भाषा

हिन्दी चिन्तन जगत में नये नवजागरण की सम्भावना

 

हर भाषा का अपना एक समाजशास्त्र होता है। उसका एक दार्शनिक पक्ष भी होता है। भाषा समाज के सामूहिक चेतना का वाहक होती है। समाज में होने वाले परिवर्तनों की पूर्व सूचना उस भाषा में रचे गये साहित्य से मिलती है। भारत के स्वतंत्रता को यदि आप समझना चाहते हैं और उसके आने की धमक को सुनना चाहते हैं तो निश्चित् रूप से उस समय के साहित्य से आपको सहायता मिलसकती है। इसलिए आने वाले समय की पूर्व सूचना के लिए आज के साहित्य को पढ़ने समझने कीजरूरत भी है। हिन्दी भाषा का रचना संसार हिन्दी के चिंतन जगत का इतना प्रतिनिधित्व तो करता ही है कि हम समाज के अलग-अलग स्तरों पर चल रही प्रक्रियाओं को उससे समझ सकते हैं।

आज के हिन्दी समाज में क्या चल रहा है? कुछ बिखरे तारों को जोड़ कर मैं आपके सामने एक सवाल रखना चाहता हूँ। मुझे स्वयं उसका उत्तर नहीं मालूम है। सबसे पहले यह समझें कि आज इस सवाल को उठाने का क्या कारण है? ऐसी कौन सी ख़ास बात है आज के समय में कि हिन्दी चिंतन जगत में चल रही प्रक्रियाओं को समझने की कोशिश की जाये? पहली बात तो यह है कि पिछले कुछ वर्षों में भारतीय समाज परिवर्तन की तीव्र प्रक्रिया से गुजरा है। नई आर्थिक नीति आई, वैश्वीकरण आया, उत्तर-आधुनिकतावाद आया, अस्मिता की राजनीति आयी और इसके साथ ही सामाजिक और राजनैतिक प्रक्रियाओं में भी काफी उथल पुथल आया। हम जहां है उससे आगे की दिशा क्या है? इस विषय पर विमर्श की ख़ास जरूरत है। हम कहाँ से यहाँ तक आये हैं इसे लेकर तो बहुत चिंतन चलता रहता है। उसका एक पक्ष तो यही है कि हम जहां हैं उसे समझा जाये। लेकिन दूसरा पक्ष यह भी होता है कि हम जहां जाना चाहते हैं उसके लिए हम जहाँ से आये हैं उससे दिशा निर्धारित करने की कोशिश करते हैं। लेकिन हम जहां हैं और हम जिस ओर जा रहे हैं इसका विश्लेषण हम जहां से आये हैं इससे ठीक ठीक नहीं हो सकता है। कई बार इसका उपयोग हम जहां हैं और जिधर जा रहे हैं उस परिदृश्य को धुँधला करने के लिए भी किया जाता है। जो लोग हमें कहीं और ले जाना चाहते हैं वे ही उसे स्पष्ट नहीं होने देने के लिए हमें कुछ और रास्ते दिखलाते हैं।

ऐसे में हम जहां हैं और जिस दिशा में जा रहे हैं इसे समझने का क्या उपाय हो सकता है? उसका समझना ज़रूरी है क्योंकि फिर हम तय कर सकते हैं कि हमें अपने मनचाही दिशा में जाने के लिए क्या प्रयास करना पड़ेगा। इसी संदर्भ में हिन्दी चिंतन जगत को समझना ज़रूरी है। हिन्दी चिंतन जगत भारतीय समाज का बड़ा हिस्सा है और उसके सामूहिक चेतना को समझने के लिए उसमें चल रहे हलचल को समझना लाज़िमी होगा। मेरे लिए यह दावा करना तो बहुत मुश्किल होगा कि मैं इस विशाल समाज के चिंतन जगत में आये हलचल को ठीक ठीक समझ पा रहा हूँ, इसके लिए व्यवस्थित शोध की ज़रूरत है। लेकिन मेरे आस पास होने वाली घटनाओं से जो आभाष मुझे मिलता है उससे इतना तो पता चलता ही है कि इस समाज में बहुत कुछ चल रहा है जिसके परिणाम दूरगामी भी हो सकते हैं और कम से कम वे कुछ ऐसे संकेत दे रहे हैं जिन्हें पकड़ने की ज़रूरत है। उनके माध्यम से हमें समाज के बदलाव की दिशा का कुछ अंदाज़ा लग सकता है। इसी समझ के आधार पर यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या हिन्दी समाज किसी नये नवजागरण के मुहाने पर खड़ा है?

