हिन्दी पट्टी की नयी स्त्रीवादी सामाजिकी
हिन्दी पट्टी में स्त्रियों की स्थिति एवं उभरते हुए स्त्रीवादी विमर्श को समझना दरअसल लोक और संस्कृति के ताने-बाने को समझना है । हालांकि, इस समाज में स्त्रियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है एवं वे समस्त सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों की धुरी मानी जाती रही हैं। ऐसा माना जाता है कि माँ बच्चे की प्रथम पाठशाला होती है जो बच्चे के मन में सामाजिक जीवन का संस्कार भरती है। हिन्दी पट्टी का समाज अपने आदर्श स्वरूप में स्त्री पूजक समाज है जो अनादिकाल से देवियों के रूप में स्त्रियों की पूजा करता आया है। परन्तु, वास्तव में हिन्दी समाज अपनी स्त्रियों के प्रति कितना संवेदनशील है और उन्हें बराबरी का दर्जा देते हुए ,उनकी प्रतिभा का कितना सम्मान करता है, यह स्त्रियों की सामाजिक स्थिति के मूल्यांकन के संदर्भ में अनिवार्य परन्तु जटिल प्रश्न है। सामाजिक व्यवस्था में लोकतांत्रिक आदर्शों की तलाश रोजमर्रे के जीवन में कठिन है क्योंकि लोकतंत्र की संकल्पना जब विभिन्न सामाजिक संरचनाओं यथा जाति, वर्ग, धर्म, लिंग इत्यादि से टकराती है, तब कई विषमताओं को जन्म देती है जिसमें एक है ‘स्त्री-पुरुष समानता का अधिकार’।
वर्तमान दौर में हिन्दी समाज की स्त्रियाँ घर और बाहर के दायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वाहन कर रही हैं। उनसे परिवार एवं समाज को बहुत अपेक्षाएँ हैं परन्तु स्त्रियों द्वारा की गयी अनगिनत कोशिशों के बावजूद भी वे समाज में अपना अपेक्षित स्थान हासिल नहीं कर पायी हैं। वे अपनी पहचान बनाने की जद्दोजहद से लगातार गुजर रही हैं। आज भी, उन्हें निजी सम्बन्धों,पारिवारिक दायित्वों तथा कार्यस्थल पर स्वयं को प्रमाणित करने की आवश्यकता पड़ती है। हम उनकी केंद्रीय भूमिकाओं के साथ उन्हें स्वीकार तो करते हैं पर उनकी सामाजिक स्थिति को परिधि पर ही बनाए रखते हैं।
हिन्दी पट्टी में परिवार की धुरी समझे जाने वाली स्त्री की स्थिति दरअसल कोल्हू के उस बैल की तरह है जो अपने केन्द्र की परिधि में चक्कर लगाता रहता है। बचपन से आज तक हमने अपने आस-पास की स्त्रियों को प्रसन्नचित्त भाव से घर का काम-काज सम्भालते और पारिवारिक रिश्तों में प्रेम-सौहार्द बनाए रखने के लिए सामंजस्य बिठाते हुए ही देखा है। अपने अधिकारों और लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए लड़ती हुई स्त्री हमें अपवादस्वरूप ही देखने को मिलती है। वे माँ, पत्नी, प्रेमिका, बहन, दादी, नानी जैसे अनेक रूपों में सदियों से अपनी भूमिका निभाती आयी हैं। बावजूद इसके, उनकी नोक-झोंक, लड़ाई और तनावों के किस्से ननद-भौजाई, सास-बहू, देवरानी-जेठानी, सौतनों और पड़ोसिनों के रूप में हमारे लोकगीतों, कहानियों और किंवदंतियों में दर्ज हैं। हम गाहे बेगाहे कोप भवन में बन्द होकर अपनी बेसिर-पैर की जिद मनवाने वाली उन धूर्त स्त्रियों की कहानियाँ सुनते हुए बड़े हुए हैं जो पुरुषों को अपने वश में कर लिया करती थीं। ये चुड़ैलों, डायनों, भूतनियों और काला जादू कर देने वाली टोनहिनों के रूप में आकर हमें बचपन से सपनों में डराती रहीं है लेकिन हमें कभी भी दो पुरुषों की नोक-झोंक के किस्से चटखारे के रूप में जीभ का स्वाद बदलने के लिए भी देखने-सुनने को नहीं मिलते। पराक्रमी पुरुषों के बीच युद्ध होता हैं, अदालतें होती हैं और मार-काट होती है। वे इतिहास में दर्ज होते हैं और हमारे नायक बनते हैं। जिनके शौर्य की कहानियाँ सुनकर हमारे अन्दर एक योद्धा पुरूष जन्म लेता है, मनुष्य नहीं।
