सामयिक

महामारियां बनाम मनमानियाँ

 

कोरोना की दूसरी लहर में बहुत से अपनों से बिछड़ना हुआ। बहुत कुछ असहनीय इस बीच घटा। मगर जीवन जगत के कार्य-व्यापार तो बदस्तूर चलते ही हैं। उन्हीं में कभी रोशनी के कतरे भी हाथ लग जाते हैं, पहाड़ सी चुनौतियों के बीच आशा-दीप से दिपदिपाते। आज क्लास में ऐसा ही कुछ हुआ जब रांगेय राघव का रिपोर्ताज ‘अदम्य जीवन’ पढ़ा रही थी। हालांकि पढ़ाने जैसा कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ी। लेखक के अपने शब्द ही पर्याप्त साबित हुए लेख का मंतव्य विद्यार्थियों तक सम्प्रेषित करने में।

विशाल ने वाचन किया “नदी की पतली धार में कुछ नंगे लड़के नहा रहे थे, जिनकी पतली हड्डियों से टकराकर छोटी-छोटी लहरें मानो निराश-उदास लौट जाती थीं। उन्होंने हमें देखा और समवेत स्वर से चिल्ला उठे – ‘इंकलाब जिंदाबाद! इंकलाब जिंदाबाद!!’ गर्व से मेरी छाती फूल उठी। कौन कहता है कि बंगाल मर गया है? जहाँ भूख और बीमारियों से लड़कर भी मनुष्यों के बालकों में क्रांति को चिरंजीवी रखने का अपराजित साहस है, वह राष्ट्र कभी नहीं मर सकेगा। हड्डी – हड्डी से लड़ने वाले ये योद्धा जीवन की महान शक्ति को अभी तक अपने में जीवित रख सके हैं।

मनुष्य भूख से तड़प-तड़प कर यहाँ जान दे चुके हैं, वे भीषण रोगों का शिकार हो चुके हैं, उनके घर खंडहर हो गए हैं, कब्रों से जमीन ढँक गयी है, नदियों से लाशों की सड़ाँध एक दिन दूर-दूर तक फैल गयी थी, किंतु मनुष्य का साहस जीवित है। आज भी बंगाल के बच्चे क्रांति को नहीं भूले हैं। क्या इन योद्धाओं ने भारतीय संस्कृति की जड़ों पर होने वाले आघात को सहकर आज संसार को यह नहीं दिखला दिया कि जनशक्ति कभी पराजित नहीं हो सकती? वह कभी मर नहीं सकती?….ये वीरों की तरह  लड़े हैं। आज शिद्धिरगंज की पृथ्वी शहीदों के मजारों से ढँक गयी है। युग-युग तक संसार को याद रखना पड़ेगा कि एक दिन मनुष्य के स्वार्थ और असाम्य के कारण, गुलामी और साम्राज्यवादी शासन के कारण, बंगाल जैसी शस्य श्यामला भूमि में भी मनुष्य को भूख से दम तोड़ना पड़ा था। और लोगों ने उसे पूरी शक्ति से इसलिए झेला था कि मानवता जीवित रहना चाहती थी। उसे कोई मिटा नहीं सकता।”

पाठ के वाचन के बाद दिनेश ने रांगेय राघव का आशय स्पष्ट करते हुए बताया  “इस लेख के माध्यम से बंगाल के इस गाँव में अकाल की वीभत्स छाया का सजीव चित्रण लेखक कर रहे हैं। पहला अकाल खत्म हुआ नहीं और बाढ़ की विभीषिका ने उन्हें बुरी तरह रौंद कर रख दिया। इस हाहाकार को उनकी जिंदगियों में घटित होते हुए ऐसे लिखा गया है कि कैमरे की आँखों से उन दृश्यों को साफ देखा जा सकता है और हम समूचे जीवन में पड़ी आपदा की छायाओं को महसूस कर सकते हैं।”

उसकी बात अभी पूरी हुई भी नहीं थी कि अंकित अधीर आवाज में बोल पड़ा कि “मगर बाढ़ और अकाल ने जैसा हाहाकार उनकी जिंदगियों में पैदा कर दिया उसका मुख्य कारण प्राकृतिक आपदा नहीं थी वरन मनुष्य के अंधलोभ और स्वार्थप्रेरित नीतियों का शिकार बने लोग। लिखा नहीं है साफ-साफ पेज नं. 59 में कि मनुष्य का स्वार्थ और भीषण व्यापार इन्हें निचोड़ रहा है?” अक्षिता ने अगले पृष्ठ से पढ़कर उद्धरण जोड़ा “जिधर मनुष्य को नंगा रखकर मनुष्य ने अपने मुनाफों के लिए बेशुमार कपड़ा तालों में बंद कर रखा था, जहाँ वस्तु, मनुष्य के लिए न होकर पैसों के लिए बनी थी। कितना बड़ा व्यंग्य और विद्रूप था यह कि आज कपड़ा बनाने वाले स्वयं नंगे थे।” भूख से मरते हैं, लोग तो क्या हुआ ?

