भूमंडलीकरण और सांस्कृतिक ग्राह्यता का प्रश्न: श्वेत एवं स्याह पक्ष
वर्तमान परिदृश्य (भूमंडलीकरण) में वैश्विक बाज़ार–व्यवस्था एवं सांस्कृतिक तादात्म्य के औचित्य–अनौचित्य के मुद्दे पर यदा–कदा यथाप्रसंग चर्चा–परिचर्चा होती रहती है। यदि यह कहा जाए कि वैश्विक बाज़ार–व्यवस्था ने भारत के समाजार्थिक एवं सांस्कृतिक पहलुओं को बहुत हद तक प्रभावित किया है, तो असंगत नहीं होगा। समतामूलक समाजवाद (साम्यवाद) के पक्षधर मानते हैं कि इसने जिस परिमाण में संपन्न और विपन्नों (अमीर–ग़रीब) के बीच खाई उत्पन्न कर दी है, उससे देश की बड़ी आबादी में गुस्सा व्याप्त है। संपन्न भारतीयों के मन में ग़रीब और ग़रीबी के प्रति घृणा तथा ग़रीब भारतीयों का अमीरों के प्रति हिंसक विद्वेष भी इसी ना पाट पाने वाली खाई (असमानता) का परिणाम है। यह सकारण–अकारण अंतरदेशांतर्गत गृहयुद्ध का कारण बन सकता है।
चिंतन की इस दृष्टि में विचित्र द्वंद्व है – एक तरफ पूँजी और बाज़ारवाद की निषेधात्मक विवेचना है तो दूसरी तरफ व्यावहारिक स्तर पर पूँजी की अंतहीन चाह भी है। इस संदर्भ में उपन्यासकार जेन स्माइले का कथन युक्तियुक्त है –“क्या पूँजीपति समाज की चिंता नहीं करता? समाज में खुशहाली नहीं लाना चाहता?” (प्रभा खेतान, बाज़ार के बीच: बाज़ार के खिलाफ –भूमंडलीकरण और स्त्री के प्रश्न, पृ. 216 पर उद्धृत) स्मरणीय है, बाज़ार अपने मानकों पर कार्य एवं विस्तार करता है। निस्संदेह भूमंडलीकरण–बाज़ारवाद के प्रभाव से बचना लगभग असंभव है, परन्तु सांस्कृतिक ग्राह्यता की दृष्टि से इसके श्वेत एवं स्याह पक्ष पर ऊहापोह करने की नितांत आवश्यकता है।
ध्यातव्य है कि पिछले पच्चीस–तीस वर्षों में भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद के प्रभाव में विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने भारत के बाज़ार एवं उपभोक्ता के मन–मस्तिष्क पर एक तरह से वर्चस्व स्थापित कर लिया है और उपभोगवादी प्रवृत्ति को बड़े पैमाने पर जाग्रत कर दिया है। वहीं, स्वदेशी एवं आत्मनिर्भरता के प्रति भी आग्रह बढ़ा है। भोग की तुलना में योग की ओर रुझान बढ़ा है। यह भी कि विदेशी बाज़ारों में उपलब्ध होने वाले विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक उपकरण हमारे यहाँ सहज रूप में उपलब्ध हैं।
छोटी–सी–छोटी चीज़ से लेकर बड़े–से बड़े साधन–उपकरण विदेशी कंपनियों के माध्यम से बाज़ार (ऑनलाइन–ऑफलाइन) में उपलब्ध हैं। निस्संदेह हमारे बाज़ार पर विदेशी उद्योगों का वर्चस्व है, परन्तु इन्हीं उद्योगों के आधार पर रोज़गार भी उत्पन्न हो रहा है। वहीं, भारत के मध्यवर्ग के लिए जो आम जीवन की आवश्यक वस्तुएँ बन चुकी हैं, वे भारत की बहुसंख्यक आबादी की पहुँच से अभी दूर हैं। भारत में खाने–पीने वाला एक उच्च मध्यवर्ग पैदा हो चुका है, जो पश्चिम की ‘उपभोक्ता संस्कृति’ को पूरी तरह से धारण करने को उत्सुक ही नहीं, अपितु सचेष्ट प्रयासरत है। यह भारतीय समाज का द्वंद्वात्मक चित्र है। इस चित्र में सांस्कृतिक ग्राह्यता का प्रश्न बारंबार उभरता रहता है।
