हिन्दी और जनपदीय भाषाएँ
किसी समाज का बहुभाषी होना उसकी सांस्कृतिक समृद्धि का परिचायक है। इस समृद्धि के साथ कुछ समस्याएँ भी पल्लवित-पुष्पित होती हैं। चाहे समृद्धि हो या समस्या, दोनों भू-राजनीतिक एवं आर्थिक संरचना से गहरे प्रभावित होती हैं। न तो भाषा की समृद्धि निर्दोष एवं निरापद होती है और न ही समस्या। समृद्धि और समस्या की अन्योन्यक्रिया इसे जटिलता प्रदान करती है। ये दोनों विशिष्टताएँ एक-दूसरे से गोया भिन्न दिख रही हों, एक-दूसरे को अपना ‘गैर’ मान रही हों, पर दोनों के भीतर भी दीगर मुख्तसर प्रवृत्तियाँ विराजमान रहती हैं। बहुभाषी समाज में भाषायी समस्या अपनी अस्मिता के रेखांकन का परिणाम भी होती है। अपनी भाषायी अस्मिता पर बल लोकतान्त्रिक आकांक्षा से भी पनपती है। आधुनिकता, शहरीकरण, बढ़ते मध्यवर्ग और मीडिया के प्रसार इसके लिए जमीन तैयार करते हैं।
जो बहुभाषिकता एक दौर में समृद्धि सूचक थी, उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक आते-आते, धीरे-धीरे समस्या के तौर पर दिखने लगी। राष्ट्रीय आन्दोलन ने इसे भरसक सुलझाने की कोशिश की थी। पर तनाव की आँच मद्धिम हो गयी, पूर्णतः बुझ नहीं पायी। यही कारण है कि जैसे- जैसे आज़ादी निकट आयी, तनाव सामने आने लगे।
गौरतलब है कि वर्तमान हिन्दी, जो खड़ी बोली का विकसित रूप है, ख़ुद एक जनपद की भाषा भर थी। इसका विस्तार दूसरे जनपदों तक हुआ। इसकी व्याप्ति बढ़ी। जिस माहौल में इसका विकास और प्रचार-प्रसार हुआ उसमें एक सम्पर्क भाषा के तौर पर इसकी महत्ता रेखांकित हुई थी। उल्लेखनीय यह भी है कि इसके पहले साहित्य (कविता) की भाषा के तौर पर ब्रजभाषा की स्वीकृति दूसरे जनपदों में भी थी। ऐसा नहीं था कि ब्रजभाषा जिस इलाक़े की ‘बोली’ थी, उसके बाहर के इलाक़े की’ बोलियों’ में साहित्य (काव्य) नहीं रचे जा रहे थे। परन्तु, साहित्य की भाषा के जरिये विभिन्न जनपदीय इलाकों को एकसूत्र में पिरोने का काम ब्रजभाषा ही कर रही थी। तब ब्रजभाषा की व्याप्ति महज़ आसपास के जनपदीय इलाकों या आज के हिन्दी-उर्दू इलाक़े तक ही सीमित नहीं थी। बल्कि देश के अन्य इलाक़ों में भी ब्रजभाषा में कविता रची जाती थी।
उस दौर का रचनाकार भले ही अपनी भाषा में काव्य-रचना करता हो, पर विशाल भू-भाग और वृहद् साहित्य-रसिक-समाज तक पहुँचने के लिए उसे ब्रजभाषा में भी कविता रचनी होती थी। हम चाहें तो यह सवाल कर सकते हैं कि क्या उस दौर में ब्रजभाषा के साथ दूसरी जनपदीय भाषाओं मसलन – उसकी निकटवर्ती अवधी, अथवा थोड़ी दूर की भोजपुरी, मैथिली आदि भाषाओं के बीच तनाव मौजूद था? क्या ब्रजभाषा ने दूसरी जनपदीय भाषाओं को कमज़ोर किया था? इन्हें निगलने की कोशिश की थी ? आज जो आरोप हिन्दी पर लगता है कि इसने अपनी जनपदीय भाषाओं को नष्ट किया है, इसी तरह क्या भोजपुरी, अवधी, मैथिली आदि जनपदीय भाषाओं के सन्दर्भ में कहा जाना चाहिए कि ब्रजभाषा ने इनके साहित्यिक विकास के मार्ग में अवरोध पैदा किया? तत्कालीन साक्ष्य इसकी इजाजत नहीं देते।