हिन्दी समाज में स्त्रियों को प्रेम, सम्मान, संरक्षण और देखभाल के योग्य तो माना जाता है परन्तु उनके विवेक और तर्क पर भरोसा जताने की परम्परा नहीं रही है। इसकी स्पष्ट झलक हमें अपने लोकगीतों और मुहावरों में देखने को मिलती है :जोरू जमीन जरके नहीं तो किसी और के, स्त्रियों को नाक नहीं होती तो वह मैला खातीं, स्त्री की बुद्धि से चलने वाला घर और पुरूष नष्ट हो जाते हैं, स्त्री और धन सम्भाल कर रखने की चीज है, दुनिया में सारे युद्ध स्त्रियों की बुद्धिहीनता के कारण हुए हैं, आटा जितना माड़ो और औरत जितना काड़ो, आपन हरल मेहरी के मारल,मेहरबुद्दि के कमाई, मेहरमाउग हो गइल इस तरह की अनेक लोक अभिव्यक्तियाँ हमारे मानस को रचने एवं महिलाओं के प्रति विद्वेषपूर्ण वातावरण को निर्मित करने में अपनी महती भूमिका निभाती हैं। जो समाज स्त्रियों को उनके विवेक और तर्क की कसौटी पर हमेशा कमतर आंकता आया हो, वह मनुष्य के रूप में उनकी प्रतिभा को स्वीकार कर उन्हें बराबरी का दर्जा देने की स्थिति में आ चुका है, यह कोरी कल्पना है। लोकमानस में रचे-बसे इन जेंडर पूर्वाग्रहों को प्रश्नांकित करता हुआ ,भाषा एवं लोक व्यवहार को पुनर्निर्मित करता स्त्रीवाद ही इस व्यवस्था का विकल्प है।
हिंदू समाज में गृहस्थी की संकल्पना में गृहस्वामी एवं गृहणी की भूमिकाएँ प्राचीनकाल से अधिकार एवं कर्तव्य पर केंद्रित रही हैं। गृहस्थ आश्रम को जीवन के चार आश्रमों में द्वितीय स्थान पर रखा गया है। ‘गृहस्थ’ शब्द की उत्पत्ति ‘गृह’ से मानी जाती है जिसका क्रमशः अर्थ है घर और घर का स्वामी। यह वह स्थान है जहाँ मनुष्य के सामाजिक, भावनात्मक, यौनिक तथा वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। परिवार से अलग व्यक्ति की आवश्यकताओं को प्राथमिकता नहीं दी जाती। गृहस्थी का कर्ता-धर्ता पुरूष होता है एवं स्त्रियाँ परिवार के सभी सदस्यों की देखभाल करती हैं। बावजूद इसके,गृहस्थ आश्रम नामक इस संस्थान में पुरुषों एवं स्त्रियों को बराबरी का दर्जा हासिल नहीं है।
नियति पंडया और भानगांवकर द्वारा लिखित आलेख “ईक्वल बट डिफरेंटडिफरेंट: व्यूज ऑन जेंडर रोल एँड रिस्पोंन्सिबिलिटिस अमाँग अपर क्लास हिंन्दू इंडियन्स इन स्टैब्लिस्ड अडल्टहुड” में पारिवारिक व्यवस्था में स्त्री-पुरूष समानता के मनोवैज्ञानिक पक्ष की जांच करते हुए कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदुओं को उभारा गया जिसमें समानता, बुद्धिमता, सम्भावना, मूल्य, परिवार के प्रति उत्तरदायित्व, भिन्नता, भावनाएँ, मिजाज, सोच, प्राथमिकताएँ, जेंडर की निर्मिति, भूमिका एवं दायित्व इत्यादि के माध्यम से समानता के स्तर की जाँच की गयी। इस कार्य के परिणाम रोचक हैं। स्त्रियाँ हर क्षेत्र में पुरूषों से अधिक योगदान कर रही थीं लेकिन इसके बावजूद भी पारीवारिक व्यवस्था में संसाधनों एवं अवसरों में समानता नहीं है।