भूमंडलीकरण में सांस्कृतिक ग्राह्यता : शंका एवं समाधान
भूमंडलीकरण से पैदा होने वाले सांस्कृतिक ख़तरों के बारे में गांधीजी हमें पहले ही आगाह कर चुके हैं। उन्होंने अपनी संस्कृति की जड़ों को पहचानने के लिए कहा था। उन्होंने 1 सितंबर, 1921 के ‘यंग इंडिया’ में लिखा है, “मेरा यह कहना नहीं है कि हम शेष दुनिया से बचकर रहें या अपने आस–पास दीवारें खड़ी कर लें। मैं यह ज़रूर कहता हूँ कि पहले हम अपनी संस्कृति का सम्मान करना सीखें और उसे आत्मसात करें।
दूसरी संस्कृतियों के सम्मान की, उनकी विशेषताओं को समझने और स्वीकार करने की बात उसके बाद ही आ सकती है, उससे पहले नहीं। मेरी यह दृढ़ मान्यता है कि हमारी संस्कृति में जैसी मूल्यवान निधियाँ हैं, वैसी किसी संस्कृति में नहीं हैं। हमने उसे पहचाना नहीं है, हमें उसके अध्ययन का तिरस्कार करना, उसके गुणों की कम क़ीमत करना सिखाया गया है।” (अमित कुमार सिंह, भूमंडलीकरण और भारत: परिदृश्य और विकल्प, पृ. 81 पर उद्धृत)
गांधीजी का कहना उचित ही था। वे चाहते थे कि हम विश्व की संस्कृतियों के सम्पर्क में अवश्य रहें, परन्तु उनके लिए हम केवल खिड़कियाँ ही खोलें। यदि ऐसा करने में चूक हो जाती है, तो भूमंडलीकरण के कारण आयी सांस्कृतिक आँधी (अमेरीकीकरण–चीनीकरण) से हम बच नहीं पाएँगे। ध्यातव्य है कि भूमंडलीकरण का मॉडल ‘सांस्कृतिक वैविध्य’ को अस्वीकार करता है। वह एक बाज़ार, एक संस्कृति का हिमायती एवं वाहक–पोषक है। वह बहुसांस्कृतिकता के स्थान पर सांस्कृतिक ऐक्यका पक्षधर है। वह एक ओर संपूर्ण विश्व पर अमरीकी जीवन–शैली और मूल्य थोप रहा है,तो दूसरी ओर चीनी सामान–साधनों पर आश्रित कर रहा है।
इस विषय में थॉमस एल. फ्रीडमैन ने ‘न्यूयार्क टाइम्स’ में घोषित किया था, “हम अमेरीकन तेज़ दुनिया के प्रचारक हैं, मुक्त बाज़ार के मसीहा हैं और ऊँची तकनीक के वाहक। हम लोग अपने मूल्यों और पिज़्ज़ा–हट का विस्तार चाहते हैं। हम लोग समूचे दुनिया से यही चाहते हैं कि वे हमारा अनुसरण करें और हमारी तरह लोकतांत्रिक व पूँजीवादी बन जाएँ, जिसमें प्रत्येक पॉट में एक वेबसाइट हो, प्रत्येक होठों में पेप्सी हो और प्रत्येक कंप्यूटर में माइक्रोसॉफ्ट हो।”(वही, पृ. 82) यह हर तरह से संभव होता हुआ दिखाई दे रहा है। यद्यपि भारत सरकार ‘आत्मनिर्भरता’ की आग्रही है, तथा पिजिन भारतीयों की जेब में थोड़ी–बहुत पूँजी आयी है, वे फ्रीडमैन के प्रवाह में ‘आदत’ से ‘लत’ तक का सफर तय कर रहे हैं।
अब भारत में भी एक ऐसा वर्ग तैयार हुआ है, जो महानगरों में रहता है और स्वयं को भारतीयों से अलग मानता है और पश्चिम में निवास करने वाले लोगों से अधिक निकट अनुभव करता है। इस मानसिकता ने भारतीय परिवार–व्यवस्था एवं सामाजिक संस्थाओं को लगभग छिन्न–भिन्न कर दिया है। ऐसे अनेकानेक कारणों से भारतीय परिवार, समाज और संस्कृति को पुनर्भाषित करने की नौबत आन पड़ी है।