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में भाषाओं के बीच तनाव भरा रिश्ता हिन्दी- उर्दू; और ब्रजभाषा-हिन्दी (खड़ी बोली) के बीच बना था। एक दिलचस्प बात यह भी है कि ‘भाषा’ शब्द ब्रज के साथ जुड़ा हुआ था (है भी), जबकि ‘बोली’ शब्द इस हिन्दी (खड़ी बोली) के साथ। इन दोनों के बीच के बहस-मुबाहिसे और बदलती परिस्थितियों का नतीजा यह हुआ कि खड़ी बोली हिन्दी साहित्य की भाषा बन गयी और ब्रजभाषा को ‘बोली’ का खिताब मिला। स्मरण रखना होगा कि साहित्य भी एक-तरह की सत्ता-संरचना का निर्माण करता है। आज भी ‘भाषा’ और ‘बोली’ के कृत्रिम और अलोकतान्त्रिक विभाजन के मुताबिक इस ब्रजभाषा को ‘बोली’ का दर्जा ही हासिल है। ‘भाषा’ को ‘बोली’ और ‘बोली’ को ‘भाषा’ में रूपान्तरित करने का कारक बोली/भाषा का आन्तरिक चरित्र नहीं होता, बल्कि इसे बाह्य परिस्थितियाँ निर्धारित करती हैं।
बदलते भू- राजनीतिक-आर्थिक माहौल के माकूल खड़ी बोली साबित हुई थी। ‘बोली’ के रूप में खड़ी बोली भले ही पहले से मौजूद थी, पर ‘भाषा’ के रूप में यह उसी दौर में, आधुनिकता के साथ अन्योन्यक्रिया के दौरान विकसित हुई। हिन्दी नयी परिस्थिति का सामना करने के साथ-साथ खुद को उस बदले माहौल के मुताबिक अनुकूलित भी कर रही थी, इसलिए उसकी सामर्थ्य में इज़ाफ़ा हो रहा था। यही वजह है कि तत्कालीन साहित्यकार- पत्रकार नयी चुनौतियों के संयोग से उत्पन्न परिस्थितियों में अपने विचार की अभिव्यक्ति इसी भाषा में कर रहे थे। एक ओर यह नयी दिशा में बढ़ता कदम था पर ब्रजभाषा में काव्य-रचना की परम्परा भी साथ-साथ चल रही थी। धीरे-धीरे जहाँ हिन्दी की व्याप्ति बढ़ कर राष्ट्रीय फलक तक पहुँच गयी, वहीं ब्रजभाषा जनपद तक सिमट गयी।
हिन्दी और जनपदीय भाषाओं के अन्तः सम्बन्ध की समस्याओं का आरम्भ इसी बिन्दु से होता है। यहाँ उर्दू-हिन्दी के बीच के मसले को सायास छोड़ दिया गया है। हिन्दी-उर्दू के बीच के रिश्ते पर जिस अतीत की छाया है, वह हिन्दी और जनपदीय भाषाओं के बीच कभी नहीं रहा। अलबत्ता नये सन्दर्भों को अभिव्यक्त करने के लिए सम्पर्क भाषा के तौर पर विकसित हुई हिन्दी और इसकी जनपदीय भाषाओं से रिश्ते की समस्याएँ स्वाधीनता- आन्दोलन के दौर में दब गयी थीं। कारण कि राष्ट्रवादी परियोजना के मद्देनज़र हिन्दी को सम्पर्क-भाषा से बढ़ा कर राष्ट्रभाषा का दर्जा देने की कोशिश शुरू हो गयी।
उस दौर में जनपदीय भाषाओं ने हिन्दी को आगे बढ़ाने का काम किया। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए जो तर्क दिये जा रहे थे, उनमें एक बड़ा तर्क था- इसका उपयोग करने वाले लोगों की संख्या की अधिकता। जाहिर है, यह संख्या जनपदीय भाषा बोलने वालों की संख्या को जोड़ने से ही बनती थी। ऐसे में जनपदीय भाषाओं और हिन्दी के बीच एक बेहतर रिश्ता दिखता था। इन्हीं जनपदीय भाषाओं के बल पर हिन्दी का पक्ष मज़बूती से उभरता था। संविधान-सभा में हिन्दी के साथ इस इलाक़े की आदिवासी भाषा को लेकर सवाल उठाये गये। पर यह कहना जरूरी है कि आदिवासी भाषाएँ हिन्दी इलाक़े की भाषा तो थीं, परन्तु उस अर्थ में हिन्दी की जनपदीय भाषाएँ नहीं थीं, जिस अर्थ में ब्रज, अवधी, मैथिली, भोजपुरी आदि थीं या हैं।
