हिन्दी हैं हम, वतन नहीं
कुछ समय पहले देश के टॉप विश्वविद्यालयों की सूची में शामिल एक विश्वविद्यालय में मैंने सह-आचार्य पद के लिए आवेदन किया था। जब साक्षात्कार की प्रक्रिया शुरू हुई और साक्षात्कार के लिए योग्य अभ्यर्थियों की सूची जारी हुई, तब उसमें मेरा नाम शामिल ही नहीं था। जब मैंने यह देखा तो मैंने अपनी दावेदारी पेश करते हुए संबंधित विश्वविद्यालय प्रशासन को ई-मेल भेजा और जवाब का इंतजार करती रही। सबसे बड़ी बात कि दिल्ली में स्थित यह विश्वविद्यालय अभ्यर्थियों को दिल्ली पहुंचने के लिए एक सप्ताह तक का समय नहीं दिया। खैर, कहते हैं अल्ला मेहरबान तो गधा भी पहलवान, ये तो फिर भी बड़े-बड़े आर्शीवाद प्राप्त लोग हैं। चूंकि, इतने कम समय में दिल्ली पहुंचना बेहद मुश्किल था, इसलिए मैंने ऑनलाइन ही साक्षात्कार देना तय किया। साक्षात्कार वाले दिन मैं ऑफिस से छुट़टी लेकर घर पर ही रूकी रही। लेकिन मुझे विश्वविद्यालय के तरफ से दोपहर 12 बजे तक कोई सूचना नहीं दी गई कि मुझे साक्षात्कार में शामिल होने की अनुमति मिली कि नहीं? थक-हार कर मैंने फिर भर्ती प्रकोष्ठ में फोन करके जानकारी ली, तब पता चला कि मुझे साक्षात्कार की अनुमति दे दी गई है। देश के सर्वोच्च विश्वविद्यालय में भर्ती की ऐसी प्रक्रिया देखकर मैं अचंभित थी।
इन सबसे मन बिल्कुल खिन्न हो गया था और ऐसा लग रहा था कि सिर्फ खानापूर्ति हो रही है। फिर भी इतने मशक्कत के बाद साक्षात्कार के लिए अनुमति मिली थी, तो मैं उसे छोड़ना नहीं चाहती थी। इसलिए पूरी सिद्दत से साक्षात्कार देने का इंतजार करती रही। काफी इंतजार के बाद मेरा नंबर आया। जैसे ही वीडियो ऑन किया, मैंने देखा वही कुछ पुराने चेहरे साक्षात्कार पैनल में शामिल थे, जो देश के लगभग अधिकांश विश्वविद्यालयों में विशेषज्ञ के रूप में प्रायः जाते रहते हैं।
जैसे ही मेरा साक्षात्कार शुरू हुआ, मैंने सभी को नमस्ते किया। मेरे नमस्ते करते ही ऐसा लगा, जैसे मुझसे कोई अपराध हो गया हो। मैं कुलपति के हाव-भाव को देखकर काफी नर्वस हो गयी। उन्होंने बेहद गुस्से भरे लहजे में कहा “डोंट स्पीक इन हिन्दी। इट्स टॉप यूनिवर्सिटी ऑफ इंडिया। हियर ओनली इंग्लिश इज अलाउड।“ मैंने बोला “ओके मैम।” फिर मैंने अंग्रेजी में जवाब देना शुरू किया और अंग्रेजी में ही यह भी कहा कि कभी भी भाषा किसी भी कार्य में बाधा नहीं बन सकती, यदि आपमें मजबूत इच्छाशक्ति हो। पूरे साक्षात्कार के दौरान कुलपति का जो रवैया था, वह कहीं से भी कुलपति पद की गरिमा के अनुरूप नहीं प्रतीत हो रहा था। अंततः आहत होकर मैंने उन्हें बोल भी दिया कि चयन होना न होना अलग बात है, लेकिन आप जिस तरीके का व्यवहार कर रही है, वह बेहद निराशाजनक है। सबसे बड़ी बात संबंधित कुलपति द्वारा लिखित एक आवेदन साक्षात्कार के कुछ समय पूर्व ही फेसबुक पर तेजी से वायरल हुआ था, जिसमें दसों गलतियां रेखांकित की गयी थी।
यह सिर्फ एक विश्वविद्यालय की बात नहीं है, जितने भी विश्वविद्यालयों में साक्षात्कार के लिए जाती हूँ, वहां पहला सवाल यही होता है कि “कैन यू स्पीक इन इंग्लिश?” इट्स सेंट्रल यूनिवर्सिटी, वेयर यू विल हैव टू टीच इन इंग्लिश।” इस प्रकार हम अपने ही देश में अपनी राजभाषा को लेकर हीनताबोध से ग्रसित महसूस करने लगते हैं और एक विदेशी भाषा में निपुणता हासिल करने के सपने देखने लगते हैं।
एक तरफ तो सरकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति के माध्यम से हिन्दी और अन्य राष्ट्रीय भाषाओं में पठन-पाठन की बात कह रही है। वहीं, दूसरी तरफ भारतीय भाषाओं में अध्ययन सामग्री न के बराबर है। बिना सही रणनीति और सुविधा के राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करना बेहद मुश्किल भरा कदम है। साथ ही इस देश में आज भी एक विदेशी भाषा, अर्थात अंग्रेजी को जिस तरह का महत्व दिया जा रहा है, जिस तरीके से अंग्रेजी स्कूल खोले जा रहे हैं, वह हिन्दी के लिए बेहद निराशाजनक है। हम क्यों अपने ही देश में विदेशी भाषा बोलने के लिए बाध्य किये जाते हैं?
