स्त्री-विमर्श और मीराकांत का ‘नेपथ्य राग’ – वसुंधरा शर्मा
- वसुंधरा शर्मा
पश्चिम के ज्ञानोदय ने वंचित, उपेक्षित, उत्पीड़ित तबकों में चेतना का संचार किया, फलतः समाज राजीनति साहित्य एवं कला क्षेत्रों मे कई अस्मिताओं का उदय हुआ दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक एवं अश्वेत वर्ग अपने-अपने अधिकारों और अस्मिता को पुनःजीवित करने के लिए सक्रिय हुए। दुनिया की जनसंख्या
का आधा भाग अर्थात् ‘स्त्री’ सदियों से ‘पुरूष-सत्तात्मक समाज’ में उपेक्षित और प्रताड़ित रही है। ज्ञानोदय की चेतना ने ‘स्त्री-अस्मिता’ के प्रश्नों को ‘स्त्री-समाज’ में कुरेदा और स्त्रियां अपने अस्तित्व और स्वजों को साकार करने के लिए जीवित समाजों में आत्मसम्मान से अपना सर उठाने लगीं। परिणामस्वरूप साहित्य समाज राजनीति और कला-क्षेत्रों मे ‘स्त्री-विमर्श’ का प्रार्दुभाव हुआ। ‘स्त्री-विमर्श से तात्पर्य है- समाज में स्त्रियों को केद्रीय परिधि में लाना। स्त्री को उसको अस्मिता का ज्ञान कराना, चाहे वह सामाजिक स्तर पर हो, आर्थिक या राजनीतिक स्तर पर। ताकि स्त्री को उसके ‘स्व की अनुभूति हो, वह अपनी ‘अस्मिता और अपने होने का अर्थ समाज में सार्थक कर सके। स्त्री को ‘पुरूष वर्चस्ववाद या पुरूष सत्तात्मक समाज की पराधीन वस्तु माना गया और उसे पुरूष का उपनिवेश घोषित किया गया। सामाजिक,राजनीतिक व्यवस्था और जीवन में यह स्थिति केवल और केवल गुलामी की थी। समाज में प्रायः स्त्री को अपने अधिकारों और अस्मिताओं को खोजनाए ‘मैं क्या हूं?’ परिवार, समाज और राजनीतिक व्यवस्था में मेरा क्या स्थान है? मैं क्या चाहती हूं? मुझे क्या चाहिए? ये सभी प्रश्न स्त्री-विमर्श के संदर्भ में प्रश्न खडा करते हैं|
‘मीराकांत’ 21वीं सदी के दौर में अपनी रचनाओं के माध्यम से वर्तमान समाज में स्त्री को नेपथ्य के माध्यम से समाज के सामने खड़ा करती हैं और पुरूष-सत्तामक समाज में प्रश्न-चिहृन लगाती हैं। मीराकांत हाशिए पर पड़ी स्त्री को केन्द्र में ला कर मंच पर स्थापित करना चाहती हैं।
पित्तृ सत्तात्मक समाज में स़्त्री की आजादी अस्मिता और निजी पहचान के प्रश्नों से जूझता हुआ ‘नेपथ्य राग’ नाटक आधुनिक परिवेश में कथावाचन शैली में प्रारम्भ होता है जहाँ एक ओर ‘इक्कीसवीं सदी’ की पढ़ी-लिखी और काम काजी स्त्री ‘मेघा’ है जो अपने दफतर के पुरूष सहकर्मियों से सहयोग न मिलने के कारण परेशान है तो दूसरी ओर चैथी.पाँचवी शती की विलक्षण बुद्धि वाली ज्योतिष विधा में निपुण ग्रामबाला खना है जो पुरूष समाज के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने के लिए संघर्षरत है। ‘नेपथ्य राग’ का संसार जिन छवियों से निर्मित हुआ है वह इतिहास, वर्तमान और भविष्य तक विस्तार देता है। ‘‘प्रतिभाशाली स्त्री के दुखद अन्त के दर्द व चुभन को शब्द देना नाटककार का उददेश्य है। नाटक की कथावस्तु चैथी-पाँचवी ‘शताब्दी की ‘खना’ की पीड़ा से इक्कीस्वी सदी की मेघा’ की वेदना तक विस्तार पाती है क्योकि उसके मूल में एक ही विचारधारा काम कर रही है- वैचारिक आभिव्यक्ति से रहित स्त्री ही समाज को स्वीकार्य रही है।
