आँखन देखी

नक्षत्तर मलाकार उर्फ़ चलित्तर कर्मकार – मणीन्द्र नाथ ठाकुर 

 

  • मणीन्द्र नाथ ठाकुर 

 

सीमांचाल की राजनीति के सन्दर्भ में बहुत दिनों के बाद अचानक किसी ने बातचीत में नक्षत्तर का नाम लिया। मेरे सामने से बचपन का वह दिन चलचित्र की तरह गुज़रने लगा जब चर्चा एक ऐसे व्यक्ति से हुई जिसके बारे में जानने की मेरी उत्कंठा आज भी बांकी है। समय मिलने पर निश्चित रूप से अभिलेखागार से उन फ़ाइलों को खँगालना चाहूँगा जिनमें उनका ज़िंदगीनामा क़ैद है। फ़िलहाल पुस्तक की लेखी की जगह आंखन देखी को पाठकों के सामने रखना चाहूँगा।

साल तो सही सही याद नहीं है, लेकिन शायद 1968-69 रहा होगा। जाड़े का समय था। मैं अपने गाँव में था। बहुत ही छोटा सा रहा हूँगा। लेकिन मन में सवाल उस समय जो उठे थे उसने उन यादों को कभी मरने नहीं दिया। अलग-अलग उम्र में यह सवाल अलग-अलग तरीक़े से मन में उठता रहा कि आख़िर वह आदमी कौन था। उम्र के अलग-अलग पड़ाव पर इसका उत्तर भी बदलता रहा।

दो दिनों से गाँव में उनके आने का इन्तजार हो रहा था। जब से उनके आने की ख़बर आयी थी लोग तरह-तरह की कहानियाँ कह रहे थे। किसी ने बताया कि बहुत बड़े डकैत हैं, किसी ने कहा धनी लोगों को लूट्टते हैं और ग़रीबों में बाँटते हैं। एक कहानी यह भी थी कि घोड़े पर सवार होकर चलते हैं और देखते-देखते हवा हो जाते हैं। मन तो उनके आते ही उन्हें देखने का था, लेकिन देर शाम के बाद नींद से जीतने  की सम्भावना नहीं थी। सुबह उठते ही भागते हुए बैठक खाने पर पहुँचा तो देखा कि दस बारह लोग मचान पर बैठ कर बातें कर रहे थे। ‘मचान’ सीमांचल की एक ख़ासियत है। बांस की बत्तियों  से बने चार-पांच फ़ीट ऊँचा एक प्लेटफ़ार्म जिसके ऊपर फूस का छप्पर रहता है, लेकिन चारों ओर खुला रहता है। दस-बारह लोग इस पर एक साथ आराम से सो सकते हैं। मचान पर ही उनकी पूरी टीम ने अपना डेरा डंडा जमा रखा था। साधारण से दिखने वाले लोग थे, कोई बड़ा ताम झाम नहीं था। बाल मन में उनकी कहानियाँ सुन-सुन कर बहुत सी कल्पनाओं से भरा था। जब देखा उन्हें तो लगा कि सब चकना चूर हो गया। लेकिन इस सादगी के बावजूद वातावरण में एक तरह का ख़ौफ़ था। जिसे बच्चा होने के बावजूद मैं महसूस कर पा रहा था। शायद गाँव के ज़मींदार से उनकी दोस्ती थी। उस रात उनके ही अतिथि थे। उस समय भी ऐसा  लग रहा था कि यह दोस्ती कम और डर ज़्यादा था। पूरी टीम को दही-चूड़ा का नस्ता करवाया गया। सम्मान के साथ सारा उपक्रम चल रहा था। मैं भी उस पूरी प्रक्रिया का हिस्सा था।