हिन्दी पट्टी में पारिवारिक व्यवस्था के अन्दर भोजन बनाने एवं सबको स्वादिष्ट और पौष्टिक थाली परोसने का कार्य स्त्रियाँ सालों से करती आयी हैं क्योंकि कहा जाता है कि माँ के हाथों का स्वाद जीवन भर याद रहता है, स्त्रियाँ अन्न्पूर्णा होती हैं, घर की देहरी छोड़ती हुई बेटी मायके में अन्न-धन बने रहने की कामना में अंजुरी भर-भर अनाज छिंटती जाती हैं परन्तु स्वयं की थाली उसके खाली मन की तरह होती है। जो मिला, उसी से संतुष्ट, उसी में खुश। मुझे बचपन का एक दृश्य याद आता है : मैं हमेशा अपनी दादी को घर के किसी कोने में बैठकर अकेले खाते देखती थी। वे अपने आँचल से अपनी थाली ढंके रखतीं। पूछने पर कि ऐसा क्यों है, वह मुस्करा कर जवाब देतीं ‘औरतों को मुँह पसार कर सबके सामने नहीं खाना चाहिए’। भोजपुरी प्रदेशों में मैं उन्हीं की तरह अन्य औरतों को भी बिना सब्जी, दाल, सलाद के सिर्फ अचार और चटनी के साथ चावल सान कर खाते और फिर शाम का भोजन बनाने में जुट जाते देखकर बड़ी हुई। समाज में स्त्रियों को चटोरी और तीखा अचार पसंद करने वाली के रूप में क्यों प्रस्तुत किया जाता है, इसका मर्म हमें उनकी रोजमर्रे की जिंदगी और भोजन की उपलब्धता के गणित को देखने के बाद समझ में आता है। आज भी हमारे समाज में असंख्य घरों में स्त्रियाँ पुरूषों का भोजन के समाप्त होने के बाद खाती हैं। सालों से उनके थाली का समाजशास्त्र बिगड़ा हुआ है जिसने कई पीढ़ियों से स्त्री शरीर के गठन, कद और सेहत(बॉडी मास इंडेक्स) को प्रभावित किया है। रसोईघर में उपलब्ध खाद्य संसाधनों पर स्त्री-पुरूष दोनों का बराबर हक है बल्कि स्त्रियों का अधिक क्योंकि उन्हें स्वयं स्वस्थ रहकर अगली स्वस्थ पीढ़ी पैदा करनी है। इन सभी बातों को जानते हुए भी वे अपने शरीर और जरुरतों के प्रति उपेक्षा का भाव अपनाती हैं। परम्परा से अधुनिकता की लम्बी यात्रा के बाद भी स्त्रियों की इस मनःस्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया है। खुद से ही अनभिज्ञ बने रहना, अपनी उपेक्षा करना, अपनी सशक्त उपस्थिति का दावा न पेश करना, हर परिस्थिति में स्वयं को ढाल लेना स्त्रियों को इस सामाजिक व्यवस्था ने ही सिखाया है। नये उभरते हुए स्त्रीवाद के समक्ष सबसे प्रांभिक चुनौती इस स्त्री समूह में स्त्रीवादी चेतना (feminist consciousness) का प्रसार है। हिन्दी पट्टी की स्त्रियों के मनोविज्ञान को समझने के लिए पाश्चात्य नहीं, बल्कि विशुद्ध देशज राजनीतिक चेतना (Political consciousness) के सूत्र तलाशने होंगे तभी भारतीय स्त्रीवाद स्त्री विषयक प्रश्नों को संबोधित करने एवं उसके समाधान के रास्ते तलाशने सफल होगा।
भारत में गंभीर अकादमिक चिंतन के रूप में भारतीय स्त्रीवाद का इतिहास तलाशने का प्रयास अपेक्षित रूप से नहीं हुआ है। आमतौर पर अत्यंत सतही टिप्पणी के रूप में इस पर पाश्चात्य दर्शन से प्रभावित होने एवं उसका अनुकरण करने के आरोप लगते रहे हैं जबकि सत्य यह है कि भारत में स्त्रीवाद का इतिहास अत्यंत ही प्राचीन है। इसका पहला दृष्टांत हमें गौतम बुद्ध एवं उनके शिष्य आनंद के संवाद से प्राप्त होता है जब वे बौद्ध धर्म में स्त्रियों के प्रवेश के लिए गौतम बुद्ध से अनुरोध करते हैं और स्त्रियों के धम्म में प्रवेश तथा निर्वाण प्राप्त करने के