भूमंडलीकरण ने भारतीय बाज़ार एवं तज्जनित वस्तुओं को ही प्रभावित नहीं किया, अपितु समाज एवं संस्कृति पर भी प्रत्यक्ष–परोक्ष प्रभाव डाला है। नई पीढ़ी सांस्कृतिक परिवर्तन को ‘तुम चंदन हम पानी’ के रूप में ग्राह्यमानती है, तो पुरानी पीढ़ी (पुनरुत्थान की पक्षधर) उससे बचने के नित–नवीन उपाय करती है। इस पुरानी पीढ़ी ने ‘अंकल’(अंकल सैम – अमेरिकी संस्कृति का लोकप्रिय प्रतीक) से लेकर ‘डंकल’(डंकल प्रस्ताव – आर्थिक उपनिवेशवाद) तक का पुरज़ोर विरोध किया है। वह सतत भारतीय ‘लोक’ की सामरस्य पूर्ण भावभूमि को दूषित–कलुषित होने से बचाने का उपक्रम करती है। इस उपक्रम को दृष्टिगत रखते हुए उन्हें ‘पुनरुत्थानवादी’ भी कहा जाता रहा है।
भूमंडलीकरण का भारतीयकरण
कुछ समाजशास्त्रियों का मानना है कि भूमंडलीकरण ने अपने पाँव पसारने के लिए अपना ‘भारतीयकरण’ करना आरंभ कर दिया है। ज्ञात हो कि विश्व की अनेक शक्तियाँ भारतभूमि में आकर भारत के अनुरूप चलती–ढलती रही हैं। भूमंडलीकरण के आरंभ से ही स्थानीय समुदायों में आस्था को लेकर एक सतत संघर्ष चलता रहा है। भूमंडलीकरण ने कुछ हद तक पश्चिमी अवयवों का स्थानीयकरण किया है। इस विषय में उल्लेखनीय है –“कई अन्य समाज–विज्ञानियों का मानना है कि भूमंडलीकरण की संस्कृति और स्थायी समुदायों में आस्था का एक सतत संघर्ष चलता रहता है। ऐसी परिस्थितियों में भूमंडलीकरण सांस्कृतिक पहचान को नहीं मिटा पाता बल्कि एक पश्चिमी संस्कृति के अवयवों का स्थानीयकरण कर देता है।
भारत में इसे पिज़्ज़ाहट के चिकन टिक्का पिज़्ज़ा से लेकर रागा टेक्नो म्यूज़िक तक, यूरोपीय फैशन के परंपरागत भारतीय मोटिफ और डिजाइनरों के मेल से लेकर आहार–विशेषज्ञ शिखा शर्मा के एटकिन द्वारा सुझाए भोजन में आयुर्वेद–आधारित आहार तक देखा जा सकता है। इसे एमटीवी की भाषा और विश्वव्यापी ब्रांड के विज्ञापनों में भारतीय स्थितियों तथा शब्दावली के अनुरूप किए जाने वाले बदलावों में देखा जा सकता है। ब्रिटनी स्पीयर्स और मैडोना भारत में ब्रांड नहीं बेचतीं, लेकिन शाहरूख और प्रीति जिंटा बेचते हैं।” (वही, पृ. 83)
कहना ना होगा कि इस तरह के परिवर्तनों का विस्तारमहानगर–शहरों में व्यापक स्तर पर दिखाई देता है। वहीं, महानगर–शहरों से सटी ग्राम्य संस्कृति कमोबेश रूप में इसकी चपेट में आई है। जहाँ एक ओर भारत के महानगर–शहर भूमंडलीकरण से पूरी तरह एवं बुरी तरह प्रभावित दिखाई देते हैं, वहीं दूर–दराज के गाँव इससे अभी अछूते हैं। ग्रामीणपेशा–आधारित जातियों की आधारभूत विशेषताएँ–व्यवासायिक पेशा, विवाह–प्रणाली एवं खान–पान के संबंध में कोई विशेष परिवर्तन दिखाई नहीं देते। इसलिए भारतीय संदर्भ में भूमंडलीकरण के व्यापक प्रभाव को अर्द्धसत्य माना जा सकता है।
