चीन को एंग्लो-सैक्शन नजरिये से नहीं समझा जा सकता
जबसे चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने जुलाई माह में अपने शताब्दी समारोह की शुरुआत की है अमेरिका सहित पश्चिमी देशों ने एक प्रोपेगेंडा युद्ध सा छेड़ रखा है। प्रिंट, इलकेट्रॉनिक व सोशल मीडिया पर निरन्तर चीन को लेकर नकारात्मक दुष्प्रचार जारी है। एक जमाने मे अमेरिका सहित पश्चिमी देश सोचा करते थे कि जिस प्रकार चीन ने अपनी अर्थव्यस्था को बाहरी दुनिया के लिए खोला है, बाहरी पूँजी वहाँ आने लगी है उसी के अनुकूल चीन को अपने यहाँ राजनीतिक सुधार लाना होगा। अर्थव्यवस्था में उदारीकरण की प्रतिक्रिया राजनीति में भी होगी और अंततः चीन में भी अमेरिकी या इंग्लिश ढंग के बर्जुआ लोकतन्त्र को जन्म देगा।
चीन की एक प्रमुख पश्चिमी आलोचना यह है कि वहाँ पश्चिमी ढंग का लोकतन्त्र नहीं है, एक पार्टी का तानाशाहीपूर्ण शासन है जिससे समाज ठहर जाता है, आगे नहीं बढ़ पाता। लेकिन पिछले सात दशकों का इतिहास इस आलोचना को सही नहीं ठहराते।
1971 से 2016 तक यानी लगभग आधी सदी तक चीन व अमेरिका के संबन्ध ठीक ठाक रहे। पश्चिमी व अमेरिकी देशों के विशेषज्ञ कि यह अनुमान व्यक्त करते थे कि निरंकुश व तानाशाही शासन के कारण चीन की जनता में विक्षोभ पैदा होगा। लेकिन हार्वड-कैनेडी स्कूल के एक 2003 में किये अध्ययन के अनुसार चीन की 86 प्रतिशत जनता का समर्थन कम्युनिस्ट पार्टी के शासन को था। दुबारा 2016 में हुए दुबारा अध्ययन में यह समर्थन घटने की बजाए बढ़कर 93 प्रतिशत हो चुका है। चीनी सरकार के प्रति सन्तुष्टि का भाव ग्रामीण व कस्बाई इलाकों में अधिक बढ़ा है। यह संख्या 43.6 प्रतिशत से बढ़कर 70.2 प्रतिशत हो चुका है। विशेषकर कम आय वाले निवासियों में यह समर्थन अधिक देखा गया। यह समर्थन इन समूहों में स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता, शिक्षा तथा अन्य सामाजिक सेवाओं के साथ-साथ सरकारी पदाधिकारियों की तत्परता व सरोकारों के बढ़ा है। दरअसल चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की जड़ें चीनी जनता में बहुत गहरी हैं। इन्हीं वजहों से चीन आत्मविश्वास से भरा हुआ मुल्क है।
लेकिन आखिर अमेरिका या पश्चिमी देशों के लिए चीन पहेली क्यों नहीं बना हुआ है? चीन उन्हें समझ क्यों नहीं आता? ‘हैज चाइना वॉन’ किताब लिखने वाले सिंगापुर के लेखक किशोर महबूबानी के अनुसार “चीन को जब तक एंग्लो-सैक्सन दृष्टिकोण से देखा जाएगा चीन समझ में नहीं आएगा। उसके लिए एक किस्म की एशियाई दृष्टि चाहिए।”
देंगे श्याओ पिंग द्वारा किये गए सुधार
1978 में जब देंगे श्याओपिंग ने चीन की सत्ता संभाली तो उनका यही कहना था कि चीन जितनी तेजी से प्रगति कर रहा है उसे और ज्यादा तेजी से करना चाहिए। इसके बाद उसने दो ऐसे परिवर्तन किए जैसे उस काल मे पूरी दुनिया में कहीं भी नहीं किये जा रहे थे। पहला था बाजार की भूमिका, निजी क्षेत्र के लिए स्पेस। अर्थव्यवस्था में सिर्फ राज्य की ही भागीदारी न रहे, प्लान का ही महत्व नहीं रहे बल्कि दूसरे स्वरुपों को भी जगह मिले। दूसरा परिवर्तन देंगे श्याओ पिंग ने किया की चीन को