अधिकार के सम्बन्ध में अपना तर्क प्रस्तुत करते हैं। इस दृष्टि से आनंद को भारत का ‘पहला स्त्रीवादी’ कहा जा सकता है। कालांतर में भी हमें अनेक विदुषियों यथा गार्गी, मैत्रेयी, घोषा, उपाला, शर्मिष्ठा, रोमशा, लोपामुद्रा, सिक्ता, रत्नावली इत्यादि के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है जिन्होंने अपनी विद्वता से अपने समकालीन पुरुषों को बौद्धिक स्तर पर पराजित किया एवं समाज में अपना स्थान निर्मित किया। भारत में स्त्रियों की ज्ञान परम्परा की एक लंबी शृंखला रही है जिसे जानना अत्यंत रोचक एवं स्वयं को समृद्ध करना है। स्वतंत्रता से पूर्व एवं स्वतंत्रता के उपरांत अनेक स्त्रियों ने स्त्री प्रश्नों पर चिंतन एवं सामाजिक योगदान किया। उन्नीसवीं सदी में यूरोपीय देशों की स्त्रीवादी विदुषियों यथा मेरी वुल्सटनक्राफ्ट, हेरियट टेलर मिल, बेट्टी फ्रीडन, जिन एलिजाबेथ, एलिजाबेथ कैडी स्टैटोन, सूसन बी. एँथनी के समकालीन के रूप में भारत में पंडिता रमाबाई, सावित्रीबाई फुले, ताराबाई शिंदे, काशीबाई कानिटकार, रमाबाई रानाडे, फातिमा शेख, डॉ. आनंदीबाई जोशी जैसी स्त्रियाँ थीं जिन्होंने आधुनिक भारत में महिला आंदोलन की नींव रखी। भारत में स्त्रीवादी विमर्श का लक्ष्य था भारतीय पितृसत्तात्मक परम्पराओं, धार्मिक प्रथाओं और कर्मकांडों से स्त्रियों को मुक्ति दिलाना। उन्होंने स्त्री के मानवाधिकारों और शिक्षा के अधिकार के लिए संघर्ष किया।
भारत में स्त्रीवादी चिंतन के मूल्यांकन की कोई सम्यक कसौटी अभी भी हमारे पास उपलब्ध नहीं है और गंभीर अकादमिक चिंतन के रूप में भारतीय स्त्रीवाद का इतिहास तलाशने का प्रयास अपेक्षित रूप से नहीं हुआ है। आमतौर पर यह माना जाता रहा है कि इस प्रकार के अस्मितामूलक विमर्शों की भारत में कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि हमारी संस्कृति में स्त्रियों को सम्मानजनक स्थान दिया जाता है। भारतीय संदर्भों में स्त्रियों के लिए अधिकार, समानता, समता, संघर्ष एवं शोषण जैसे शब्दों का प्रयोग प्रासंगिक नहीं माना जाता है। कई बार इसके प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण भी उभरता है जो मानता है कि स्त्रीवाद समग्र एवं समावेशी समाज की संकल्पना के विपरीत एकांगी विमर्श को स्थापित करने का विखंडनवादी प्रयास है। विचारणीय प्रश्न यह है कि सांस्कृतिक जीवन में गहरे जड़ जमाए सामंती बोध वाले हिन्दी पट्टी में स्त्री प्रश्नों एवं स्त्रीवाद के प्रति संवेदनशील विमर्श की प्रस्थापना किस प्रकार होनी चाहिए क्योंकि स्त्रियों की स्थिति को सर्वकालिक एवं सार्वभौमिक रूप से संतुष्टिप्रद मानने की भूल हमें उनकी वास्तविक स्थिति को जानने से वंचित करती है।
भारतीय स्त्रीवाद में लैंगिक असमानताओं और महिलाओं के समान अधिकारों से संबंधित कई सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आंदोलन, सिद्धांत एवं नैतिक दर्शन शामिल हैं। स्वतंत्रता के पूर्व महिलाओं का आंदोलन 19वीं शताब्दी में एक सामाजिक सुधार आंदोलन के रूप में शुरू हुआ। स्वतंत्रता के बाद के पहले कुछ दशकों के दौरान प्रमुख चिंता समग्र आर्थिक विकास की थी। इसके बाद के दशक में समता और गरीबी उन्मूलन के लिए चिंताएँ बढ़ीं । लैंगिक मुद्दों को गरीबी से संबंधित चिंताओं में शामिल कर लिया गया लेकिन ऐसी कोई विशिष्ट योजना नहीं थी सिर्फ जो महिलाओं को लक्षित करके बनाई गयी हो। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत महिला आंदोलन ने दहेज, बलात्कार, तलाक, समान नागरिक संहिता, महिलाओं के श्रम, मूल्य वृद्धि, भूमि अधिकार, महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी, दलित और हाशिए की महिलाओं के अधिकार, आक्रामक कट्टरवाद जैसे मुद्दों से स्वयं को जोड़ा। मीडिया ने भी एक समय में इन मुद्दों को संजीदगी से उठाया। स्त्री अध्ययन जैसी विधाओं का जन्म हुआ जिसे महिला आंदोलन के शैक्षणिक राजनीति के रूप में देखा गया। विभिन्न विश्वविद्यालयों में स्त्री एवं विकास अध्ययन केन्द्र स्थापित किए गए। महिला आंदोलन ने महिलाओं के मुद्दों को केन्द्र में रखकर उसे दृश्यमान बनाने की बड़ी उपलब्धि हासिल की।
स्त्री सशक्तीकरण के नारे के साथ विगत चालीस सालों में हमने बहुत प्रगति की है। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में स्त्रियों ने अपना सर्वोत्तम हासिल किया है। हिंदुस्तान के हर व्यक्ति को इन बेटियों पर गर्व है जिन्होंने यह साबित किया है कि अवसर मिलने पर वे इतिहास बदल सकती हैं। इतनी उपलब्धियों और सशक्तीकरण के तमाम प्रयासों के बावजूद भी सफल स्त्रियों की संख्या उंगलियों पर गिन दिए जाने भर है। यह भी एक कटु यथार्थ है कि सफल होती हुई स्त्री दोहरे दंश का शिकार है। उसने जितनी ऊँचाई हासिल की है, उसपर अपेक्षाओं की गठरी उतनी ही भारी लदी है। दुनिया के किसी भी कोने में संसद या अपने कार्यालय में बैठी हुई कामकाजी स्त्री को अपने बच्चे को स्तनपान कराते हुए दिखाया जाना और उसे इस रूप में प्रस्तुत करना कि स्त्री कितनी सफलतापूर्वक अपने कर्तव्यों के निर्वहन के साथ-साथ मातृत्व की भूमिका भी निभा रही है, दरअसल स्त्रियों को उनकी वास्तविक भूमिका को याद दिलाए रखने का यत्न भी है। कभी किसी बड़े राजनेता या उच्च अधिकारी से न तो इस तरह की कोई अपेक्षा की जा सकती है और न ही उनकी इस प्रकार की महिमामंडित छवियाँ हमारे समक्ष प्रस्तुत की जाती हैं।
हिन्दी पट्टी में आदर्श समाज की आवश्यक शर्त है कि वर्तमान स्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए स्त्रियों के प्रति विद्यमान पूर्वाग्रहों, अन्याय एवं भेदभाव को समाप्त करने के प्रयास किए जाएँ। परिवार, समाज एवं संस्कृति को बनाए रखने में स्त्रियों की भूमिका पर नये शोधों की आवश्यकता है ताकि इसके आधार पर जेंडर सम्बन्धों में सुधार किया जा सके। इसकी शुरुआत सबसे पहले परिवार एवं वैवाहिक सम्बन्धों से होनी चाहिए । समाज की इन दोनों सुन्दर संरचनाओं को नयी दृष्टि से पुनः आकार लेने की आवश्यकता है जो अधिकाधिक जनतांत्रिक होते हुए स्त्रियों के प्रति संवेदनशील, समावेशी और सहिष्णु हो ताकि सही मायने में भारतीय समाज स्त्री-पुरूष सम्बन्धों तथा स्त्रियों को उनका उचित स्थान देने के मामले में विश्व पटल पर सुन्दरतम रूप में उभर सके। स्त्रियों की देशज ज्ञान परम्पराओं को प्रामाणिकता देकर ही मुख्यधारा की विकास नीतियों में परिवर्तन सम्भव है। परिधि के स्त्री प्रश्नों को केंद्रियता प्रदान किए बिना समानता का स्वप्न अधूरा है।