यह भी सत्य है कि भूमंडलीकरण के कारण भारतीय कलाओं को विश्व स्तर पर पहचान मिली और अर्थव्यवस्था को मज़बूती भी मिली है। विदेशों में भारतीय कलाकारों की कलाकृतियों की विशेष माँग दिखाई देती है। भारतीय कलात्मक फ़िल्में विश्वस्तर पर भारतीय संस्कृति की दूत बन गई हैं। कहना ना होगा कि इन फिल्मों के माध्यम से सांस्कृतिक मूल्य, जीवन–शैली, गीत–संगीत एवं नृत्य इत्यादि का सहज प्रचार–प्रसार हो रहा है।
भारतीय फ़िल्म निर्माण–क्षेत्र (बॉलीवुड, टॉलीवुड आदि) हॉलीवुड के वास्तविक प्रतियोगी के रूप में वैश्विक मनोरंजन बाज़ार में उभरकर सामने आये हैं। हमारी योग साधना अब विश्व मान्यता प्राप्त कर चुकी है। भारत सरकार के सहयोग एवं हस्तक्षेप का ही प्रभाव–परिणाम है कि संपूर्ण विश्व आज अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मना रहा है। फैशन जगत में भी हम पीछे नहीं हैं। साहित्य के क्षेत्र में भी भूमंडलीकरण के कारण एक नए युग का आरंभ हो चुका है। इसके स्वरूप भारतीय तथा भारतीय मूल के लेखक समूचे विश्व में लोकप्रिय हो पा रहे हैं।
यद्यपि यह भी सत्य है कि बाज़ार एक नई संस्कृति लेकर आया है। वह अपने विज्ञापनों के माध्यम से इस नई संस्कृति को हमारे ऊपर थोप रहा है। इस नई जीवन–शैली को अपनाना आसान न होने पर भी हम उसके आकर्षण से बच नहीं पा रहे हैं। बाज़ारउ पभोग की लिप्सा जाग्रत कर अपनी वस्तुएँ–सेवाएँ बेच रहा है। यह सत्य है कि व्यक्ति स्वभावतया अपने पुराने मूल्यों को छोड़ने में संकोच करता है। अतः नए सांस्कृतिक संकट से जूझता रहता है। बाज़ार के प्रभाव की दृष्टि से दुविधाओं में फँसा यह वर्ग ना आधुनिक बन पाता है और ना पारंपारिक आदर्शों में स्थिर ही रह पाता है।
भूमंडलीकरण : सामाजिक प्रवृत्तियों में परिवर्तन
भूमंडलीकरण ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भारतीय अवधारणा एवं परंपरागत सीमाओं से परे राज्य, बाज़ार, संवाद एवं विचारों की बढ़ती अंतर्संबद्धता तथा अंतर्निर्भरता का दौर है और यह समकालीन विश्व की प्रमुख विशेषता बन कर उभरा है। यह भी सत्य है कि भूमंडलीकरण अनेकरूपी विरोधाभासी प्रवृत्तियों का शक्ति–पुंज है, जिससे देश, लोक और अर्थव्यवस्था में नित नवीन दबाव एवं तनाव उत्पन्न होते हैं (किये जाते हैं?)। निस्संदेह भूमंडलीकरण ने लोक एवं लोकजीवन के सभी आयामों को प्रभावित किया है। समाजार्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक जीवन का ऐसा कोई भी पक्ष उसके प्रभावों से मुक्त नहीं है।