दुनिया से और अधिक मात्रा में सम्बन्धित होना चाहिए, जुड़ना चाहिए। अब तक कम्युनिस्ट पार्टी का जो इतिहास और आदत रही है उसमें ये दोनों परिवर्तन शामिल करना आसान नहीं था। इन दोनों बदलावों के चीन ने जिस तरह से प्रगति की उसने उसे सही साबित किया। इस किस्म के खतरों से भरे फैसले वही पार्टी ले सकती थी जो जानती है कि वह जनता की बहुमत आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती है। उसी से अपनी वैधता प्राप्त करती है।
चीन से हर वर्ष 12-13 करोड़ लोग बाहर जाते हैं।
अमेरिका व यूरोपीय देशों को लगता है ही कि चीन में अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं है, अपनी राय रखने की स्वतन्त्रता नहीं है। लेकिन ये बात सच नहीं है। 1980 में चीन के लोगों को पास कोई अवसर उपलब्ध नहीं था कि वे कहाँ रहेंगे? क्या पहनेंगे? क्या पढ़ेंगे? लेकिन आज अपेक्षाकृत रूप से चीन में बहुत आज़ादी है। चीन से प्रति वर्ष 12 से 13 करोड़ लोग दुनिया मे बाहर जाते हैं। यदि चीन में ऐसी बुरी स्थिति रहती तो क्या बाहर गए ये चीनी दुबारा अपने देश वापस लौटते? सिर्फ अमेरिका के विश्विद्यालयों में लगभग 4 हजार चीनी छात्र पढ़ते हैं। ठीक इसी प्रकार इंग्लैंड को अपने विश्विद्यालयों में सबसे अधिक आमदनी होती है तो वह चीन से। क्योंकि वहाँ के काफी चीनी छात्र वहाँ पढ़ते हैं। दरअसल यूरोप व अमेरिका के देश न तो चीन और न ही कम्युनिस्ट पार्टी को समझ पाते हैं। उनकी जानकारी इतनी सीमित है कि चीन की बहुत सारी बातों का भान ही नहीं होता।
तीन पश्चिमी आधारों पर चीन का मूल्यांकन
पश्चिम व अमेरिका खुद को दुनिया का केंद्र समझता है। उनके अनुसार बाकी दुनिया को भी हमारे अनुकूल होना चाहिए। 1945 के बाद से तीन पैमानों के आधार पर दुनिया के देशों को मापना शुरू किया। सार्विक मताधिकार, बहुदलीय लोकतन्त्र तथा कानून का शासन। अमेरिका व पश्चिम के देश बाकी सबों को इसी तराजू पर तौलते हैं। उनके पैमानों से भिन्न भी कोई पैमाना हो सकता है इसे वे स्वीकार करने को ही तैयार नहीं होते। लेकिन यदि इन्हें ही आधार बनाया जाय तो 1918 से लगभग 1945 तक अधिकांश यूरोपीय देशों में लोकतन्त्र या सार्विक मताधिकार न था। इंग्लैंड में 1928 में आकर महिलाओं को मताधिकार प्राप्त हुआ, फ्रांस ने 1945 में सार्विक मताधिकार लागू किया और जिसे सबसे पुराना लोकतन्त्र कहा जाता है संयुक्त राज्य अमेरिका वहाँ तो काले लोगों को वोट देने का अधिकार साठ के दशक में हासिल हुआ। अतः जो देश खुद हाल तक आने बनाये पैमानों पर खरे नहीं उतरते थे वह खुद दूसरों पर अपने पैमाने थोप रहा है। आखिर चीन जैसा चार हजार पुरानी सभ्यता वाला देश अमेरिका सरीखे मात्र 250 वर्ष के युवा देश के मानकों से कैसे एड्जस्ट कर लेगा? सब कुछ इतना आसान नहीं है।
पिछले 70 सालों के दौरान चीन ने जैसा कि चीनी विशेषज्ञ मार्टिन जैक कहते हैं “चीन में प्रकाश की तेज गति से प्रगति व बदलाव आए हैं। लेकिन चीन ने इतने तेज विकास को संभाल लिया। इसी चीन में महज एक पार्टी का ठहरा हुआ निरंकुश शासन होता, जैसा कि यूरोपीय देश व अमेरिका आरोप लगाते हैं, यह सम्भव हो पाता?”
