हरी भरी उम्मीद की गुंजाइश
हाल में प्रख्यात पर्यावरणविद सुन्दर लाल बहुगुणा जी का निधन गहराते कोरोना संकट के कई क्रूर परिणामों में से एक था। उनकी छवि एवं उनके द्वारा किये गये कार्य ना केवल भारत बल्कि पूरे विश्व में पर्यावरण विमर्श को दिशा देने में बहुत महत्वपूर्ण रहे हैं। संस्थागत एवं वैचारिक पहलों के साथ ही उन्होंने सत्तर के दशक से ही युवा पीढ़ी को चिपको आन्दोलन एवं हिमालय के पारिस्थितिक संकट के कारणों से जोड़ने का अद्वितीय काम किया। इस परिप्रेक्ष्य में मशहूर इतिहासविद शेखर पाठक की कुछ महीने पहले प्रकाशित किताब ‘हरी भरी उम्मीद’ पर चर्चा पर्यावरण की समझ बनाने में काफी मदद कर सकता है। सत्तर के दशक से ही बहुगुणा एवं चंडी प्रसाद भट्ट के साथ काम कर रहे पाठक लम्बे समय तक कुमाऊँ विश्वविद्यालय में इतिहास विषय के प्राध्यापक रहे। ‘पहाड़’ नामक सामाजिक संस्था से शेखर पाठक के जुड़ाव ने चिपको आन्दोलन के स्थानीय और वैश्विक पहुँच के बीच संतुलन बनाने में मदद की है। यह किताब एक लम्बे समय से प्रतीक्षित थी और आने के बाद से इसने पाठकों एवं समीक्षकों का खासा ध्यान आकर्षित किया है।
शेखर पाठक की यह किताब उनके द्वारा भारतीय उच्च शिक्षण संस्थान, शिमला में किये गये शोध का परिणाम है। यह किताब चिपको के चालीस वर्ष पूरे होने पर इस महत्वपूर्ण पर्यावरण आन्दोलन की एक पड़ताल तो है ही साथ ही इतिहास, राजनीति एवं संस्कृति अध्ययन जैसे विषयों की समझ बनाने में भी आने वाले दिनों में इसकी भूमिका कारगर होगी। छः सौ पृष्ठों वाली इस किताब में तकरीबन पचास पृष्ठों का परिशिष्ट एवं तीस पृष्ठों की सन्दर्भ सूची इतिहास, कला एवं संस्कृति तथा सामाजिक आन्दोलनों के विभिन्न आयामों में रुचि रखने वालों के लिए एक खजाने से कम नहीं है।
साथ ही सत्तर के दशक से लेकर हाल तक के उत्तराखंड एवं हिमालय संकट को लेकर हुए प्रमुख सामाजिक प्रयासों के चित्रों को शामिल कर लेखक अपने साथ पाठकों को चिपको के इतिहास में झाँकने का एक सुनहरा मौका देते हैं। चौदह अध्यायों वाली इस किताब में जगह जगह पर नक्शों एवं तालिकाओं के प्रयोग से इस शोध का स्पष्ट दृष्टिकोण रेखांकित होता है। भारत के सन्दर्भ में पानी और पर्यावरण पर जानने को इच्छुक व्यक्ति के लिए इस पुस्तक का विमर्श प्रस्थान बिन्दु से कम नहीं है। अतः पर्यावरण संकट के अध्ययनरत विद्वानों के लिए इस किताब को अनदेखी करना किसी बौद्धिक जोख़िम से कम नहीं होगा।
इस किताब को पढ़ने के दरम्यान कई बार ऐसा अहसास होता है कि चिपको ‘आन्दोलनों का आन्दोलन’ है। पहले से पांचवें अध्याय में इस क्षेत्र का औपनिवेशिक इतिहास तथा उत्तर-औपनिवेशिक जंगलात परिदृश्य का वर्णन है। किताब के छठे अध्याय जिसका शीर्षक ‘चिपको की पहली लहर’ है, में चिपको की तीन टहनियों का जिक्र किया गया है। शेखर पाठक बताते हैं कि ये तीन टहनियां बदरीनाथ आन्दोलन, सोंगघाटी आन्दोलन तथा अस्कोट-आराकोट अभियान हैं। इन आन्दोलोनों के अन्य सहायक शाखाओं मैती आन्दोलन (चमोली), चेतना आन्दोलन (सिल्यारा), लक्ष्मी आश्रम का खनन विरोधी तथा जंगल बचाओ अभियान, डूंगरी-पैन्तोली का आन्दोलन, पाणी रखो आन्दोलन (गोपेश्वर) बीज बचाओ आन्दोलन (हेन्वलघाटी), नदी बचाओ अभियान, आदि का सन्दर्भ किताब को एक वृहद् कैनवास उपलब्ध कराता है।