खना ने आचार्य वराह मिहिर से ज्योतिष विधा सीखकर तो पायी थी लेकिन इस कार्य के लिए उसकी मेहनत, लगन को नही सराहा गया (सम्भवतरू) किसी पुरूष ने ऐसा किया होता तो वह इतिहास पुरूष बन जाता। नाटक की आधुनिक पात्र माँ अपनी बेटी मेधा को यह बताते हुए, कि पुरूष प्रधान समाज में स्त्री की योग्यता को कैसे नकारा जाता है कहती है ‘‘कहा गया कि रवना ने वराह मिहिर द्वारा तैयार किया गया ज्योतिष्मति तैल पी लियाश् या ‘‘रवना ने प्रसिद्धि तो पाई लेकिन पुरूष समाज जो ‘उस प्रसिद्धि पर ‘अपना एकाधिकार चाहता है, वह कैसे सहन कर पाता? उसके ज्ञान उसकी प्रसिद्धि को वे लोग कहाँ पचा पाए जो हमेशा से उस दुनिया को हथियारा बैठे थे।’’
‘‘ खना: (चरण नही छोड़ती। केवल इतना ही?)
वराह मिहिरः (नीचे रवना की ओर देखते हैं) शून्य ललाट पर शीघ्र किसी के अनुराग का सौभाग्य-चिन्ह दिखाई दे |
खना: (अपर को देखकर) बस इतना ही गुरूवर?
वराह मिहिर: (मुस्काराते हुए) केवल इतने से सन्तोष नही है तो चलो आज तुम्हे यह आशीष देते है कि किसी कुलीन सभान्त श्रीमन्त के घर की कुल लक्ष्मी बनो।
खना: (चरण छोड़ उठती है। फिर हाथ जोड़कर) मुझे आश्रय चाहिए ज्ञान का आश्रय आपका आक्षय ज्ञानमार्गी होने का वरदान दीजिए।
विक्रमादित्य जब रवना को सभासद बनाना चाहते हैं, तो उसके विवाहिता हाने के कारण स्वंय भी चिन्तित है, कि कोई इसे स्वीकार करेगा या नही। विवाह संस्था में रहते हुए एक स्त्री शीर्ष स्थान पर अपनी जगह बनाना चाहती है, तो उसे उम्र के उन पड़ावों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है, जब तक बच्चे बड़े न हो जाएँ और वह परिवार के लिए फालतू न हो जाए।
भारतीय समाज की परंपरा में स्त्री की पहचान बहन, पत्नी, माँ, बेटी आदि रूपो में है उसकी अपनी कोई निजी पहचान नहीं है स मीराकात के सभी नाटकों की स्त्री अपनी एक निजी पहचान चाहती है। चाहे वह ईहामृग की ‘सिक्त छाया’ और स्नेहगघा हो या फिर नेपथ्य राग’ की रवना और मेघा हो, लेखिका ने स्त्री की अस्मिता के संधर्ष को कही टूटने नही दिया। गिरीश रस्तोगी के अनुसार ’नेपथ्य राग’ नाटक का वातावरण आरभ से ही बौद्धिक और सेवदानात्मक टकराहट का है।
‘‘खना: (उदास स्वर मे) क्या भविष्यवाणी और क्या ज्योतिष बन्धु काका हमने क्या सोचा था परन्तु
सुबन्धु: (जिज्ञासापूर्वक) क्या सोचा था?
खना: यही कि ज्योतिषविद के परिवार में जा रही हूँ लगा था निरन्तर नवग्रहों के सान्निध्य में रहूगी नक्षत्रों से बातें करूँगी पृथ्वी और आकाश का अन्तराल नापूँगी परन्तु
सुबन्धु :क्या हुआ तुम सुखी तो हो?