इसका सकारात्मक पक्ष यह है कि इससे अपने ही क़िस्म की एक नई दुनिया ने जन्म लिया है, जो सूचना–संचार एवं प्रौद्योगिकी के प्रयोग से संपूर्ण विश्व को एक सूत्र में बाँधती है। इसी प्रभाव में विश्व–अर्थव्यवस्था के संपूर्ण रूपांतरण के साथ–साथ व्यापार एवं निवेश की राष्ट्रीय बाधाएँ कम हुई हैं। संचार माध्यमों के विकास एवं प्रसार से बाज़ार (वित्तीय) ने कल्पनातीत विस्तार पाया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को निस्संदेह इस वातावरण का पूर्ण लाभ मिल रहा है। वहीं, क्षेत्रीय आधार पर आर्थिक एकीकरण का नवीन युग आरंभ हुआ है और इस प्रकार एक ऐसे एकीकृत (समन्वित या बलात्) विश्व–बाज़ार का जन्म हुआ है, जिसके परिणामस्वरूप आज मानव के जीवन–स्तर में अप्रत्याशित परिवर्तन दिखाई देते हैं।
भूमंडलीकरण एवं बाज़ारवाद ने रूढ़ हो चुके सामाजिक मुद्दों को बड़े पैमाने पर तोड़ा और एक ‘नई व्यवस्था’ कायम की है। इसके व्यापक प्रभाव में जाति–व्यवस्था जैसी व्याधिग्रस्त प्रवृत्तियों ने ‘लगभग’ दम तोड़ दिया है। यह भी कि बाज़ार ने मीडिया के माध्यम से भूमंडलीकृत भारत में श्रम–संस्कृति एवं सामाजिक ढाँचे का नवीनीकरण तथा अखिल भारतीय स्तर पर प्रसार किया है। उसने लंबे समय से विद्यमान विभिन्न कालबाह्य तथा विभेदकारी दीवारों को ढहाने का काम किया है।
विदित है कि राजनीतिक अस्तित्व एवं वर्चस्व की दृष्टि से दक्षिण भारत में हिन्दी एवं हिन्दी फ़िल्मों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण नहीं था। इस नई व्यवस्था ने हिन्दी को संपूर्ण भारत में नई पहचान एवं स्वीकृति प्रदान की है – विशेषकर विज्ञापनों के माध्यम से। त्यौहार एवं खान–पान के मामलों में भी ऐसी ही सांस्कृतिक समानता की प्रवृत्ति देखी जा सकती है। दक्षिण भारतीय खान–पान अब उत्तर भारतीय लोगों की रुचि में महत्त्वपूर्ण स्थान पा चुका है। इस प्रकार नई व्यवस्था ने भूमंडलीय संस्कृति के प्रचार–प्रसार से उत्तर–दक्षिण–पूरब–पश्चिम भारत को सांस्कृतिक रूप से एक सूत्र में आबद्ध करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
प्रसंगावधान से स्मरणीय है कि भूमंडलीकरण का नकारात्मक पक्ष भी है – इसने वैश्विक अर्थव्यवस्था को जन्म देने के साथ–साथ नई समाजार्थिक समस्याओं को भी जन्म दिया है। इसके प्रभाव में उत्पन्न उपभोक्तावादी संस्कृति ने मनुष्य में भोगवादी लिप्सा जाग्रत कर उसे भ्रमित कर दिया है। मनुष्य असीमित उपभोग के बावजूद सदैव असंतुष्टि–भरा जीवन जीने के लिए अभिशप्त है। मनुष्य बाज़ार के अनुसार स्वयं को सामयिक (अप–टू–डेट) बनाने की जद्दोजहद में जुटा रहता है।
‘यह दिल मांगे मोर’ –जद्दोजहद से मिली कामयाबी के बावजूद वह हरदम नाकामयाबी का दर्द झेलता रहता है। दरअसल, बाज़ार की वस्तुएँ तथा फैशन के रूप–प्रतिरूप तेज़ी से बदलते हैं। कोई संतोषजनक उपलब्धता के चरम पर नहीं पहुँच सकता। परिणामतः अवसाद एवं निराशा–हताशा जीवन में घुसपैठ कर जाती है। इस तरह भूमंडलीकरण के कारण मानव जाति का जितना कल्याण हुआ है, उससे अधिक उसका नुकसान हुआ है और सदैव हो रहा है, जिससे बचना–बचाना असंभव–सा प्रतीत होता है।
भूमंडलीय बाज़ार में स्त्री: गिरफ़्त या आज़ाद?