नास्ते के बाद उनकी बिदाइ का समय आया और  देखा कि गाड़ियों में भर के चावल उनके लिए तैयार था। उनकी बैलगाडी के साथ ही धान और चावल से भरी गाड़ियाँ विदा हुईं। यह उस ज़मींदार का नज़राना था उनके लिए। अब मेरे सामने एक नया सवाल था कि आख़िर यह सब उन्हें दिया क्यों गया और  वे इन सबका करेंगे क्या। एक नज़रिया तो यह था कि मलाकार मूलतः एक लुटेरा है और समाजवाद के नाम पर यह उनके द्वारा किया गया लूट है जिससे वह अपनी तिजौरियाँ भरता है। पहले एक डकैती करने वाले गिरोह का सरगना था अब स्वतंत्रता के बाद वही काम समाजवाद के नाम पर करता है।किसी ने एक घटना सुनाई कि एक ज़मींदार से उसके उपज का एक हिस्सा माँगा गया। इंकार करने पर अपने कामरेडों के साथ उसके खलिहान पर हल्ला बोल दिया। लेकिन ज़मींदार भी तगड़ा था और उसने गोली चला दी। एक दो लोग घायल भी हो गए। सारे लोग डर के भागे और मलाकार भागनेवालों में सबसे आगे था। फिर कभी खलिहान लूटने का कार्यक्रम नहीं बना।

एक कहानी लोगों ने उसके गिरफ़्तार होने की भी सुनाई। मेरे उन्हें देखने से काफ़ी पहले की कहानी थी। इसी गांव के पास चौड़े पाटों वाली एक नदी थी। एक बार कहीं किसी ज़मींदार के घर से डकैती के बाद लौट रहे थे। रास्ते के इस गाँव में ख़बर फैल गई कि कोई गिरोह डकैती के बाद नदी पार करने की कोशिश कर रहा है। पूरा गाँव जमा हो गया और उन्हें धर दबोचा। थाने को ख़बर की गई। उन्हें थाने में लाया गया। वहाँ उनकी पहचान हो गई कि वह प्रसिद्ध नक्षत्तर मलाकार है। ख़बर जंगल के आग की तरह फैल गई। सुनाने वाले के अनुसार उन्हें देखने के लिए थाने में दस हज़ार से ज़्यादा लोग जमा हो गए थे। लोगों ने देखा  कि एक छोटा सा आदमी पुलिस की गिरफ़्त में है और लोगों की ओर हाथ हिला कर उन्हें सम्बोधित करने की कोशिश कर रहा है। थोड़ी देर में भीड़ के जमा हो जाने के बाद उसने पास खड़े सिपाही से कहा कि इस टेबल पर एक कुर्सी रखो। सिपाही भी उसकी आज्ञा का टाल न सका। और फिर मलाकार जी उछल कर उस कुर्सी पर चढ़ गए। लोगों को कुछ कहने की कोशिश कर रहे थे। दारोग़ा ने उनसे अनुरोध किया कि नीचे उतार आएँ। उनका उत्तर बड़ा मेजेदार था कि इतने लोग आख़िर उन्हें देखने जमा हुए हैं बिना देखे चले जाएँ  यह सही नहीं रहेगा। यह केवल कहानी भी हो सकती है। लेकिन उसी थाने में उनके गिरफ़्तार होने की ख़बर तो पक्की है। बाद में कई लोगों ने इसकी पुष्टि की।

उनसे मुलाक़ात ने मेरे बाल मन को प्रभावित किया था। इन कहानियों को सुनते समय भी यह बात समझ में आने लगी थी वह कोई साधारण लुटेरा या डकैत तो नहीं हो सकता था। क्योंकि कहानी कहने वालों के चेहरे  पर  एक तरह का  वीरता का भाव दिखता था और कहने का अन्दाज़ भी कुछ वीर रस में डूबा रहता था। इस विषय में ऐसा कहने में मुझे कोई दिक़्क़त नहीं है कि नक्षतर मलाकार के बारे में लोगों के विचार में जाति और वर्ग का प्रभाव भी देखा जा सकता है। मसलन, ऊँची जाति के लोगों को  यह व्यक्ति बिलकुल पसंद नहीं है। मुझे मालूम नहीं है कि ऊँची जाति के गरीब  लोगों से इनका क्या संबंध था, लेकिन इस बात की सम्भावना है कि उनके सम्पर्क की सीमा जाति  में ही सीमित हो। उनकी अपनी जाति के जो भी लोग मुझे अब मिलते हैं, उनके लिए वे हीरो हैं। इसलिए जैसा अक्सर होता है कि महापुरुषों को भी उनकी जाति की सीमा में बाँध दिया जाता है। इस विषय में मेरी यह समझ है कि ये मुक्तिकामी लोग हैं और अपने जाति-समाज की समस्या का समाधान तो ज़रूर करते हैं लेकिन उन्हें उनकी जाति की सीमा में बाँध कर देखना सही नहीं है। उनका एक ऐतिहासिक महत्व होता है और उनके कार्यों का भी समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। उन्हें समझने के लिए हमें यह देखना होगा कि क्या उन्होंने दबे कुचले लोगों की सहायता की या नहीं, चाहे वे लोग उनकी अपनी ही जाति के क्यों न हों। समझना यह होगा कि क्या उनका काम उनके व्यक्तिगत हित से उठ कर सामाजिक या जातीय हित में था और कहीं इस काम के लिए उन्होंने किसी और जाति या धर्म के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने का काम तो नहीं किया।

