सिनेमा

ज़रा हटके है ‘ईब आले ऊ!’

 

{Featured In IMDb Critics Reviews}

 

निर्देशक – प्रतीक वत्स
स्टारकास्ट – शार्दूल भारद्वाज, नैना सरीन, नूतन सिन्हा, महिंदर नाथ आदि
प्लेटफॉर्म – नेटफ्लिक्स

आप किसी फिल्म में क्या देखते हैं। कहानी, निर्देशन, अभिनय या कुछ और। इस बारे में सबके अपने-अपने विचार हो सकते हैं। लेकिन कुछ फिल्में ऐसी भी होती हैं जिनमें कहानी हटके हो, निर्देशन हटके हो, अभिनय हटके हो। फ़िल्म ईब आले ऊ! भी ऐसी ही फ़िल्म है। जिसमें यह दिखाया गया है कि किसी आदमी को एक बंदर से दोस्ती करने में कितनी देर लगती है? यहीं से शुरू होती है प्रतीक वत्स के निर्देशन में बनी पहली फिल्म ईब आले ऊ की कहानी। फ़िल्म में बंदर, लंगूर और आदमी की आवाजें मिलकर बनी है ‘ईब आले ऊ।’

कहानी है एक आदमी की जिसका नाम है अंजनी और उसका काम है दिल्ली की सरकारी इमारतों से बंदर भगाना। लेकिन अब बंदर कैसे भगाना है, ये कला अंजनी कैसे सीखता है यही फिल्म का पूरा कथानक बनती है। साथ ही इसमें दिल्ली का आम जन-जीवन, गणतंत्र दिवस की तैयारियां, गणतंत्र दिवस परेड, मेट्रो और उसके भीतर होने वाली घोषणाएं, सूचनाएं, वायु भवन, निर्माण भवन, उद्योग भवन सब शामिल है। 11वीं क्लास तक पढ़े अंजनी और उसके परिवार की कहानी, गरीबी, बंदर , लंगूर सब हैं। जिसमें अंजनी काम की तलाश में दिल्ली आता है। उसकी बहन और जीजा दिल्ली की एक कच्ची बस्ती में रहते हैं। बहन मसालों के पैकेट पैक करने का काम करती है और जीजा एक सिक्योरिटी गार्ड हैं। यहीं उसे अपने जीजा के कहने पर उसे दिल्ली नगर निगम में सरकारी इमारतों से बंदर भगाने का काम मिल जाता है।

ईब आले ऊ जितनी सतही है उतनी ही गहरी भी है। दिल्ली की रईस बस्तियों लुटियंस दिल्ली जैसे इलाकों से शुरू होकर आलीशान सरकारी दफ्तर और फिर दिल्ली की स्लम बस्ती दोनों को खूबसूरत तरीके से जोड़ती है। हंसी-मजाक करते-करते कब फ़िल्म गम्भीर हो जाती है और धीरे-धीरे, जर्रा-जर्रा कब आपको गहराई में ले जाती है और वो स्याह अंधेरे दिखाती है कि आपको डराने लगते हैं वे दृश्य। समाज के दो तबकों के बीच की असामनता भी महसूस करते हैं फ़िल्म देखते हुए और इसके साथ ही आदमी तथा बंदर के बीच का फर्क भी मिटने लगता है ।

बंदरों को भगवान का दर्जा दिया गया है हमारे हिन्दू धर्म ग्रन्थों और मिथकों में यही वजह है कि उन्हें हम खाना देते हैं शौक से। लेकिन फ़िल्म कहती है कि इसी वजह से उनकी आदत बिगड़ गई है वो यानी बंदर ऐसा सोचने लगे हैं कि उनको खाना ढूंढने की जरूरत नहीं है। इसलिए वे कहीं भी घुस जाते हैं, छीनने लगते हैं तब परेशानी बन जाते हैं ये भगवान। लेकिन क्या हमने सोचा कि हम इंसानों ने जब इनके रहने की जगहों को, जंगलों को छीन लिया और तो और इन बेजुबानों का घर-बार, आसरे पर हाथ मारा तो अब ये आखिर जाएं कहाँ।

इससे पहले यह कोरोना काल के आरम्भ में कुछ देश-विदेश के मशहूर फ़िल्म फेस्टिवल्स के आयोजकों द्वारा बनाए गए यूटयूब चैनल वी आर वन पर 24 घण्टे के लिए दिखाई गई और अब नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध फिल्म का हर पात्र इतनी सच्चाई, साफगोई से अभिनय करता है कि लगता है हर किरदार अपने आप को जी रहा है। अभिनय कर ही नहीं रहा। इस वजह से यह फ़िल्म कहीं-कहीं छिट पुट अंश में डॉक्यूमेंट्री का अहसास भी कराती है। अंजनी के रूप में शार्दूल भारद्वाज लाजवाब लगे हैं। यही वजह है कि कास्टिंग के क्षेत्र में भी फ़िल्म वास्तविकता के करीब नजर आती है। फ़िल्म में महिंदर का किरदार निभा रहे महिंदर सिंह कोई अभिनेता ना होकर सच में दिल्ली में बंदर भगाने वाले का काम करते हैं।

यही वजह है कि जब महिंदर, अंजनी को बंदरों की तरह सोचने की, करने की सलाह देते हैं। तो ये सब आपको भयाक्रांत करता है। मसलन फ़िल्म में एक सीन है जब जितेंद्र से एक बार एक बंदर मर जाता है और भीड़ पीट-पीटकर उसकी हत्या कर देती है। इस सीन को देख आप निर्ममता की, निष्ठुरता की पराकाष्ठा को भी देखते हैं।

 तीन हिस्सों में बंटी फ़िल्म की कहानी गरीबी और उस पर पार पाने का संघर्ष करते इसके पात्र, समाज के अंदर का टकराव करते वे इंसान जो कहीं किसी सरकारी रिकॉर्ड में बस एक संख्या की तरह दर्ज हैं। तो तीसरा हिस्सा है भीड़ का जो अपने काम की कोशिश में लगे एक गरीब की हत्या कर देती है और जिनका कभी कोई हिसाब नहीं होता। मामी फिल्म फेस्टिवल में गोल्डन गेटवे अवॉर्ड जीत चुकी फिल्म को इसके हटके होने की वजह से देखा और दिखाया जाना चाहिए।

अपनी रेटिंग – 4 स्टार

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तेजस पूनियां

लेखक स्वतन्त्र आलोचक एवं फिल्म समीक्षक हैं। सम्पर्क +919166373652 tejaspoonia@gmail.com
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