भूमंडलीय सार्वजनिक नीति के माध्यम से हुए सुधार के परिणामस्वरूप परिवार–व्यवस्था में बदलाव आया और सामाजिक पुनरुत्पादन की क्रान्ति के रूप मेंस्त्री नवीन अर्थों में तथा विवादित रूप में ही मुक्त हुई। नारीवादियों के अनुसार स्त्री को दैहिक–लैंगिक संबंध एवं उसकी यौनिकता के आधार पर ही समाज में स्थान प्राप्त हो रहा है। वह भी येन केन प्रकारेण पदभिप्सित होकर बाज़ारवादी माया की गिरफ़्त में जाने को उद्यत है।
‘ओवर–द–टॉप’(ओटीटी) मीडिया सेवापटलों पर परोसे जा रहे अधिकतर वेब–श्रृंखलाओं में स्त्री–रूप–देह इसी मायावाद की गिरफ़्त में दिखाई देती है। चढ़ती जवानी मेरी चाल मस्तानी (बट–पिंचिंगनृत्य), मुन्नी बदनाम हुई, शीला की जवानी, जलेबी बाई, अगं बाई हल्ला मचाए रे, बेबो, बेबी डॉल, पिंक लिप्स इत्यादि से होकर स्त्री–देह को उसकी वैचारिकता से अधिक महत्व दिया गया है। बाज़ार ने स्त्री–देह को हर तरह से ‘कैश’ किया है और वह भी ‘आइटम’ करने से लेकर ‘बम’ कहलाने तक वर्जनाओं को तोड़ने में जुटी है।
इस दृष्टि से प्रभा खेतान के विचार प्रसंगोचित हैं – “लैंगिक संबंधों के नए आदर्श पश्चिम से आयात किएगए हैं। स्त्री को इससे पहचान मिली और दूसरी ओर पहचान के साथ उसकी यौनिकता और श्रम का वस्तुकरण हुआ है। बहुराष्ट्रीय बाज़ार–व्यवस्था के कारण यौन वस्तुकरण और राष्ट्रेतर यौन बाज़ार में स्त्री का जीन्स की भाँति बिकना वास्तव में भारतीय जनतंत्र में एक शोषणकारी परिणाम के रूप में उभरा है। दूसरी ओर लैंगिक संबंध और पहचान पर उठी बहस का विधेयक पहलू यह है कि नए भूमण्डल के आदर्श और संस्कृति ने स्त्री को मीडिया में एक व्यक्ति और नागरिक के रूप में सशक्त किया है।
तीसरी पहेली है औपचारिक राजनीति में पुरुषों की भागीदारी का बढ़ना और नागरिक समाज में स्त्रियों का हस्तक्षेप, जिसके कारण आरक्षण को स्वीकारते हुए भी आरक्षण का मुद्दा एक बार फिर से ठंड़े बस्ते में डाल दिया गया है। स्त्रियों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व में कमी आई है। पुरुषों का वर्चस्व बढ़ा है। मगर इसी के साथ पंचायत स्तर पर स्त्री की सरगर्मी नज़र आ रही है।” (प्रभा खेतान, बाज़ार के बीच: बाज़ार के खिलाफ –भूमंडलीकरण और स्त्री के प्रश्न, पृ.66)
वैसे, भूमंडलीकरण का प्रभाव हर जगह एक जैसा नहीं है। एक ओर बाज़ार के प्रभाव ने स्त्री का उपरोक्त रूप (दैहिक–यौनिक) उभारा है तो स्थानीय महिलाओं के जीवन और समाज में उनकी भूमिका को मौलिकता प्रदान की है। प्रभा खेतान के कथन से समझा जा सकता है कि समाज में भारतीय स्त्री के हस्तक्षेप के बावजूद उन्हें पूरी तरह से सशक्त होने में (?) अभी समय लग सकता है।
भारतीय स्त्री और पश्चिम की स्त्री में यह भी अंतर है कि वह स्थानीय स्तर पर होने वाले यौनिक और श्रम शोषण का विरोध नहीं कर पाती, जबकि पश्चिम की स्त्री मुखर रूप से उसका विरोध करती है। भूमंडलीकरण के कारण स्त्री के वेतन में सकारात्मक परिवर्तन आये हैं। स्त्री और पुरुष को एक जैसे काम के लिए अब समान वेतन मिलने लगा है। वैसे, भूमंडलीकरण के कारण आये इस वेतन परिवर्तन का लाभ गाँव में काम कर रही मज़दूर स्त्रियों को अभी तक नहीं मिला है। आज भी गाँवों में स्त्रियों को पुरुषों से कम वेतन दिया जाता है।