 

उनके बारे में मुझे यह सब तब समझ में आया जब  एक दिन उनसे जुड़े कुछ लोगों से मेरी मुलाक़ात हुई। जहाँ उन लोगों से मेरी मुलाक़ात हुई वह एक उच्च जाति का घर था जिसका सम्बन्ध समाजवादी आन्दोलन के एक प्रमुख नेता से था। वर्षों बाद उनके लोगों को देख कर मेरी उत्कंठा हुई उनके बारे  में जानने की। पता चला कि वे लोग पुराने कपड़े इकट्ठा करने आये  थे ताकि जाड़े से बचने के लिय इन पुराने  कपड़ों को जोड़ कर सुजनी बनाया जा सके। सुजनी  पुराने कपड़ों का जोड़ा हुआ एक  कम्बल होता है। मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। मेरे दिमाग़ में ख़ौफ़नाक मलाकार की यादें कौंध गयीं। मुझे बिलकुल पता नहीं था कि इतना लूटपाट मचाने वाला व्यक्ति सुजनी के लिए कपड़े मंगवा रहा होगा। पता चला कि काफी  समय से अपने व्यक्तिगत उपयोग के लिए वे   माँग कर ही जुटाते थे। मैंने उन लोगों से पूछा कि आख़िर इतना कुछ उन्होंने उगाहा उसका क्या हुआ। लोगों ने बताया कि माँग कर अपनी अवश्यकताओं की पूर्ति करना उनके दर्शन का हिस्सा है। मुझे उस भारतीय परम्परा की याद आ गई जिसमें बौद्धिक रूप से प्रखर वर्ग भी ‘भवति भिक्षाम देही’ कहते हुए घर-घर में घूमते थे।

लोगों ने बताया कि उन्होंने उगाहे गए ज़्यादातर धन का उपयोग लोगों के लिए  शिक्षण  संस्थान खोलने में लगा दिया। मुझे आश्चर्य हुआ कि भारतीय राजनीति पर लिखने पढ़ने वाले लोंगों ने इस तरह के राजनीतिज्ञों के बारे में कोई शोध नहीं किया। मलाकार जी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। कुछ लोगों का कहना है कि शुरू के दिनों में एक सामान्य से सामाजिक ग़ैर बराबरी से असंतुष्ट व्यक्ति थे जिनकी लूट पाट  की गति विधियों को डकैती का नाम दिया जाता हो। लेकिन बाद में पार्टी में शामिल होने कारण ये गतिविधियाँ ज़ाहिर तौर पर राजनैतिक हो गाईं। लेकिन यदि प्रारम्भिक दौर में भी लूट पाट का उद्देश्य व्यक्तिगत लाभ नहीं था बल्कि उसका उपयोग जनहित में करना था तो इसे डकैती नहीं कह सकते हैं। ऐसे लोग जो धनी लोगों से छीन कर आम लोगों को देते हैं उन्हें रोबिनहुड कहा जाता है। हमें यह सवाल पूछना चाहिए  कि क्या मलाकार हमारे समाज के रॉबिनहुड थे?