रमेश ने अगले पेज के इस हिस्से से अक्षिता की बात को आगे बढ़ाया कि “कुनैन, सिन्कोना जैसी जरूरी दवाइयाँ भी नहीं थीं, चावल भी उपलब्ध नहीं। विभीषिका के लंबे समय बाद भी अधपेट या भूखे और बीमार जिस्म ही हर ओर दिखाई दे रहे थे। बूढ़े दिखते युवा, कंकाल जैसे शरीर। चीजें उपलब्ध थीं भी तो चोर बाजार में, हर एक चीज पर मुनाफाखोरी हो रही थी।” रूपल ने गाँव के एक आदमी के द्वारा बोली गयी ये पंक्तियाँ पाठ से पढ़ते हुए कहा कि एक तो पहले ही जीवन को बनाए रखने वाली मूलभूत चीजों का ऐसा घोर अभाव, ऊपर से जितनी हैं उनका भी वितरण अन्यायपूर्ण ढंग से हो रहा था। “गाँव-कमेटी के, यूनियन-बोर्ड के मेंबर सब चोर हैं, चोर। कोई हमारी परवाह करता है? रिश्तेदारों को कारड देते हैं, अपनों को देते हैं, हमारी क्या पूछ..?

पूजा ने कहा, “तो अगली पंक्ति भी तो पढ़ो, यहीं तो असली मर्म है। शिद्धिरगंज की रूह को दहला देने वाली दारुण जीवन परिस्थितियाँ दिखा कर और मानव-निर्मित कारकों को इसके लिए जिम्मेदार बता कर ही लेखक नहीं रुक जाना चाहते तभी तो इस आदमी की बात पर दूसरे की यह प्रतिक्रिया दिखाई गयी है कि ‘हममें एका नहीं है, वर्ना क्या मजाल कि वह अपनी मनमानी करें।’ इस कथन को सुनकर लेखक को मनुष्य की आंतरिकता की उजास दिख जाती है ‘तब तो बंगाल अभी जीवित है। आज भी वह अपना रास्ता खोज निकालना जानता और चाहता है। भूख से व्याकुल होकर भी यह भारत की संस्कृति-जनक सिर झुकाने को तैयार नहीं है। आज भी वह इन सब आँधी-तूफानों को झेलकर फिर से विराट रूप में फूट निकलना चाहता है। सचमुच कोई इनका कुछ नहीं कर सकता। यदि जनता में चेतना है, तो इन्हें भूखों मारने वाले नर पिशाच नाज-चारों का अंत दूर नहीं है।’ ”

मेरे दखल के बिना ही छात्र-छात्राएँ मिल-जुल कर शब्दों में समाए अर्थों की तमाम तहें और परतें निकाल रहे थे। बल्कि एक के मन की बातें दूसरे की जबान से फूट रही थीं। वे तत्कालीन यथार्थ के अलग-अलग आयाम उद्घाटित कर रहे थे। मगर यह बात सभी के संज्ञान में थी कि यह विकट स्थिति मानव-निर्मित है और मानव ही इसे दूर कर सकता है। वे स्थिति की भयावहता से विचलित भी थे और अन्यायी के प्रति क्रुद्ध भी।  

       गाँव की वस्तुस्थिति से नितांत भिन्न राग अलापने वाले प्रशासन पर व्यंग्य करते हुए आनंद ने लेख की यह पंक्ति दोहराई “हमने 75 फीसदी आदमियों की हालत सुधार दी है..” वह वास्तविकता और दिखाए गए के बीच की खाई पर रोष से कुछ बोल ही रहा था कि अचानक इंटरनेट में आई बाधा के कारण क्लास की गतिविधि चंद मिनटों के लिए बाधित हुई। इस समय छात्र  उनके भीतर उपजी नवीन संवेदना की ताजी उत्तेजना से भरे हुए थे। इसलिए चंद पलों का विराम भी उन्हें विचलित कर गया। क्लास के दोबारा जुड़ते ही जतिन थोड़ा झल्ला कर बोला कि “क्या मैडम आपके एमटीएनएल के चलते ऐसा होता है। दूसरा कोई इंटरनेट क्यों नहीं प्रयोग करतीं?