मुझे पता है कि नवजागरण शब्द इतिहास के ख़ास काल के संदर्भ में रूढ़ि हो गया है। यह भी पता है कि पश्चिम में आये नवजागरण पूरी दुनिया के लिए मानक हो गया है। जब कभी भी हम नवजागरण की बात करते हैं तो इसी मानक से उसकी तुलना की जाती है। लेकिन यहाँ मेरा आग्रह है कि हम इस मानक को थोड़ी देर के लिए अलग रख दें और बदलाव की जो प्रक्रिया हिन्दी जगत में चल रही है उसे नये नवजागरण के रूप में देखें, जिसका स्वरूप अभी बिलकुल स्पष्ट नहीं है। हिन्दी चिंतन जगत में पहले भी नवजागरण हुआ था, जसपर पश्चिम में आये नवजागरण का प्रभाव था। यह आधुनिकता के चिंतन से प्रभावित था। एक प्रतिस्पर्धा थी पश्चिमी जगत के साथ क़दमताल करनेकी। आत्म विवेचना तो था लेकिन मानक संस्कृति के संदर्भ में। कभी उनसे उधार लेकर बदलाव की कामना थी, कभी उनका विरोध कर और कभी सामंजस्य बिठा कर।

ऐसा कहना ग़लत होगा कि हिन्दी चिंतन जगत में नकल की परंपरा बन गई। लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि चिंतन जगत के केंद्र में मानक चिंतन का वर्चस्व था। आज हिन्दी चिंतन जगत में जिस बदलाव को हम देख रहे हैं उसमें भी कई धाराएँ है। कुछ का नाभि नाल का संबंध पश्चमी चिन्तन परंपरा से बना हुआ है। कुछ उसके प्रतिरोध में हैं। कुछ उनके साथ संवाद में भी हैं। लेकिन उनकी केन्द्रीयता ख़त्म होती जा रही है। उनमें स्वराज भी दिख रहा है। भारत के आंग्ल चिंतन जगत और हिन्दी चिंतन जगत में यह मौलिक अंतर है। आंग्ल चिंतन जगत उस मोह पाश को तोड़ नहीं पा रहा है। उसके प्रति एक विचित्र मोह है। इस मोह का कारण क्या हो सकता है? शायद एक कारण तो ज्ञान के क्षेत्र में आंग्लविदों के वर्चस्व का संकट हो। क्योंकि भाषा उनके वर्चस्व का एक अस्त्र है। लेकिन यह भी संभव है कि भाषा बदल जाये लेकिन विचार का वर्चस्व यथावत क़ायम रहे। एक और तर्क हो सकता है जो बौद्धिक कम और राजनैतिक ज़्यादा है। जब कभी इस तरह की बात की जाती है उसके तात्विक पक्ष पर बहस हो ही नहीं पाती है। बात सीधे इस तर्क के विमर्श के राजनैतिक मंशे पर पहुँच जाती है।