खना: पृथुयशस की पत्नी और आचार्य वराह मिहिर की पुत्र वधू के रूप में तो हूँ परन्तु पता नही काका कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि रवना कही खोती जा रही (अचानक पलटकर) क्या रवना खो जाएगी।
दूसरी ओर आधुनिक पात्र मेधा जो अफसर है जो इस पुरूष प्रधान समाज में अपनी अस्मिता को चूर-चूर होते देखती है तो अपनी माँ से कहती है| ममा मन में एक घुटन सी होती है। समझ में नही आता क्या करूँ। वस्तुतः पुरूष की मानसिकता ने उसकी अस्मिता को हमेशा झुलसाने का प्रयास किया है।
स्त्री.विमर्श के विभिन्न पहलुओ को छूता हुआ यह नाटक कोई बंधा-बंधाया समाधान तो प्रस्तुत नही करता लेकिन सोचने के लिए विवश अवश्य करता है कि क्या स्त्री की स्थिति कभी नही सुधरेगी? नाटक का कथ्य विशेष वर्ग की स्त्री तक सीमित नही बल्कि एक सामान्य स्त्री आसपास की जिन्दगी से ली गयी स्त्री के दुख-दर्द का प्रार्तनिधित्व करता है समीराकांत समाज में ‘स्त्री-पुरूष’ की असमान स्थिति को उजागर कर रही है। सारे अधिकार पुरूष के नियन्त्रण में है और स्त्री मात्र उसकी एक दासी बनकर रह जाती है उसे ‘देवी’ तो बनाया जाता है परन्तु एक मनुष्य के रूप में नही देखा जाता। स्त्री की पहचान उसकी देह के आधार पर की जाती है। जैविक संरचना के आधार पर ही ‘स्त्री-पुरूष’ में भिन्नता प्रकट हो ऐसा जरूरी नही बल्कि स्त्री को पुरूषों द्वारा तय की गयी स्त्री की छवि के रूप में देखना ‘पितृसत्तात्मक’ व्यवस्था की देन है, यही दृष्टिकोण विभेद पैदा करता है |
मीराकांत का सृजनशील मन वर्तमान समाज की बहसो में शामिल भी होता है और उन पर गहराई से विचार-विमर्श करके उसे सही रचनात्मक दिशा की देता है। एक स्त्री होने के नाते स्त्रियों के प्रश्नो.स्थितियों.विसगतियोंए समाज व शासन तन्त्र का उनके प्रति व्यवहार कुल मिलाकर समाज की नीव में बहुत गहरे तक बैठी पितृसतात्मक व्यवस्था की वास्तविकता पर सदियों से छाये घटाटोप को हटाकर सच्चाई की पहचान करवाती है स स्त्रियों के खिलाफ बनाये गए मूल्योए वर्जनाओ मापदंडों पर सवालिया निशान लगाती हैं जो स्त्री को हमेशा अस्तितवहीन, अस्मिताविहीन एक सुन्दर हाड-मांस के पुतले की छवि प्रदान करता है।
मीराकांत वस्तुतः समाज में ‘स्त्री-पुरूष’ की असमान स्थिति को ही उजागर कर ही है। जहाँ सारे अधिकार पुरूष के नियन्त्रण में हैए स्त्री मात्र उसकी एक दासी बनकर रह जाती है उसे ‘देवी’ तो बनाया जा सकता है परन्तु एक मनुष्य के रूप में नही देखा जाता। स्त्री की पहचान उसकी देह के आधार पर की जाती है। एक विवाहिता स्त्री अगर ज्ञान प्राप्त करना चाहे व अपने व्यक्तित्व विकास के लिए कुछ करना चाहे तो यह डगर बहुत कठिन और काँटो से भरी है।
लेखिका कर्नाटक विश्वविद्यालय में पी-एच.डी. शोधार्थी हैं|
सम्पर्क- +919108972053, vasundharaplacid@gmail.com
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