अक्सर क्लास विषय-केंद्रित ही रहती है मगर आज संवाद में बाधा छात्रों को कतई बरदाश्त नहीं थी, इसलिए मुझे स्पष्टीकरण देना जरूरी लगा कि तीनों प्रमुख कंपनियों की व्यवस्था कर के रखती हूँ ताकि कॉलेज के कार्य अबाध जारी रह सकें। मगर हमारे क्षेत्र में एक कंपनी की तारें अब तक पहुँची नहीं हैं और दूसरी का नेटवर्क चंद दिनों से ठीक काम नहीं कर रहा है। शिकायत करने पर यही एक वाक्य थमा दिया जाता है कि सिग्नल वीक हैं, ठीक करने का काम जारी है। कई दिन बीतने पर पदाधिकारी से बात की तो उन्होंने खेद जताते हुए कहा कि मैडम थोड़ा समय लगेगा। हमारे पास कर्मचारियों की कमी है। बहुतों को कोरोना हो गया है।

       सुशीला जो अभी पूरी तरह रिकवर भी नहीं हुई थी रुँआसी आवाज में फूट पड़ी “संवाद की ही बाधा से तुम लोग इतना परेशान हो गए? ऑक्सीजन के कतरे-कतरे के लिए प्राण कुलबुलाते हैं, तब कैसा महसूस होता है, तुम क्या जानो? मैंने झेला है उस असहनीय तकलीफ को। अब मेरा ऑक्सीजन लेवल ठीक है। कोरोना की भी निगेटिव रिपोर्ट आ गयी है। फिर भी साँस लेने में हुई उस मशक्कत की याद मेरा दम घोट देती है। जब समाचारों में पढ़ती हूँ कि किसी को ऑक्सीजन सिलेंडर नहीं मिल रहा, बेड नहीं मिल रहा तो मेरी साँस रुकने लगती हैं। जिन लोगों के कारण यह दुर्वस्था आई है कि मरीज पस्तहाल भटक रहे, ऑक्सीजन की कमी से दम तोड़ रहे हैं – उन पर इतना गुस्सा आता है, इतना गुस्सा आता है कि…….

उसकी आवाज में एक थर्राहट थी, और कँपकँपाहट भी। उसकी करीबी दोस्त शिवी ने उसे टोककर उसकी बात को इस अंदाज में जारी रखा जैसे एक ही विचार और एक-से जज्बात की भीतरी डोर ने उन्हें जोड़ा हुआ हो – “जीने का अधिकार सबको होता है। उसे कैसा छीना जा सकता है? मगर वह भी जैसे छीन लिया गया है। जहाँ आदमी को हवा तक न मयस्सर हो क्या वह सभ्य समाज है? रांगेय राघव ने लिखा है कि यथार्थ संकट की सही समझ और उनसे पार पाने का जीवट जनता में हो तो स्थितियाँ बदली जा सकती हैं। यह चेतना तो इतने सालों से थी। क्या इस चेतना का प्रसार नहीं हुआ? बंगाल-अकाल के वर्णन पढ़ते हुए आँखों में वर्तमान दृश्य क्यों घूम रहे हैं? निर्दोष मौतों के पीछे के कारणों की समझ का क्या किया पहली पीढ़ियों ने? अब भी उंगलियाँ तो विक्टिम की तरफ ही उठती हैं। अब भी मीडिया और समाज इनके लिए ‘त्रासदी’, ‘आपदा’ जैसे शब्द ही प्रयोग करता है और उन्हें ऐसी नियति की तरह पेश करता है जिस पर मनुष्य का कोई वश न हो?………….”

इन युवाओं का बोलना और सवाल दागना जारी था। पर युवा उम्र में हमने अपने बड़ों के चेहरे पर सवालिया निगाहें गढ़ाना नहीं सीखा था। इसलिए हम नहीं जानते कि व्यवस्था पर उठाए गए सवालों के जवाब कैसे दिए जाते हैं। उनके सवाल पूरे होने से पहले मेरे जवाब चुक जाते हैं और मुझे आगे की बात सुनाई देना बंद हो जाती है। आप सुन सकें तो अनलिखा भी सुन लीजिएगा।

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रश्मि रावत

लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में अध्यापन और प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में नियमित लेखन करती हैं। सम्पर्क- +918383029438, rasatsaagar@gmail.com
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