प्रभा खेतान ने नारीवाद के इतिहास पर कटाक्ष करते हुए लिखा है– “नारीवाद के इतिहास में यह घटना यों घटी– द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले तक बाहरी दुनिया में पुरुष कमाने जाता था, औरत घर में रहती थी। मगर कुछ औरतों को यह मंज़ूर नहीं था, पुरुषों की तुलना में वे किसी भी मुक़ाम पर कमतर नहीं रहना चाहती थीं। उनमें से ‘कुछ औरतें’ घर की चौखट लाँघ गईं, बाहर जाकर उन्होंने एक नई दुनिया देखी, बहुत कुछ देखा समझा।
समानता और स्वतंत्रता के मुद्दों पर उन्होंने सवाल उठाया, बहस छेड़ी और इसके बाद प्रत्युत्तर में पितृसत्ता के निषेधक रवैये पर बस उन्होंने गोलियाँ दागनी शुरू कर दीं। पहली गोली लगी, गृहस्थी की भूमिका पर। औरत क्यों घर की चहारदीवारी में कैद रहे, अकेली वही क्यों बच्चों की, वृद्धों की ज़िम्मेदारी सम्हालें। किसलिए वह भोजन बनाकर प्रतीक्षा करती रहे। क्या वह केवल अंकशायिनी बनकर रह जाए? और यहीं से नारीवाद की यात्रा शुरू होती है, जो आज भी जारी है। लेकिन पहली गोली जो घरेलू औरतों की भूमिका पर दागी गई थी, उसकी अनुगूँज आज भी पितृसत्तात्मक संस्कृति के गलियारे में गूँज रही है।”(वही, पृ.215)
स्पष्ट है कि स्त्री थोपी गई भूमिकाओं पर सतत सवाल करने लगी है। धीरे–धीरे स्त्रियों ने अपनी चुप्पी तोड़ना आरंभ किया है। वह मुखर होकर अपने जीवन और समस्याओं के बारे में कहने लगी है। नारीवादी चिंतकों ने स्त्री की हर भूमिका को चुनौती दे डाली और इसके कारण उन्हें सबसे दुश्मनी भी मोल लेनी पड़ी है। परन्तु इसके कारण पितृसत्तात्मक समाज की सोच में बदलाव आने शुरू हुए हैं। समाज को लगने लगा है कि स्त्री भी एक मनुष्य है, उन्हें अपने विचार रखने का पूरा अधिकार है। इस तरह धीरे–धीरे स्त्रियों के प्रति विचारों में परिवर्तन आया है।
स्त्री आंदोलनों के कारण स्त्री के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन तो आये परन्तु कुछ बातों ने स्त्रियों के जीवन में अकेलेपन, उदासी और चिड़चिड़ापन भी भर दिया है। भूमंडलीकरण के इस दौर में स्त्री चिंतकों से कह रही है, “हमने अपने भीतर की औरत को खोज निकाला है। हमारे पूर्वजों ने अपने औरतपन को नकारा। उन्होंने जो हासिल किया, वह तो ठीक है मगर वे अपने प्रति उदासीन रहीं…जिसका परिणाम था, अकेलापन, उदासी, चिड़चिड़ापन। अपनी ज़िन्दगी को उन्होंने जिया नहीं, भोगा नहीं।”(वही, पृ. 216)
प्रभा खेतान ने नारीवादी उपन्यासकार जेन स्माइले का उदाहरण देते हुए बताया है कि किस तरह स्माइले शुरूआत में सजने–सँवरने से दूर रहा करती थीं। औरतों के नाज़–नख़रों से दूर रहा करती थीं। उनके बालों का स्टाइल पुरुषों जैसा था और कपड़े भी। वे उपभोक्तावादी संस्कृति से काफ़ी दूर रहने लगी थीं। परन्तु कुछ समय बाद उसे लगने लगा कि वह बुद्धिमान स्त्री के साथ–साथ सुंदर भी दिखना चाहती है-
“मेरी पूर्वजों ने हमेशा द्वित्व में सोचा, वे विभाजन में जीती रहीं। उन्हें सुंदरता और बुद्धि, देह और मन, भीतरी तत्व और ऊपरी तत्व, पूँजीवाद और समाजवाद, घर–बाहर इसी में से किसी एक का चुनाव करना था। मगर मैं तो दोनों चाहती हूँ यानी मैं सुंदर भी दिखना चाहती हूँ और बुद्धिमान भी। मुझे दोनों की ज़रूरत है और दोनों को भी मैं हासिल करके रहूँगी। भला पूँजीवाद में बुराई क्या है? क्या पूँजीपति समाज की चिंता नहीं करता? समाज में खुशहाली नहीं लाना चाहता?” (वही, पृ. 216) इस कथन में एक ओर स्त्री की वैचारिकता दृश्यमान है,तो दूसरी ओर बाज़ारवादी–उपभोक्तावादी संस्कृति पर उसका अपना दृढ़ अभिमत भी।