लेकिन इन प्रक्रियाओं में एक और प्रक्रिया शामिल है जिसे मैं नया नवजागरण कहना चाहता हूँ। आंग्ल वैचारिक दुनिया से अलग हिन्दी चिंतन जगत में एक नई वैचारिक दुनिया भी पनप रही है। इस दुनिया को आंग्ल दुनिया के बारे में बहुत कुछ पता भी नहीं है। और यदि कुछ पता है भी तो उसके जीवन पर इसका कोई प्रभाव नहीं है। स्वतंत्रता के बाद के कई दशकों में यह एक नई बात हुई है। बहुत से आम लोग शिक्षित हो गये हैं। संचार के माध्यमों के विकास ने उन्हें आपस में जोड़ भी दिया है। अपने समाज और देश के जीवन के बारे में सोचने समझने लगे हैं। उन्हें पता भी नहीं है कि उनके बारे में कोई और क्या सोच रहा था। उनको उससे कोई फ़र्क़ भी नहीं पढ़ता है। ये लोग नये सवाल उठाने लगे हैं। अब तक के मानकों को ख़ारिज करने लगे हैं। यह एक सैलाब जैसा कुछ है। राजनीति में उसका प्रभाव देखा जा सकता है। लेकिन बौद्धिक जगत पर भी इसका बड़ा प्रभाव दिखता है। बहुत से लोग इससे परेशान भी हैं क्योंकि कई बार इनकी न भाषा संयत है न ही चिन्तन के स्थापित मान्यताओं को ये कुछ महत्व देते हैं। लेकिन एक ख़ास बात इनमें है कि ये सवाल बहुत पूछते हैं और जिस सवालों के पुराने उत्तरों को पहले सही मान लेते थे उन्हें ख़ारिज करने लगे हैं।

इसी संदर्भ में हिन्दी चिंतन जगत में चल रहे विऔपनिवेशीकरण के बहस को देखा जा सकता है। औपनिवेशीकरण एक प्रक्रिया है जिसमें हमारे सोचने समझने के तरीक़े पर प्रहार हुआ है। ज्ञान के मानक को बदल दिया गया है। कल तक हम जिसे ज्ञान समझ रहे थे मानक के इस बदलाव ने उसे अज्ञान घोषित कर दिया था, धीरे-धीरे लोग इस बदलाव पर प्रश्न उठने लगे हैं। सवाल उठाना कोई आसान काम नहीं है। ख़ास कर विश्वविद्यालय में चल रहे विमर्श के दायरे में इस तरह की कोई बात आसानी से नहीं सुनी जाती है। भारतीय विश्वविद्यालयों की स्थापना का संदर्भ औपनिवेशिक है। इसलिए पश्चिमी विश्वविद्यालयों से उनकी संस्कृति अलग है। हमारे विश्वविद्यालय अपनी व्यवस्था से लेकर विषयों के विन्यास तक में उनकी नक़ल करते हैं। और नक़ल में मौलिकता का अभाव इनकी आत्मा को बहुत हद तक प्रभावित करता है। ऐसे में औपनिवेशिक मानस से मुक्त होने की प्रक्रिया जटिल होती है। 

पिछले कुछ दशकों में भारतीय विश्वविद्यालयों में एक ख़ास घटना घटी है। अब तक इनमें आने वाले छात्र मुख्यतया उच्च जाति और उच्च मध्यम वर्ग के होते थे। साधारण लोग मुश्किल से यहाँ तक पहुँच पाते थे। और उच्च माध्यम वर्ग में अंग्रेज़ी का वर्चस्व था। अंग्रेज़ी भाषा नहीं एक पूरी संस्कृति थी। भारत जैसे देश में अंग्रेज़ी की संस्कृति के औपनिवेशिक संदर्भ ने उसे एक नया रूप दे दिया था। एक तरह के ब्राउन साहिब वाली मानसिकता थी जिसमें आम लोगों को हीन समझना शामिल था। उनमें औपनिवेशिक मालिकों की संस्कृति से नफ़रत भी था और प्रेम भी। बैद्धिक बातचीत में तो उसकी आलोचना करते थे लेकिन व्यवहार में उसकी नक़ल करते थे। पिछले कुछ दशकों में आरक्षण जैसे कारणों से भारतीय समाज के सामान्य लोगों ने भी विश्वविद्यालयों में प्रवेश पाया है।