हिन्दी और इसकी जनपदीय भाषाओं के बीच सम्बन्धों की समस्या ‘राज- भाषा’ के रूप में मान्यता मिलने के बाद दिखनी शुरू होती है। स्वाधीनता आन्दोलन के दौर में जनपदीय भाषाओं का प्रभु वर्ग राष्ट्र-निर्माण के महावृत्तान्त में अपनी भागीदारी दर्ज कराते वक़्त इन समस्याओं की तरफ मुखातिब नहीं था। दरअसल, जनपदीय भाषाओं से हिन्दी की अन्योन्यक्रिया में हिन्दी बढ़ती चली गयी, जबकि जनपदीय भाषाओं का दायरा नहीं बढ़ा। बल्कि एक लिहाज से देखें तो जनपदीय भाषाएँ कमतर होती गयीं। इनका महत्व भी घटता गया। शहरीकरण, साक्षरता, बढ़ते मध्यवर्ग, मीडिया के बढ़ते प्रभाव ने हिन्दी के विस्तार में महती भूमिका निभायी।
हिन्दी ने इन जनपदीय भाषाओं से शब्दों को लेकर अपना विकास किया है। अँग्रेजी के बाद इस देश में सत्ता की भाषा हिन्दी है। यह एक स्तर पर यहाँ के अभिजन की भाषा भी है। लिहाजा, अपनी जनपदीय भाषाओं की तुलना में हिन्दी से जुड़ना एक सम्मान का बोध पैदा करता है, दायरा बढ़ाता है और सत्ता में भागीदारी का मौक़ा भी मुहैया कराता है। अलबत्ता, अपनी जनपदीय भाषाओं को छोड़ कर उन्नति और सम्मान प्राप्त करने की लालसा में हिन्दी से जुड़ने की कोशिश हिन्दी और जनपदीय भाषाओं के बीच तनाव पैदा करती है।
यह सिर्फ़ हिन्दी और उसकी जनपदीय भाषाओं के सम्बन्ध की ही समस्या नहीं है। दुनिया के स्तर पर इन कथित ‘बोलियों’ पर यह संकट दिखता है। पूरी दुनिया की छह हज़ार भाषाओं में से बीस से पचास फ़ीसदी के क़रीब ऐसी भाषाएँ हैं, जिन्हें नयी पीढ़ी नहीं बोलती। भाषा-वैज्ञानिकों का अनुमान यह भी है कि सन् 2100 तक आज की 90 फ़ीसदी भाषाएँ लुप्त हो जाएँगी। साथ ही इक्कीसवीं सदी में हर साल बीस भाषाएँ मरती चली जाएँगी। एक खबर बताती है कि यूनेस्को ने ऐसी 196 भाषाओं की सूची तैयार की है जो ख़त्म होने के कगार पर हैं। जिन मुल्कों की भाषाएँ समाप्त होने के कगार पर हैं, भारत उनमें ऊपर है। (द हिन्दू, 21 फ़रवरी, 2009)
2001 की जनगणना में हिन्दी इलाक़े की जनपदीय भाषाओं की संख्या 48 बतायी गयी है, जिसके लोगों ने अपनी भाषा हिन्दी भी बतायी है। यह अध्ययन जनपदीय भाषाओं के ऊपर आये संकटों को बताते हैं। ऐसे में अन्तः कलह होना स्वाभाविक है, साथ ही अपनी अस्मिता को बचाने के लिए इन जनपदीय भाषाओं द्वारा हिन्दी के बरअक्स अपने को स्थापित करने की जद्दोजहद भी। इन जनपदीय भाषाओं की अस्मिता बचाने और सत्ता में हिस्सेदारी दिलाने के लिए जब-तब कुछेक भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग होती रहती है। संविधान की इस आठवीं अनुसूची में जब-तब कुछ भाषाओं को जोड़ा जाता रहा है।
जिस दौरान भारत का संविधान बन रहा था, संविधान की आठवीं अनुसूची के मूल प्रस्ताव में सिर्फ़ बारह भाषाओं को जगह दी गयी थी- हिन्दी, बांग्ला, पंजाबी, तमिल, कन्नड़, तेलुगू, मलयालम, उड़िया, असमी, कश्मीरी, मराठी और गुजराती। संविधान सभा के बहस-मुबाहिसों के दौरान जवाहर लाल नेहरू की पहल पर इसमें उर्दू को भी शामिल किया गया और के. एम. मुंशी के आग्रह पर संस्कृत को। याद रखने की बात है कि संविधान सभा की बहसों के दौरान इसके एक सदस्य जयपाल सिंह के जोर देने के बावजूद किसी आदिवासी भाषा को शामिल नहीं किया गया। जबकि जयपाल सिंह ने देश की 176 आदिवासी भाषाओं में से सिर्फ तीन भाषाओं को अनुसूची में शामिल करने की माँग की थी। अनुसूची में, हिन्दी इलाक़े की किसी जनपदीय भाषा को जगह नहीं दी गयी। हिन्दी इलाक़े की किसी जनपदीय भाषा को इसमें शामिल नहीं करना, तत्कालीन दौर में हिन्दी और जनपदीय भाषाओं के मुखर रूप में गैर-मौजूद अन्दरूनी तनाव को ही बताता है। इसके साथ ही यह भी बताता है कि इसमें क़रीब-क़रीब उन्हीं भाषाओं को जगह दी गयी, जिनके साथ हिन्दी का तनाव सामने आया था।