वैश्वीकरण और देसी भाषा(ओं) का प्रश्न
भूमंडलीकरण–बाज़ारवाद के प्रभावों के आलोक में भाषाओं का प्रश्न भी प्रमुख है। दो राय नहीं कि भारतीय भाषा(ओं) पर भी वैश्वीकरण का प्रभाव देखा जा सकता है। हिन्दी के प्रसार को दृष्टिगत रखते हुए कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण के वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भारतीय बाज़ार की शक्ति जैसे–जैसे बढ़ेगी, भारतीय भाषाएँ और हिन्दी की भूमिका बृहत्तर होगी। वैश्वीकरण का यह युग एक तरह का ‘कंपनी युग’ ही है।
इस युग में औद्योगिक उत्पाद, उपभोक्ता, बाज़ार और प्रौद्योगिकी का सर्वथा नया संबंध बन रहा है। इसमें देशीय अथवा राष्ट्रीय कुछ भी नहीं है। सबकुछ बहुराष्ट्रीय है। परन्तु इस बहुराष्ट्रीय की भाषा हमारे देश–समाज से जुड़ी हुई है। अर्थात् हमारे बीच बाज़ार में जो चीज़ें बिक रही हैं, वह दुनिया के किसी भी हिस्से का उत्पाद हो सकती हैं, परन्तु बिक रही हैं– हमारी भाषा(ओं) में। एक तरह से नई व्यवस्था की यह बाध्यता है कि अपने विस्तार हेतु उसे स्थानीय भाषा(ओं) में ही कार्य–व्यापार करने होंगे। कहना ना होगा कि भारत के परिप्रेक्ष्य में यह स्थानीय भाषा व्यापक अर्थ में –हिन्दी ही है।
भारत में बाज़ार का शास्त्र हमारी ही भाषा(ओं) में रचा जा रहा है। यह सच है कि हमारे जीवन की आवश्यकताओं का निर्णय अब हम नहीं करते, बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ करती हैं। हम क्या खाएँ–पीएँ, हम क्या ओढ़ें–बिछाएँ, हम कहाँ खर्च करें, कहाँ निवेश करें इन सबका दर्शन अब कंपनियाँ सायास–अनायास समझाती हैं। परन्तु स्मरणीय है, यह सब हमारी अपनी भाषा(ओं) में ही हो रहा है। अपनी ही भाषा के बल पर (निस्संदेह हमें भ्रमित कर!)।
विज्ञापनों की चकाचौंध में उलझा कर कोई पराई भाषा, दूर देश की विलायती भाषा हमारी चेतना को इस हद तक कुंद कर ही नहीं सकती कि हम अपने दैनंदिन निर्णय भी उसके बूते, उसके प्रभाव में करने लगें। भारतीय भाषाओं के विज्ञापनों की तुलना में अंग्रेज़ी चैनल और विदेशी चैनलों पर बढ़ते हिन्दी कार्यक्रम भी हमारी भाषा(ओं) की व्यापारिक और वाणिज्यिक शक्ति के ही परिचायक हैं। इस दृष्टि से भाषा(ओं) ने इस भूमंडलीय बाज़ार का भारतीयकरण किया है।
मेरा दृढ़ अभिमत है कि भूमंडलीकरण ने समाज–संस्कृति–राजनीति–भाषा को किसी–न–किसी रूप में प्रभावित किया है। अनेकानेक क्षेत्रों में उसके सकारात्मक–नकारात्मक प्रभावों पर ऊहापोह करते हुए तथा उनकी समीक्षा करते हुए यह अनुभव किया जा सकता है कि भूमंडलीकरण से एक‘संक्रांति युग’ का आरंभ होता है। ऐसे में निस्संदेह बहुत–कुछ टूट रहा है, तो नया आकार भी ग्रहण कर रहा है। जो गिरफ़्त में है, वह मुक्ति के लिए छटपटा रहा है। जो लोक एवं देशानुकूल नहीं है, लोक उसे स्वयं ही तज रहा है।
यह धिक्कार से अधिकार तक की यात्रा है। भारतभूमि में आयीं अनेक शक्तियों को जिस प्रकार भारतानुकूल रूप धारण करना पड़ा, उसी प्रकार भूमंडलीकरण का भारतीयकरण हो रहा है। आत्मनिर्भर (कौशल भारत – कुशल भारत) का आग्रह ‘अंकल’ और ‘डंकल’ के विरोध का ही नया रूप माना जा सकता है। भारत ने अपनी नीतियों से विश्व में अपनी प्रतिष्ठा एवं समुचित स्थान बनाया है।