कि इस बहाने वहाँ की सरकार को ये सन्देश देना चाहते हैं कि देखो हमारे पास इतने भारतीयों का समर्थन है। एक तरह से छुपा संकेत होता है कि हम आपकी नीतियों को प्रभावित कर सकते हैं।
अमेरिका में हुए हाउडी मोदी कार्यक्रम में नरेन्द्र मोदी ने कह दिया कि अमेरिका का अगला राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को ही होना चाहिए। कार्यक्रम यह एक तरह से दूसरे देशों के मामलों में दखल देने जैसा था। सबसे दुःखद बात ये ही विदेश में रहने वाले भारतीयों का इस्तेमाल भारत में रहने वाले भारतीयों को खिलाफ खड़ा करने की कोशिश की जाती है। भारत जिन चीजों के लिए जाना जाता है उन सबके खिलाफ काम किया जाता है।
अमेरिकी दबाव में ईरान व फिलीस्तिीन के मकसद से मुँहमोड़ लेना
भारत की अमेरिका से बढ़ती नजदीकी को ईरान और फिलीस्तीन से इसके सम्बन्धों में भी देखा जा सकता है। फिलीस्तीन के मकसद को भारत के स्वाधीनता आन्दोलन के वक्त से ही समर्थन मिलता रहा है। महात्मा गाँधी जी ने भी कहा था कि फिलीस्तीनियों का अपना देश होना चाहिए। लेकिन जिस ढ़ंग से भाजपा सरकार इजरायल के साथ बहुस्तरीय सहयोग बढ़ती जा रही है उसमें दुनिया भर के विश्लेषकों को ये अनुमान था कि अन्ततः भारत फिलीस्तीन के खिलाफ जाएगा। अन्ततः भारत ने हाल के दिनों में फिलीस्तीन के विरूद्ध जाकर इजरायल को वोट कर ही दिया। लेकिन इजरायल द्वारा फिलीस्तीन पर कब्जा कर तमाम अन्तराष्ट्रीय कानूनों का नंगा उल्लंघन करने के मामले में अमेरिका, इजरायल का प्रमुख संरक्षक रहा है।
यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि केन्द्र की मोदी सरकार इजरायल के साथ रणनीतिक साझेदारी कायम करने के उत्साह में फिलीस्तीनी जनता को समर्थन देने की पारम्परिक नीति से दूरी बनाने लगी है। फिलीस्तीन को समर्थन देना हमारी ऐतिहासिक विरासत का हिस्सा रही है। कुछ माह पूर्व फिलीस्तीन के मानवाधिकार संगठन ‘शाहेद’ को ‘संयुक्त राष्ट्र’ में पर्यवेक्षक की हैसियत हासिल होनी थी। यह पहला ऐसा मौका था जब भारत ने संयुक्त राष्ट्र में फिलीस्तीन के खिलाफ इजरायल के समर्थन में वोट दिया था। फिलीस्तीन के खिलाफ जाकर इजरायल को समर्थन देकर यह हमारी भारतीय विदेश नीति को पूरा उलट दिया गया है। क्यों? क्योंकि अमेरिका ऐसा चाहता था।
अमेरिका के दबाव में भारत ने ईरान से सस्ता तेल खरीदना बन्द कर दिया और उसके बदले महंगा तेल खरीद रहा है। जबकि ईरान मुस्लिम देश होने के बावजूद कश्मीर के मामले पर भारत का समर्थन करता आया था। लेकिन भारत ने ईरान की पीठ में छूरा भोंका तो ये अतिश्योक्ति नहीं कही जाएगी। आई.ए.ई.ए जी जाँच के वक्त भी ईरान के खिलाफ जाकर भारत ने वोट किया।
2003 में जब अमेरिका ने हमला किया तब भाजपा की सरकार थी। संसद में भारत सरकार की इतनी भी हिम्मत नहीं हुई की उसकी निन्दा करे। संसद में वाजपेयी जी ने प्रस्ताव लाया कि ‘‘ हम इराक पर अमरीकी हमले पर दुःख व्यक्त करता है।’’