इन नये आगंतुकों के मानस में औपनिवेशिक अंग्रेज़ी के प्रति मोह नहीं है या ऐसे कहें कि उनके समाजिक संदर्भ अलग हैं। ऐसे में कई नये सवाल उठ रहे हैं। विश्वविद्यालयों के बौद्धिक माहौल में हलचल है। प्रारंभिक दौर में तो इन सवालों को नज़रंदाज़ किया गया। लेकिन आने वाले समय में शायद ये सवाल और गंभीरता से उठाये जाने लगेंगे। बौद्धिक विमर्श का यह हलचल कई स्तरों पर चल रहा है। यहाँ कुछ उदाहरण लेकर इसे समझने की कोशिश की जा सकती है। एक अच्छा उदाहरण है अंबेडकर विश्वविद्यालय में चल रहा एक ख़ास क़िस्म का प्रोजेक्ट ‘देशिक अभिलेख अनुसंधान केंद्र’ जिसमें इन सवालों को सिलसिलेवार तरीक़े से उठाया जा रहा है। शोधकर्ताओं का एक बेहतरीन ग्रुप बना है। इस प्रोजेक्ट में विऔपनिवेशीकरण के कई आयामों पर चर्चा शुरू की गई है बल्कि कई भारतीय भाषाओं के ज्ञान परंपराओं की पुस्तकों पर भी विमर्श किया जा रहा है। सबसे बड़ी ख़ासियत है कि औपनिवेशिक प्रभाव के कारण जो विसंगतियों आई हैं उनके विश्लेषण के साथ एक मैलिक चिंतन की बात भी उठाई जा रही है। समाज अध्ययन के लिए उपागमों और भाषाई स्रोतों पर विमर्श का एक नया सिलसिला शुरू हुआ है।

ख़ास बात यह है कि यह विमर्श ज्ञान की राजनीति का हिस्सा तो है, लेकिन चुनावी राजनीति की सीमा से बहुत आगे है। कुछ राजनैतिक पार्टियाँ विऔपनिवेशीकरण को जुमले की तरह उपयोग में ला रही हैं। उस पर कोई बैद्धिक विमर्श खड़ा करना उनका उद्देश्य नहीं है। उन्हें इसमें राजनैतिक लाभ दिखता है। लेकिन इस विमर्श को उसी राजनीति के आयाने में देखना नासमझी होगी। हमें सोचना यह चाहिए कि यह मुद्दा आज इतना उपयोगी क्यों हो गया है। क्या यह हिन्दी चिंतन जगत में एक नये नवजागरण की लहर की यह पूर्व सूचना हो सकती है? क्या ऐसा भी हो सकता है कि यह प्रोजेक्ट बौद्धिकों द्वारा जनमानस में चल रहे इस विमर्श की धूमिल परछाई को पकड़ने का एक अघोषित प्रयास हो? क्या दुनियाँ भर में अपनी ज्ञान परंपराओं को लेकर जो नई चेतना आई है यह प्रयास हिन्दी चिंतन जगत में भी उसी बड़ी प्रक्रिया एक स्वरूप है ? समय बताएगा कि इसमें कितना तथ्य है लेकिन इसे विचारधाराओं की ख़ेमाबाज़ी में फँसा कर ख़ारिज करना उचित नहीं होगा।

एक दूसरा उदाहरण भी लिया जा सकता है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुछ शिक्षकों और छात्रों ने मिल कर हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने का नया प्रोजेक्ट शुरू किया है। इस इतिहास लेखन की ख़ासियत है इसकी बहुलता। पहली बार हिन्दी साहित्य का इतिहास एक सामूहिक प्रोजेक्ट के रूप में पाँच खंडों में किया जा रहा है। हो सकता इसमें कुछ कमियाँ हों। लेकिन महत्वपूर्ण है यह कल्पना कि हिन्दी साहित्य की कई धाराएँ नई हैं और पूर्वाग्रह से मुक्त हो कर उन सबको एक साथ समेट कर सामने लाना। मुझे यह केवल इतिहास लेखन नहीं लग रहा है बल्कि हिन्दी चिंतन जगत के मानस में एक परिवर्तन का संकेत जैसा लगता है।