सन 1800 तक चीन एक सशक्त मुल्क था
यदि चीन या एशिया का इतिहास तो देखें पिछले दो सौ साल से पश्चिमी देशों का वर्चस्व रहा है। उनके पूर्व यानी सन 1800 ई तक दुनिया पर एशिया के देशों खासकर चीन व भारत सबसे प्रमुख देशों में गिने जाते थे। खासतौर से चीन दुनिया के सबके आगे बढ़े मुल्कों में गिना जाता था। चीन जब सबसे ताकतवर देशों में शुमार किया जाता था उस दौरान कभी भी किसी दूसरे देश को गुलाम बनाने व कब्जा करने का कोई उदाहरण नहीं है। ठीक उसी प्रकार लगभग एक शताब्दी के अपमान के बाद चीन का महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है उस वक्त भी उसने किसी देश को अपना उपनिवेश बनाने की ख्वाहिश नहीं जाहिर की है। अंतराष्ट्रीय मामलों के कई जानकार का मानना है कि चीन के विश्व रंगमंच के पटल पर आने के साथ ही दो शताब्दियों के पश्चिम के दबदबे का दौर भी समाप्त हो गया है। पिछले दिनों इंग्लैंड में जी-7 देशों की बैठक के दौरान होने वाली परिचर्चाओं में चीन ने जितनी जगह घेरी है, अभी देश थोड़े बौखलाए हुए से लगे उससे आने वाले बदलाव के संकेतों को पढा जा सकता है।
आज अमेरिका चीन को पूर्वी एशिया में घेरने का प्रयास कर रहा है। अमेरिका के अलावा इंग्लैंड सहित अन्य देशों ने अपनी जंगी बेड़ो को तैनात किया है उससे उन्होंने चीन को नियंत्रण में रखने की रणनीति तैयार की है। सैन्य मामलों में अमेरिका अभी चीन से काफी आगे है। यदि अमेरिका के पास 6000 न्यूक्लियर मिसाइल हैं तो चीन के पास 300। लेकिन चीन के पास नाभिकीय अस्त्र-शस्त्र हैं। यदि युद्ध हुआ तो कोई भी पक्ष विजयी न होगा। दोनों में ध्वंस होगा। अमेरिका के कम से कम 15 से 20 शहर मटियामेट होकर अस्तित्वहीन हो जाएंगे।
अमेरिका ने सी.आई.ए द्वारा वित्तपोषित संस्था ‘नेशनल इन्दौमेन्ट फॉर डेमोक्रेसी’ के माध्यम से हॉन्गकॉन्ग में तथाकथित लोकतन्त्र समर्थकों को फंड करती रही है। चन्द वर्ष पूर्व उसका जो बजट 6 लाख डॉलर था वह अब बढ़कर 20 लाख डॉलर हो चुका है। हॉन्गकॉन्ग, ताइवान, झिंझियांग आदि और लोकतन्त्र की आड़ में चीन को घेरने सामरिक रूप से घेरने का प्रयास किया जा रहा है।
लेकिन चीन सेना से बजाए इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट पर जोर दे रहा है। वह बेल्ट रॉड इनिशिएटिव के जरिये व्यापार के अमरीकी रूटों ओर अपनी निर्भरता तो कम कर ही रहा है। दुनिया के अधिकांश देशों के साथ सीधे जुड़ाव होने के कारण एक दूसरे ओर निर्भरता बढ़ेगी। चीन रणनीतिकारों के अनुसार सेना और व्यय के बजाय यह उनके लिए ज्यादा फायदेमंद होगा। वैसे भी चीनी कहावत के अनुसार सबसे अच्छा युद्ध वही होता है जिसमें बगैर रक्त बहाए जीत हासिल की जाती है। अमेरिका सोवियत संघ की तरह चीन को रोकने वे नाम पर जिस तरह से बेतहाशा खर्च कर रहा है वह उसके लिए बोझ बनता जा रहा है। वैसे भी की नीचे के 50 प्रतिशत अमेरिकी जनता की हालत बहुत खराब है। आमदनी पिछले तीस सालों उनकी आमदनी में इजाफा होने के बजाए घटता जा रहा है। एक अर्थशास्त्री के अनुसार “अमेरिका में गोरे लोगों वाला मज़दूर वर्ग” निराशा के समुद्र में जा चुका है।
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वहीं दूसरी ओर चीन निराशा के बजाए उम्मीद से भरे देश के रूप में गिना जा रहा है। जैसा कि किशोर महबूबानी के अनुसार “अपने चार हजार साल के चीन के इतिहास में कम्युनिस्ट पार्टी का पिछला 40 साल जैसा खुशहाल वक्त कभी नहीं रहा। आज चीन दुनिया के सबसे उम्मीद से भरा देश है। जिस कम्युनिस्ट पार्टी के कारण चीन में सम्पन्नता आई है मेरे ख्याल से अगले सौ सालों तक चीन में कोई उसका बाल बांका भी नहीं कर सकता।”