अलग अलग समय पर विभिन्न मुद्दों पर हुए इन सामाजिक आन्दोलनों ने मानवीय चेतना को जगाने और सामाजिक परिवर्तन के लिए लोगों को आगे आने के लिए बाध्य होने की कहानी भी इनमें ही निहित हैं। इस किताब के माध्यम से लेखक बखूबी से यह स्पष्ट करते हैं कि व्यक्ति और राज्य के बीच एक तरह की सतत निरन्तरता बरक़रार रखने में समाज की भूमिका प्रमुख है।
‘पारिस्थितिकी’ और ‘आर्थिकी’ का विभाजन पूर्व में चिपको पर हुए कई अध्ययनों में रेखांकित किया गया है। इस मुद्दे पर यह किताब लेखक की वैकल्पिक दृष्टि को परिलक्षित करती है। किताब के दसवें अध्याय ‘वन अधिनियम 1980 के बाद’ में सुन्दरलाल बहुगुणा एवं चंडी प्रसाद भट्ट के बीच अंतर और आन्दोलन के भीतर प्रतिद्वंदिता के विकास का विस्तार से विवरण है। पाठक लिखते हैं, ‘बहुगुणा ने 1980 में चिपको को अपरम्परागत, अल्पजीवी, विनाशकारी अर्थव्यवस्था के खिलाफ स्थायी अर्थव्यवस्था (इकोलॉजी) का सशक्त आन्दोलन कहना शुरु कर दिया था। वे पांच एफ की शब्दावली शुरु कर चुके थे यानि फल, खाद, इंधन, चारा और रेशा प्रजातियाँ लगायी जाएँ और एकल प्रजाति रोपण बंद हो’।
भट्ट और बहुगुणा के बीच वैचारिक दूरी को धीरे धीरे चिपको के ही दो अलग धाराओं के रूप में देखा जाने लगा हालाँकि शेखर इसे अधिक गहराई से समझने के लिए बाध्य करते हैं। वे लिखते हैं कि ‘गुहा ने जब यह लिखा कि ‘पारिस्थितिकी’ चिपको का ‘अन्तर्राष्ट्रीय सार्वजानिक चेहरा’ है और ‘आर्थिकी’ उसका ‘निजी घरेलू चेहरा’ है, तो स्पष्ट ही यह 1980 के आसपास या उसके बाद गढ़े गये चेहरे थे वर्ना आन्दोलन के दो पक्ष हो सकते हैं दो चेहरे नहीं।’
इस किताब के माध्यम से चिपको आन्दोलन में तीन प्रमुख राजनीतिक/वैचारिक धाराओं का समावेश देखने को मिलता है। यह स्पष्ट है बड़ी संख्या में युवाओं एवं महिलाओं के हिस्सा लेने से ही यह एक व्यापक जन आन्दोलन का स्वरूप ले सका। अधिकांश अध्ययन इस आन्दोलन को गाँधीवाद-सर्वोदय, समाजवाद-वामपंथ और नारीवाद के दृष्टिकोण से परिभाषित करते रहे हैं। यह गौरतलब है कि शेखर पाठक ने इन तीनों ही विचारधाराओं के सकारात्मक एवं नकारात्मक पक्षों को खुल करके हमारे समक्ष रखते हैं और इनके बीच एक सामंजस्य की स्थिति को बेहतर बताते हैं ना कि किसी एक पक्ष को ही चिपको का आधार मान लेते हैं।
किताब में लेखक कई जगहों पर अनुपम मिश्र (गाँधी शांति प्रतिष्ठान, दिल्ली), अनिल अग्रवाल (सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट, दिल्ली), सरला बहन (लक्ष्मी आश्रम, कौसानी) सहित कई अन्य शुभचिंतकों द्वारा चिपको को एक सही रूप में प्रस्तुत करने के लिए आभार जताते हैं। शेखर का यह कहना कि चिपको आन्दोलन ‘वह बना दिया गया है’ जो ‘वह नहीं था’, और वह आर्थिकी और पारिस्थितिकी का संतुलित समन्वय था’, इस किताब का सार जान पड़ता है। पारिस्थितिकी संकट के इस भयावाह दौर में जहाँ एक तरफ नये आन्दोलनों की पृष्ठभूमि तैयार हो रही है वहीं ‘हरी भरी उम्मीद’ आने वाले कल के आन्दोलनों को इतिहास से सबक लेने का इशारा भी करती है।
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