एक तीसरा उदाहरण है हाल ही में प्रकाशित एक काव्य संग्रह ‘प्रतिरोध का स्त्री स्वर’। ऐसा नहीं है कि स्त्रियों के प्रतिरोध का स्वर पहले नहीं सुनाई दे रहा था। लेकिन यह संग्रह इस स्वर को प्रतिरोध की व्यापक ध्वनि में बदलने में सक्षम है। ज़्यादातर कविताएँ नई कवयित्रियों की हैं और उनमें स्त्री देह को लेकर, पुरुषों से उनके संबंधों को लेकर नये सवाल हैं। हमें समझने की ज़रूरत है कि क्या हिन्दी चिंतन जगत इन नये सवालों के उत्तर की खोज में है या ये उधार के सवाल हैं।जहां तक मेरी समझ जा रही है उससे ऐसा लगता है कि ये उनके अपने सवाल हैं जो उनके अपने अनुभवों से निकल कर आ रहे हैं और उनका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जिनके पास कविता के स्वर नहीं हैं लेकिन प्रतिरोध की आकांक्षा है।

चौथा और आख़िर उदाहरण है हिन्दी जगत में तीन ख़ास प्रकाशकों का: ‘संवाद’, ‘सेतु’ और ‘हिन्द युग्म’। ख़ास बात यह नहीं है कि ये प्रकाशक हैं और ख़ास बात यह भी नहीं है इन्हें प्रकाशन में फ़ायदा हो रहा है या नहीं। ख़ास बात यह है कि भाषा, साहित्य और आम लोगों के प्रति उत्तरदायित्व ने इन्हें प्रकाशक बना दिया है। अब तक हिन्दी चिंतन जगत एक बंधन में था। कुछ बड़े प्रकाशकों या व्यापारी-प्रकाशकों पर इसकी विचार विमर्श की निर्भरता थी। इसके चलते लेखकों का एक बड़ा समूह उदास बैठा था। उनके पास कहने को बहुत कुछ था लेकिन प्रकाशक नहीं था। इन तीनों प्रकाशकों ने न केवल लेखकों को मौक़ा दिया, बल्कि हिन्दी चिंतन जगत में चल रहे मंथन को लोगों तक लाने का सराहनीय प्रयास किया। यदि इन प्रकाशकों को पाठक मिल रहे हैं और उनका व्यापार उनको बेघर नहीं कर रह है इसका मतलब है कि हिन्दी पट्टी में विमर्श की भूख भी है। यही भूख इस बात का प्रमाण माना जा सकता है कि इधर कुछ होने वाला है।

ये तीन केवल उदाहरण हैं। ऐसी अनेकों और प्रक्रियाएँ चल रही हैं। यदि इन्हें अलग-अलग देखा जाये तो कुछ ख़ास नज़र नहीं आता है। यदि एक साथ देखा जाये तो लगता है बहुत दिनों से जो कुछ धीमी गति से चल रहा था उसमें अब नई गति आ गई है। हिन्दी की पुस्तक को बुकर पुरस्कार मिलने से लेकर हिन्दी समाज अध्ययन की मौलिक रचनाओं पर सम्मान और एक बड़ी रक़म का फ़ेलोशिप – यह सबकुछ केवल यह बताता प्रतीत होता है कि इधर कुछ चल रहा है जिसका समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ना लाज़िमी है। शायद उत्तर औपनिवेशिक काल के बाद यहाँ फिर से नवजागरण की कोई नई लहर उठनेवाली है। उम्मीद है कि मेरा विश्लेषण सही है और यह केवल एक आकांक्षा मात्र नहीं है

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मणीन्द्र नाथ ठाकुर

लेखक समाजशास्त्री और जे.एन.यू. में प्राध्यापक हैं। सम्पर्क +919968406430, manindrat@gmail.com
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