अंतरराष्ट्रीय

पूँजीवादी बाजारवाद बनाम समाजवादी ‘प्रकृतिवाद’

 

चीन में कथित ‘विचारधारात्मक संघर्ष’ का तात्पर्य

 

राष्ट्रपति शी जिन पिंग ने चीन में कुछ बड़ी टेक कंपनियों से शुरू करके इजारेदार पूँजी पर लगाम की दिशा में जो कार्रवाइयां शुरू की हैं, वे सिर्फ आर्थिक क्षेत्र में नहीं, समग्र रूप में चीन के समाज के नये सिरे से निरूपण के उनके अभियान का एक हिस्सा हैं। इनके जरिये वे आने वाले दिनों में वहाँ एक गहरी और सुनियोजित उथल-पुथल का संकेत देते हुए जान पड़ते हैं।

लगभग 44 साल पहले 1977 में चीन के नेता देंग श्याओ पिंग ने जब ‘चार आधुनिकीकरण’ के जरिये ‘खुलेपन’ का कार्यक्रम अपनाया था, उन्होंने कहा था कि अब से पचास साल बाद हम देखेंगे कि चीन की आगे की दिशा क्या होगी? वह समाजवाद के पथ पर ही बना रहेगा या पूँजीवाद के लिए जगह छोड़ देगा!

अब उस पचास साल की अवधि में सिर्फ छः साल और बचे हैं। इसी साल जून महीने में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के 100 साल पूरे हुए हैं और अगले साल के जून महीने में उसकी 21वीं पार्टी कांग्रेस का आयोजन होने वाला है। सभी हलकों में यह उम्मीद की जाती हैं कि उस पार्टी कांग्रेस से भी अगले पांच साल, 2027 तक के लिए शी जिन पिंग के हाथ में ही पार्टी और राज्य की कमान सौंपी जाएगी। अर्थात, सन् 2027 में, जब देंग के आर्थिक उदारतावाद के पचास पूरे होंगे, और जब से चीन के आगे के रास्ते के बारे में किसी अन्य निर्णायक कदम की बात कही गई थी, उस समय चीन का प्रकृत नेतृत्व शी के हाथ में ही होगा।

देंग श्याओ पिंग

हम नहीं जानते कि शी अभी जो कर रहे हैं, उसका वास्तव में देंग की परिकल्पना से जरा भी कोई रिश्ता है या नहीं। पर इस एक संयोग के नाते ही इसे विचार का प्रस्थान बिंदु बनाया ही जा सकता है।

शी ने बड़ी टेक कंपनियों के आर्थिक दुराचारों और चीन में बैंकों के कर्जों के साथ बड़े स्तर पर की जा रही धांधलियों पर नकेल कसने की बात करते हुए ही मार्क्सवाद और माओ के विचारों को भी याद किया है, और इस बात को दोहराया है कि चीन को समाजवाद के रास्ते पर ही दृढ़ता से अडिग रहना होगा। इसीलिए उनकी कार्रवाइयों को देंग के उस कथन से जोड़ कर देखना ज्यादा सही लगता है कि ‘अबाध आधुनिकीकरण और खुलेपन के पचास साल बाद हम यह विचार करेंगे कि चीन समाजवादी ही रहेगा या वह पूँजीवाद के लिए रास्ता छोड़ देगा’।

पूँजीवाद से मूल तात्पर्य है — बाजार अर्थ-व्यवस्था। ऐसी अर्थ-व्यवस्था जिसमें सिद्धांततः राज्य के हस्तक्षेप की कोई जगह नहीं होती है। कथित प्रतिद्वंद्विता और बाजार का मांग और आपूर्ति का सिद्धांत उसका एकमात्र चालक सिद्धांत होता है। पूँजी के आत्म-विस्तार के खेल को खुल कर खेलने दो ;समाज की जरूरतें नहीं, पूँजी की जरूरतें समाज के नियमों का निर्धारण करेगा — यही पूँजीवाद के संचालन का मूल मंत्र है। इसमें सामाजिक विषमता को कोई अभिशाप नहीं, बल्कि विकास का एक महत्वपूर्ण कारक माना जाता है। विषमता का अर्थ है एक ओर चंद हाथों में संपत्ति का संकेंद्रण और दूसरी ओर अभाव का निरंतर विस्तारवान व्यापक परिसर। यह अभाव की निरंतरता ही पूँजी की गतिशीलता के इंजन और ईंधन की तरह भी काम करती है।