एक तरफ तो जैसे ही विपक्ष ‘इंडिया’ नाम के बैनर तले एकजुट हुए, वैसे ही भारत बनाम इंडिया पर बहस छिड़ गयी। दूसरी ओर सरकार में शामिल कुछ मंत्रियों द्वारा सिर्फ अंग्रेजी में बात करना, विदेशी रहन-सहन अपनाना निरंतर देखा जा सकता है। इस देश में आज भी कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका में काम-काज की भाषा अंग्रेजी ही है। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि न्यायालय तक में आम जनता की भाषा को आजतक लागू न करके विदेशी भाषा में सुनवाई की जाती है। अंग्रेजी शराब से लेकर, तमाम विदेशी वस्तुओं का खूब उपभोग किया जाता है, उस पर क्यों बहस नहीं छिड़ती? उस पर क्यों नहीं रोक लगाया जाता है? फिर इंडिया बनाम भारत पर इतनी चर्चा क्यों?
भारत सरकार के उच्च शिक्षा विभाग के तहत 1957 में नेशनल बुक ट्रस्ट की स्थापना की गई थी। भारतीय भाषाओं में समाज में पढ़ने की रुचि बढ़ाने के लिए विभिन्न स्तरों पर काम करना इसके मुख्य उद्देश्यों में शामिल है। यह हर वर्ष नई दिल्ली में विश्व पुस्तक मेले का आयोजन करता है। ट्रस्ट देश भर में प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर के किताब मेले और प्रदर्शनी का भी आयोजन करता है। 9 सितंबर 2023 को मीडिया स्टडी ग्रुप के वेबसाइट पर राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के एक सर्वे के हवाले से भारतीय भाषाओं में प्रकाशन को लेकर एक रिपोर्ट प्रकाशित की गयी है, जिसमें पुस्तक मेले में भारतीय भाषाओं की स्थिति पर प्रकाश डाला गया है।
इसमें बताया गया है कि मेले में गायब होने वाली भारतीय भाषाओं में असमिया इस वर्ष शामिल हो गई। उत्तर पूर्व के राज्यों की बड़ी भाषा असमिया की उपस्थिति अनुपस्थिति में परिवर्तित दिखाई देती है। कश्मीरी, मैथली में भी कोई सुधार दिखाई नहीं देता है। तेलगू अनुपस्थिति को उपस्थिति के रूप में दर्ज भर कराती है, लेकिन तमिल की संख्या पिछले मेले की तुलना में केवल पच्चीस प्रतिशत रह गई। उड़िया की संख्या भी दो से एक हो गई। सिंधी और संस्कृत की उपस्थिति में थोड़ा सुधार दिखाई दिया। पिछले कई वर्षों से पुस्तक मेले में भारतीय भाषाओं के प्रकाशकों की हिस्सेदारी कम होती जा रही है। प्रकाशन में भारतीय भाषाओं के प्रकाशनों की स्थिति कमजोर होती जा रही है। विश्व पुस्तक मेले में भाषाओं के जरिये भारत अपने मुक्कमल रूप में उपस्थित नहीं दिखता है। भाषावार प्रकाशनों में बड़े प्रकाशकों के व्यवसाय का विस्तार हुआ है। लेकिन भाषाओं के प्रकाशनों की वास्तविक संख्या में बढ़ोतरी नहीं देखने को मिल रही है।
इस देश में अधिकांश हिन्दी लेखकों की स्थिति भी बेहद ख़राब है। कड़ी मेहनत के बावजूद मेहनताना तक नहीं दिया जाता। उनकी मेहनत की कमाई प्रकाशक खाते हैं, लेकिन लेखकों को रॉयल्टी देना तो दूर, उल्टा पैसा लेकर कृतियां प्रकाशित करने का धंधा बना लिया गया है। ऐसी स्थिति में हिन्दी कैसे जन जन की भाषा बन पायेगी? हिन्दी को लेकर जिस तरह की स्थिति इस देश में व्याप्त है, वह एक ओर तो हमें हिन्दी की बढ़ती संभावनाओं की तरफ आकर्षित करती है। वहीं, दूसरी तरफ जब अंग्रेजी माध्यम में रोजगार के साधन तथा अपने देश में अंग्रेजी के प्रति लोगों के रुझान और महत्व को देखते हैं तो वह घोर चिंता का विषय बन जाता है। अंग्रेजी विद्यालयों का बढ़ता वर्चस्व तथा अंग्रेजी के बढ़ते चलन ने हिन्दी के प्रति लोगों को कमजोर कर दिया है। ऐसी स्थिति में हिन्दी अपने देश में सर्वोच्च स्थान तभी प्राप्त कर पायेगी, जब इसे व्यवहारिकता में लाया जाएगा। अंग्रेजी बोलने और अंग्रेजी में पढ़ने-पढ़ाने की बाध्यता ख़त्म की जाएगी। हिन्दी में पर्याप्त अध्ययन-अध्यापन के सामग्री होंगे। साथ ही अंग्रेजी को स्टेटस सिंबल का परिचायक नहीं बनने दिया जाएगा। अन्यथा की स्थिति में हम अपने ही देश में हिन्दी दिवस मनाने को बाध्य होते रहेंगे।