अमेरिका दबाव में ‘सार्क’ का अप्रसांगिक बना देना
लगभग यही हश्र सार्क देशों का हुआ। सार्क, दक्षिण एशिया के देशों का आपसी सदभाव व विष्वास पैदा करने वाला महत्वपूर्ण मंच था। सार्क में शामिल देशों में भारत के अलावा पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बंग्लादेश, मालदीव, म्यांमार आदि रहे हैं। आज भारत के सम्बन्ध किसी भी पड़ोसी देश से बेहतर नहीं है। आपसी सम्बन्धों को ठीक करने वाले इस फोरम को खुद अपने हाथों से भारत ने दफ्न कर दिया। क्यों? क्योंकि अमेरिका नहीं चाहता था।
वैसे भी अमेरिका की दिलचस्पी दक्षिण एशिया में बढ़ रही थी वो ऐसे किसी फोरम को देखना नहीं चाहता था कि वो भविष्य में उसके हितों को नुकसान पहुँचे।
अमेरिका की दिलचस्पी एशिया में बढ़ती जा रही थी। ओबामा के समय ही एशिया को केन्द्र में रखकर ‘पिवट टू एशिया’ नीति बनायी गयी। अमेरिका के रणनीतिक फ्रेमवर्क को रखकर नरेन्द्र मोदी ने ‘लुक इस्ट पालिसी’ बनायी। इस प्रकार दोनों के रणनतिक हित आपस में हिलमिल गये। अमेरिका चीन की बढ़त रोकने के लिए एशिया में अपनी उपस्थिति बढ़ाता जा रहा है। और इस काम में उसकी सबसे अधिक मदद भारत कर रहा है। चीन को घेरने के लिए अमेरिका ने चार देशों के ‘क्वाड’ की स्थापना की जिसमें भारत, अमेरिका के अलावा जापान और ऑस्ट्रेलिया हैं। क्वाड को मन्त्रीमण्डल स्तर तक की वार्ता में ले जाया गया।
भारत जिस उत्साह के साथ अमेरिका के साथ गलबहिंया डाल कर आगे बढ़ रहा है उससे तीसरी दुनिया के अधिकांश देश हैरत में हैं। यहाँ तक कि जापान जैसा अमेरिकी समर्थक देश भी बेहद सतर्क व सावधान होकर अपने कदम बढ़ा रहा है। हाल में उसने अमेरिका के डिफेंस मिसाइल सिस्टम को जापान में लगाने से मना कर दिया क्योंकि उन्हें लगा कि इससे नाहक ही वे चीन व उत्तरकोरिया के निशाने पर आ जायेंगे।
नरेन्द्र मोदी सरकार में जो कई समझौते भारत ने अमेरिका के साथ संपन्न किए उसने तो लगभग भारत को अमेरिका के और करीब ला दिया। LEMOA (लोजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोर्र्न्डिंग ऑफ़ अग्रीमेंट), BECA (बेसिक एक्सचेंज एंड को-ओपरेशन अग्रीमेंट), CISMOA (कम्युनिकेशन एंड इनफार्मेशन ऑन सिक्यूरिटी मेमोरेंडम ऑफ़ अग्रीमेंट) इन समझौतों के बाद अमेरिका का लगभग वही बन गया जिसकी ओर वामपंथी दलों ने यू.पी.ए-1 के वक्त आशंका व्यक्त की थी कि भारत ‘‘अमेरिका का जूनियर पार्टनर’’ बन जाएगा।