इस मानदंड पर जब भी कोई आज के चीन पर नजर डालता है तो एक नजर में यही लगता है कि पिछले चालीस सालों में उत्पादन में सामान्य वृद्धि से वहाँ के जीवन की सामान्य समृद्धि में कुछ स्पष्ट सुधार नजर आने पर भी इसी दौरान सामाजिक विषमता का चेहरा इतना विकराल हो चुका है कि वह समानता पर आधारित न्यायपूर्ण समाज के मार्क्सवाद और उसके समाजवादी प्रकल्प को मुंह चिढ़ाता हुआ सा प्रतीत होता है। आज चीन और अमेरिका में संपत्ति के वितरण के स्वरूप में कोई बुनियादी फर्क नहीं रह गया है।

अमेरिका में भी ऊपर के एक प्रतिशत लोगों के पास राष्ट्र की संपदा के 30 प्रतिशत हिस्से की मिल्कियत है, तो चीन में भी इसका अनुपात हूबहू वही है। वहाँ भी तीस प्रतिशत संपत्ति का मालिक एक प्रतिशत तबका बना हुआ है। यह स्थिति तब भी यथावत बनी हुई है जब पिछले कुछ सालों से शिंग ही वहाँ एक न्यायपूर्ण समाज (fair society) की दिशा में सुनियोजित ढंग से बढ़ने की लगातार बातें कर रहे हैं। अर्थात् इन चालीस से ज्यादा सालों में पूँजीवाद ने चीन की अर्थ-व्यवस्था पर एक ऐसी जकड़बंदी कायम कर ली है, उसने अपने एक ऐसे पूरी तरह से स्वतंत्र व्यापक स्नायुतंत्र को बखूबी विकसित कर लिया है कि उस पर राज्य का नियंत्रण कारगर होता नहीं जान पड़ता है। पूँजीवाद की सारी नीतियों-नैतिकताओं ने समाज के तंत्र को लगभग अपनी शर्तों पर चलाना शुरू कर दिया है।

ऐसे में आज शी जिन पिंग का नए सिरे से सभी स्तर से भ्रष्टाचार को निकाल बाहर करने, बड़ी पूँजी के अपहरणकारी अभियानों के प्रति संदेह की दृष्टि रखते हुए उन्हें नियंत्रित करने, चिट फंड की तरह के व्यापार के पोंजी मॉडल पर खास तौर से प्रहार करने जिनसे बिल्कुल साधारण जनों के छोटे-छोटे संचय पर से हाथ साफ किया जाता है और समाज के हर स्तर पर समाजवाद के पक्ष में एक व्यापक विचारधारात्मक, नैतिक संघर्ष चलाने की बातों पर अधिकतम बल देने के उपक्रम को वैश्विक स्तर पर भी पूँजीवाद और समाजवाद के बीच के सनातन द्वंद्व के लिहाज से काफी दूरगामी महत्व का माना जा रहा है।

शी के इस नए अभियान को दुनिया के तमाम पूँजीवादी अर्थशास्त्री स्वाभाविक रूप में गहरे शक की निगाह से देख रहे हैं। चीन के जिस रास्ते ने पिछले चालीस साल में वहाँ की अर्थ-व्यवस्था का एक कायाकल्प सा कर दिया है, उसमें किसी भी प्रकार के अनायास हस्तक्षेप के आगे क्या-क्या परिणाम हो सकते हैं, न सिर्फ चीन के लिए बल्कि पूरी विश्व अर्थ-व्यवस्था के लिए भी, इसे अगर आज विचार का विषय नहीं बनाया जाता है, तो सचमुच किसी आर्थिक चिंतन का कोई मायने ही नहीं रह जाएगा।

चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी और सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थ-व्यवस्था है। कोरोना जैसी महामारी ने न सिर्फ उसकी जन-स्वास्थ्य सेवाओं और समग्र रूप से जन-कल्याण के ताने-बाने को मजबूत किया है, बल्कि एक प्रतिकूल विश्व-राजनीतिक परिवेश में भी कोरोना की चुनौतियों ने उसकी अर्थ-व्यवस्था को कहीं ज्यादा मजबूती प्रदान की है।

ऐसे में, चीन के राष्ट्रपति शी का किसी भिन्न रास्ते की ओर बढ़ने की बात करना किसी के भी लिए आशंका और संदेह दोनों का विषय हो ही सकता है।

शी चीन की इस नई परिस्थिति में मार्क्सवाद और समाजवादकी शक्ति को दिखाना और एक प्रकार से परखना भी चाहते हैं। मार्क्सवाद तथाकथित बाजार के नियमों की ‘स्वाभाविकता’ को कोई प्राकृतिक घटनाचक्र नहीं, बल्कि अर्थ-व्यवस्था की अपनी स्वाभाविकता में अप्राकृतिक हस्तक्षेप से कम नहीं मानता है। समाज की सामूहिक स्वाभाविकता में विषमता सिवाय एक विचलन के सिवाय कुछ नहीं है। सभ्यता और संस्कृति का विकास का अर्थ होता है सामाजिक गतिशीलता के बीच से सामने आने वाली विषमताओं के उन्मूलन की सतत कोशिश। पर पूँजीवाद सभ्यता के विकास का एक ऐसा चरण है जिसमें इस विषमता को ही प्रगति मान कर सचेत रूप में उसे साधा जाता है। पूँजी मनुष्यों के संसार के विरुद्ध अपना ही एक स्वतंत्र संसार तैयार करके उसके नियमों को समाज के नियमों पर बलात् आरोपित करती जाती है। यह समाज की प्रकृति के विरुद्ध पूँजी की प्रकृति का हमला है।

तमाम पूँजीवादी विचारधारात्मक अभियानों का सार होता है, विषमता और गैर-बराबरी की साधना। यहाँ तक कि वहाँ स्वतंत्रताएं भी गुलामी के बीज धारण किए होती है। इसके खिलाफ मार्क्स ने समाज को उसकी स्वाभाविक विकास की गति पर लाने और विषमताओं का अंत करते जाने के सतत क्रांतिकारी संघर्ष का जो रास्ता दिखाया था, समाजवाद उसी सभ्यता और संस्कृति का प्रकृत रूप है।

चीन के राष्ट्रपति जब मार्क्सवाद और समाजवाद की शक्ति को पूँजीवाद के खिलाफ लगाने के एक नए, सचेत अभियान की बात कहते हैं, तब उनका तात्पर्य यही होता है कि अर्थ-व्यवस्था को उसकी स्वाभाविक पटरी पर रखा जाए, उसे पूँजीवादी विचलन से यथासंभव बचाया जाए। संपत्ति के प्रमुख स्रोत प्रकृति और श्रम के बीच के अबाध संयोग को पूर्ण संरक्षण देते हुए ‘सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय’ के स्वाभाविक प्रवाह में अप्राकृतिक बाधाओं से समाज को मुक्त रखा जाए।