हिन्दी की जनपदीय भाषाओं की अस्मिता को दबाने के मकसद से जो तर्क दिये जाते हैं, वे लोकतान्त्रिक मूल्यों की अवहेलना करते हैं। ‘भाषा’ और ‘बोली’ के कृत्रिम विभाजन को ख़ारिज करने के बाद यह सुनने को मिलता है कि अपनी अस्मिता की अकुलाहट में संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने को व्याकुल इन (तथाकथित) ‘बोलियों’ में अभिव्यक्ति की क्षमता नहीं है। स्मरणीय है कि ऐसी बात अँग्रेज़ी भाषी लोग ‘हिन्दी’ के लिए भी कहते हैं! मतलब कि हिन्दी को कमतर साबित करने के लिए जो तर्क अँग्रेज़ी की तरफ से आता है, वही हिन्दी-पक्षधर होने का जोर-जोर से दावा करने वाले चन्द लोग भोजपुरी और राजस्थानी सरीखी भाषाओं के लिए देते हैं! कहना होगा कि अस्मिता को स्वीकृति और मान्यता मिलने के बाद भाषाएँ कालान्तर में सक्षम साबित हुई हैं; उदाहरणस्वरूप-छत्तीसगढ़ी, संथाली, मैथिली के विकास, प्रसार और सक्षमता को देखा जा सकता है।
हिन्दी के साथ रही भोजपुरी और राजस्थानी सरीखी भाषाओं की माँग को हिन्दी को ‘चिन्दी-चिन्दी’ करने की ‘साजिश’ के रूप में समझना वाजिब नहीं। असल में, राजनीतिक जागरूकता और प्रगति के साथ लोकतांत्रिक व्यवस्था की जड़ें जैसे-जैसे मजबूत हुई हैं, तमाम घटकों-तबकों में अस्मिता-बोध जागा है। सरकारी संरक्षण और हक की कामना पैदा हुई है। भाषा का प्रश्न इसी की पैदाइश है। संविधान-सभा की बहसों में इन जटिलताओं की रचनात्मक अभिव्यक्ति दिखती है।
भारतीय भाषा को स्वराज का बेहद जरूरी अंग मानने वाले नेताओं ने संविधान सभा में इसकी उपेक्षा की। यह दिलचस्प तथ्य है कि ग्यारह दिसम्बर उन्नीस सौ छियालिस को देशरत्न डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के सभापति बनने के पश्चात शुरुआती सात वक्ताओं ने अंग्रेजी में उनका अभिवादन किया और बधाइयां दी। भारतीय जुबान में बोलने वाले पहले वक्ता खान अब्दुल गफ्फार खान थे जो आजादी के पश्चात भारत में नहीं रहने को अभिशप्त थे। दरअसल ये शुरुआती सात वक्ताओं के इरादे जितने भी नेक हों और वे भाषाई स्वराज के जितने भी समर्थक हों परन्तु वे जिस भाषाई संस्कार में शिक्षित और प्रशिक्षित थे, उसकी स्वाभाविक अभिव्यक्ति का प्रतिफल अंग्रेजी थी। इस तरह उनके पवित्र इरादों के समक्ष उनका ही मन -मिजाज पुख्ता अवरोध था। यह तथ्य स्मरण में रखने योग्य है कि स्वाधीनता आंदोलन के दौर में कविगुरु रवींद्र नाथ टैगोर और महात्मा गाँधी सरीखे लोग ही इस तथ्य के प्रति पूर्णतः सचेत थे।
देश की आजादी के बाद बीबीसी के पत्रकार को अपने संदेश में महात्मा गाँधी ने कहा कि “दुनिया से कह दो कि गाँधी अंग्रेजी भूल गया है”। इस वाक्य का गहरा और व्यापक निहितार्थ है। भारतीय मानस के विऔपनिवेशिकरण की आवश्यकता को महात्मा गाँधी के रेखांकन की ही यह सार्थक अभिव्यक्ति है जो इतिहास के सबसे महत्त्वपूर्ण क्षण में वे कह रहे थे। यह कथन महात्मा की मनोभूमि को स्पष्ट करता है और स्वराज की उनकी अवधारणा को भी। इसको साकार होने में अभी कितना समय लगेगा कहना मुश्किल।