भारत अब अमेरिका से बड़े पैमाने पर सैन्य सामग्री खरीद रहा है। अब भारत अमेरिका को अपना सैन्य आधार इस्तेमाल करने की इजाजत देता है। इन समझौतों के बाद अमेरिका रेडियो और सैटेलाइट उपकरणों की देखभाल के नाम पर अमेरिकी की मौजूदगी बढ़ती जा रही है। उसके साफ्टवेयर को चलाने के लिए अमेरिकी विशेषज्ञ आयेंगे। इस प्रकार भारत का पूरे डिफेंस सिस्टम पर अमेरिका के रक्षा प्रतिष्ठानों की निगरानी में आ जायेंगे। इस प्रकार अन्ततः भारत अमेरिका के रणनीतिक रूप से ट्रैप हो गया है। यानी अब भारत अमेरिका के लिए सैन्य अड्डे का काम करेगा। गुटनिरपेक्ष ओदोलन की एक सबसे बड़ी माँग थी नवस्वाधीन देशों से उपनिवेशवादी देशों के सैन्य अड्डा हटाया जाना। इन्हीं वजहों से अमेरिका भारत पर गुटनिरपेक्ष देशों से अलग हटने के लिए दबाव बना रहा था।
चीन को घेरने के नाम पर बन रही अमेरिकी रणनीति के चक्कर में दरअसल मोदी सरकार भारत को अमेरिका फाँस में डाल चुकी है। रूस से जब भारत ने एस-400 मिसाइलें खरीदनें की बातें की तो अमेरिका ने गुस्से में आकर कहा कि यदि रूस से ये मिसाइलें खरीदी गयीं तो हम आप पर प्रतिबन्ध लगायेगे। भारत किससे रक्षा उपकरण खरीदेगा वो अमेरिका से पूछ कर करेगा? चुंकि हमने सामरिक समझौता ही अमेरिका के साथ इस तरह का दस्तखत किया हुआ है कि भारत के हाथ बन्ध से गये हैं। भारतीय सम्प्रभुता के क्षरण का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा?
आज सब जानते हैं अर्थव्यवस्था में चीन आगे बढ़ता हुआ और अमेरिका ढ़लान की ओर जाता देश है। आज चीन एक अभ्युदयशील देश है जबकि अमेरिका पतनशील देश है।
भारत अब अमेरिका के लिए वही है जो कभी ब्रिटेन के लिए था
फिर भी अमेरिका पूरी दुनिया पर अपना वर्चस्व कायम करना चाहता है। चीन उसकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा बनकर उभर आया है। अमेरिका अपने लिए आज वैसी ही स्थिति चाहता है जैसी ब्रिटेन की थी। बिहार के चर्चित सामाजिक-राजनीति कार्यकर्ता अरविंद सिन्हा की यह टिप्पणी द्रष्टव्य है ‘‘ अमेरिका ने इस बात का गहरा अध्ययन किया कि आखिर ब्रिटेन ने इतने लंबे वक्त तक कैसे साम्राज्य कायम रखा ? कहा जात है ब्रिटिश साम्राज्य का कभी सूर्य अस्त नहीं होता था।
ब्रिटिश साम्राज्य ऐसा प्रभाव इस कारण कायम रख पाया कि उसके पास भारत जैसा समृद्ध उपनिवेश था था। आज ब्रिटेन की जगह लेने का प्रयास करने वाला अमेरिका सोचता है कि यदि भारत उसके कब्जे में आ जाये तो चीन पर नियन्त्रण रखने के साथ- साथ पूरी दुनिया पर फिर से अपना वर्चस्व कायम कर रख सकेगा। भारत अमेरिका के लिए आज ठीक वही काम कर रहा है जो अतीत में उसने ब्रिटेन के लिए किया था। नरेन्द्र मोदी की सरकार इस काम में अमेरिका से मदद कर रही है।’’
जर्मनी के माहन कवि व नाटककार बर्तोल्त ब्रेख्त की एक मशहूर कविता है
और चरवाहे से नाराज भेड़ों ने
कसाई को मौका दे दिया।
इस कविता को बदल आज के संदर्भ में थोड़ा बदल कर कहें तो कहा जा सकता है
और चीन से नाराज भारत ने
अमेरिका को मौका दे दिया।
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