अमेरिकी अर्थशास्त्री डेविड कार्ड ने, जिन्हें इस साल के अर्थनीति के नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया है, अर्थ-व्यवस्था के प्राकृतिक स्वरूप पर अपने शोध से यह साबित किया है कि न्यूनतम वेतन में वृद्धि से रोजगार में कभी कोई कमी पैदा नहीं होती है। सच्चाई यह है कि उससे सिर्फ पूँजी के मुनाफे की दर में कमी आ सकती है। कार्ल मार्क्स ने अपनी ‘पूँजी’ के तीसरे खंड में सामान्य लाभ दर का अध्ययन करते हुए बार-बार यह साफ किया है कि “जब भी मजूरी बढ़ती है, लाभ दर गिरती है” और कह सकते हैं कि जब भी लाभ दर गिरती है, मजदूरी, आम लोगों की आमदनी बढ़ती है। बाजार में माल की कीमतों में वृद्धि का पूँजी की लाभ दर की मात्रा की कामना, अर्थात पूँजीवाद से संबंध है, न कि अर्थ-व्यवस्था की अपनी स्वाभाविकता से, जिसके लिए दुनिया की सारी पूँजीवादी सरकारें जनता के जीवन में भारी संकटों के काल में भी पुरजोर प्रचार करती हैं कि वे अर्थ-व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं करना चाहती।

बहरहाल, एक जमाना था जब चीन में इतनी गरीबी थी कि वहाँ एक उपलब्ध ‘केक’ के समान वितरण के बारे में बातें हुआ करती थी। इसमें परिवर्तन के लिए तीव्रता से उत्पादन में वृद्धि जरूरी थी। दुनिया में उपलब्ध तमाम संसाधनों का इसमें योगदान लेने की जरूरत थी। पर आज परिस्थिति भिन्न है। चीन ने अपने देश से गरीब के अंत की घोषणा कर दी है। उसके सामने अब एक केक के वितरण वाली समस्या नहीं है। उसकी केक इतनी बड़ी हो चुकी है कि उससे सामान्य समृद्धि के लक्ष्य को साधा जा सकता है। केक वाली बहस वहाँ पीछे छूट गई है। और,‘समानतापूर्ण वितरण’, न्यायपूर्ण समाज के निर्माण की समस्या प्रमुख हो गई है। समय के साथ परिस्थितियों के विकास ने इस न्यायपूर्ण समाज के लक्ष्य को साधने के रास्ते को बहुत अधिक जटिल और दुर्गम बना दिया है। सच कहा जाए तो वहाँ निजी पूँजी के अंत का मार्क्सवादी लक्ष्य लगभग पहेली प्रतीत होने लगा है।

चीन के समाज के इस यथार्थ को समझते हुए ही शी ने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को याद दिलाया है कि उन्हें याद रखना चाहिए कि मार्क्सवाद और माओ के विचारों के आधार पर बनी पार्टी का गठन किस उद्देश्य से हुआ था? आज वे कौन सी चीजें है जो इस लक्ष्य के सामने पहाड़ समान बाधा का रूप ले चुके हैं? वे चाहते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी को उन सबकी शिनाख्त करते हुए उनकी जकड़नों से अर्थ-व्यवस्था और पूरे समाज को अधिकतम मुक्त करना होगा।

चीन इस दिशा में आगे कौन से ठोस कदम उठाता है, यह देखने की बात होगी। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को अब तक नियंत्रित ढंग सेव्यापक सामाजिक उथल-पुथल को संचालित करने और उसके बीच से राष्ट्र को मजबूत करने का लंबा अनुभव मिल चुका है। इस साल रोम के जिन वैज्ञानिक प्रोफेसर जार्जिया पैरिसी को भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला है, उनका अध्ययन इस बात पर है कि पिंड से लेकर ब्रह्मांड तक की अटूट दिखाई देती किसी भी व्यवस्था के मूल में अव्यवस्था ही सबसे मजबूत चुंबक के रूप में काम करती है।  व्यवस्था नहीं, अव्यवस्था ही शाश्वत है। व्यवस्था तो उसका एक सामयिक उत्पाद भर है। एक चरण। उन्होंने ही ‘स्पिन ग्लास’ के उन सिद्धांतों पर काम किया था जिनसे शीशे के रूप को बनाए रखते हुए भी उसमें गुणात्मक परिवर्तन संभव होते हैं। टफेंड ग्लास जैसे सारे प्रयोग इन्हीं सिद्धांतों से चालित होते हैं।

इसमें सिर्फ गौर करने की बात यह है कि यह टफेंड ग्लास अपनी भारी मजबूती के बावजूद जब किसी झटके से टूटता है तो उसके क्रिस्टल इस प्रकार बिखर जाते हैं कि उन्हें फिर से जोड़ पाना असंभव होता है। पैरिसी ने तमाम चीजों में इस प्रकार के अव्यवस्था के सचेत प्रयोग की हद के माप के तरीके पर काम किया, जिसके लिए उन्हें नोबेल दिया गया है। इसमें चूक किसी भी व्यवस्था के लिए आत्मघाती साबित हो सकती है।

बड़ी पूँजी और उसके तंत्र पर नियंत्रण के अपने तमाम प्रयोगों में चीन के कम्युनिस्ट नेतृत्व को इस प्रकार के फौलादी शीशे को तैयार करने के सचेत प्रयोगों की सीमाओं के प्रति भी पूरी तरह से जागरूक रहना होगा। पैरिसी ने ही यह भी दिखाया है कि इस जगत में कोई भी चीज असंबद्ध नहीं है। आदमी के स्नायुतंत्र से लेकर पूरी ब्रह्मांडीय व्यवस्था तक, सब ऐसे सूत्र में गुँथे होते हैं कि स्ट्रिंग सिद्धांत के अनुसार तितली के पंख की फड़फड़ाहट से ही उनमें हमेशा एक खलबली मची रहती है।

बहरहाल, चीन में पुलिस, खुफिया विभाग, न्यायपालिका और जेलों की व्यवस्था में व्यापक भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए हजारों कर्मचारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाइयों से लेकर वहाँ की एक सबसे लोकप्रिय अभिनेत्री झेन शुआंग पर 46 मिलियन डालर का जुर्माना, भीमकाय रीयल स्टेट कंपनियों के वित्तीय कदाचार को पकड़ने आदि की तरह के बहुचर्चित कदमों के अलावा आगे विचारधारात्मक संघर्ष के जिस व्यापक अभियान की एक रूपरेखा का राष्ट्रपति शी ने इसी बीच जो संकेत दिया है, वह बताता है कि उनकी नजर में पूँजीवाद के आर्थिक प्रसार से लेकर उसके द्वारा पैदा की जा रही सांस्कृतिक चुनौतियों का भी एक पूरा परिदृश्य स्पष्ट है। वे आधार और अधिरचना के द्वंद्वात्मक संबंधों के सच को जानते हैं और विषय को सिर्फ अर्थ-व्यवस्था के किसी एक सवाल तक सीमित रखना नहीं चाहते। वे इस बीच जीवन के सभी क्षेत्रों पर जो गर्दो-गुबार जम गई है, जिसके नीचे समाजवाद की चमक मलिन नजर आती है, उस गर्द को झाड़ने का अभियान चलाना चाहते है। जाहिर है कि इसमें बहुतों को पार्टी के अंदर ‘पूँजीवादी रास्ते के पथिकों’ के खिलाफ माओ की सांस्कृतिक क्रांति की एक झलक भी दिखाई दे सकती है।

बाजारवाद के खिलाफ शी जिन पिंग की इस मुहिम के जिस एक पहलू से हम जैसे भारत के लोगों के कान खड़े हो जाते हैं, वह है मोरल पुलिसिंग, नैतिक निगरानी का पहलू। इस प्रकार की पुलिसिंग के साथ आम तौर पर जुड़ा हुआ एक प्रकार का संरक्षणवादी नजरियां हमारे लिए किसी भी प्रगतिशील रूपांतरण की दृष्टि से बेहद अटपटी सी चीज है। भारतीय समाज का समग्र ढांचा बिल्कुल प्रारंभ से ही इतना वैविध्यपूर्ण, सामंजस्य तथा सहानुभूति पर टिका रहा है जिसमें बराबरी के नाम पर भी किसी भी प्रकार के ‘यकसापन’ की कल्पना ही हमारे अंदर एक गहरी वितृष्णा का भाव पैदा करती है। भारतीय मन ऐसे सर्वाधिकारवाद को कभी स्वीकार नहीं सकता है जो जीवन के हर क्षेत्र को अपने ही नियत मानदंडों पर ढालने की जिद लिए हुए हो।

इस मामले में भारत सचमुच ऐसा प्राकृतिक समाज है जिसमें अव्यवस्था ही व्यवस्था है, और वही इस समाज की आंतरिक शक्ति भीहै। यह विश्वकुटुंबकम् के सिद्धांत का देश, अपने अंतर से एक संघीय राज्य है। अगर वह नहीं है तो हम कह सकते हैं कि भारत ही नहीं है। हमारा आधुनिक राजनीति का समग्र अनुभव भी यही दिखाता है कि जब भी किसी केंद्रीय शक्ति ने इसपर किसी भी प्रकार के यकसापन के फार्मूले को लादने की कोशिश की है, तभी राष्ट्र अंदर से कमजोर हुआ है और उसमें बिखराव की दरारें उभरने लगती है।

खुद चीन में बमुश्किल 10-12 लाख वीगर मुसलमानों, तिब्बत, और हाँगकांग का अनुभव भी यही जाहिर करता है कि इतना शक्तिशाली और समर्थ होने पर भी वह इन समस्याओं का अब तक कोई सहज निदान नहीं ढूंढ पाया है। चीन की समृद्धि का लालच भी उन्हें अपनी पहचानों को छोड़ने के लिए मजबूर नहीं कर पाया है। चीन आज ताइवान का अपने में विलय चाहता है। पर इस दिशा में वह जल्दबाजी से सिर्फ इसीलिए बचना चाहता है क्योंकि ‘एक राज्य और दो व्यवस्थाओं’ के हाँगकांग के अनुभव में इसी प्रकार की जल्दबाजी के चक्कर में वह अभी अपने हाथ जला रहा है।

जो भी हो, मोरल पुलिसिंग, एक ‘आज्ञाकारी समाज’के गठन के लिए विचारधारात्मक संघर्ष की अवधारणा की पता नहीं चीनी सभ्यता का इतिहास कितनी अनुमति देता है, कितनी नहीं। पर हम भारत के लोगों के लिए यह एक त्याज्य विचार है। हम मतभेदों को कायम रखते हुए अपने राष्ट्र को मजबूत करने के सिद्धांत को ज्यादा सही और वैश्विक परिप्रेक्ष्य में ज्यादा संगतिपूर्ण मानते हैं।

शी जिन पिंग का पूँजीवादी बाजारवाद के विरुद्ध एक प्रकार के समाजवादी आर्थिक प्रकृतिवाद का नारा भी इसीलिए हमारे अंदर गहरे समर्थन का भाव पैदा करता है क्योंकि प्रकृति का नियम किसी जोर-जबर्दस्ती से नहीं चलता है। वह पूरे समाज की समान भागीदारी का नियम है, वह समाजवाद का मूल मंत्र है। वही प्रकृति में पूँजीवादी बलात् हस्तक्षेप का प्रतिकार है। इस प्रतिकार में किसी भी प्रकार के ‘यकसापन’ का अभियान ‘प्रतिकार के प्रतिकार’ के रूप में काम करेगा। चीन के समाजवाद को अगर कहीं से कोई खतरा पैदा होगा, तो कहना न होगा, वह वहीं से होगा

.

Show More

अरुण माहेश्वरी

लेखक मार्क्सवादी आलोचक हैं। सम्पर्क +919831097219, arunmaheshwari1951@gmail.com
5 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x