फणीश्वर नाथ रेणु

सीमांचाल के प्रसिद्ध साहित्यकार फनिश्वर नाथ रेणु ने लिखा है कि ‘किरांती चलित्तर कर्मकार! जाति का कमार है। मोमेंट के समय गोरा मलेटरी इसका नाम सुनते ही पेशाब करने लगता था।’ सब जानते हैं कि रेणु जी का चलित्तर कर्मकार असल में नक्षतर मलाकार ही थे। प्रसन्न कुमार चौधरी ने  अपनी पुस्तक में ज़िक्र किया है कि अंग्रेज़ी और देसी राज के फ़ाइलों  में उनका ज़िक्र  ‘ए नोटोरिअस कम्युनिस्ट डकैत’ या ‘रॉबिनहुड’ के रूप में है। निर्मल सेन गुप्ता ने अपनी पुस्तक ‘एक्टिविटीज ओफ़ दी कॉम्युनिस्ट पार्टी इन बिहार’ में मलाकार जी का ज़िक्र करते हुए लिखा है कि आज़ादी के बाद के चालीस वर्षों में 18 वर्षों तक जेल में रहने वाले मलाकार 1909 में कटिहार के गरीब परिवार में पैदा हुए थे और बचपन से ही विद्रोही थे। दस साल की उम्र में ही अपने पिता को पिटते देख दरभंगा राज के अमले पर टूट पड़े थे। सेन के अनुसार ये सीधी करवाई में विश्वास रखते थे। पूर्णिया के प्रसिद्ध कांग्रेस नेता बैद्यनाथ चौधरी के प्रभाव में वे  पार्टी के सदस्य तो हो गए,  लेकिन गरीबों के सवाल पर पार्टी के रवैये  से असंतुष्ट रहे और फिर कांग्रेस छोड़ कर सहजनंद सरस्वती के साथ चले गए और अंत में कम्युनिस्ट पार्टी में चले गए। किसानों और मज़दूरों को संगठित करते रहे। सेन लिखते हैं कि 1942 के आंदोलन के समय मलाकार जी के  प्रभाव वाले इलाक़ों में ख़ास तौर पर पुलिस कैम्प लगाए गए थे। इन्होंने जयप्रकाश नारायण और राममनोहर  लोहिया को जेल से भगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

ज़मींदारों को लूटना और ग़रीबों में बाँटना यही इनका काम था, तो फिर क्यों नहीं इन्हें रॉबिनहुड कहा जा सकता है? यह भी सच है कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य तो ज़रूर थे लेकिन हमेशा पार्टी के अनुसार ही काम करें यह उन्हें मंज़ूर नहीं था। कई कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों का मानना था कि उन्हें किसी तरह का सैद्धांतिक ज्ञान नहीं था और शायद बाद में पार्टी के लिए भी उन्हें संभालना मुश्किल ही रहा होगा। लेकिन पार्टी को उनकी जरूरत थी क्योंकि उस समय ग़रीबों के बीच उनकी स्वीकृति किसी भी स्थापित राजनीतिज्ञ से ज़्यादा थी। सीमांचाल क्षेत्र में ऐसे कई रॉबिनहुड आपको मिल सकते हैं। यह भी सम्भव है कि उन्हें कोई ख़ास  जाति के लोग मसीहा मानते हों और दूसरी जाति के लोग अपराधी। इस पूरे इलाक़े में नेतृत्व की यह परम्परा अभी भी मरी नहीं है। यह अलग बात है कि आज के ये रॉबिनहुड जल्दी ही यह समझ ले रहे हैं कि भ्रष्टाचार, अपराध और राजनीति के बीच एक ऐसा संबंध है जिसका व्यक्तिगत लाभ उन्हें मिल सकता है। लेकिन मलाकार का मॉडल उनसे अलग था। अपने ‘लूट-पाट’ का एक हिस्सा भी यदि वे अपने निजी सम्पत्ति में बदल देते तो फिर आज उनका भी मंत्री मंडल में जाना तय था। मलाकार शायद भारत के स्वतंत्रता संग्राम के  उन सिपाहियों में थे  जिन्हें यह पता चल गया था कि भारत की नयी  व्यवस्था वास्तव में शक्ति का हस्तांतरण था, एक तरह का सत्ता परिवर्तन था। इससे बदलाव तो आएगा लेकिन गरीबों  के लिए यथेष्ट नहीं होगा। इसलिय संघर्ष विराम देने के बदले उसके नये ए आयाम खोलने होंगे। भले ही उनका तरीक़ा गांधीवादी नहीं था लेकिन उद्देश्य गांधी के क़रीब था। साधन और साध्य के बहस में वे गांधी के पक्ष में  भले ही नहीं हों लेकिन वह चरित्र गांधीवादी था।

तीसरी बार मेरा सबका उनसे पड़ा जब मैं स्तानक का राजनीति विज्ञान का छात्र था। पूर्णिया से पटना रात की  बस से जा रहा था। थोड़ी देर में किसी ने पीछे से आकर ड्राइवर से  कहा कि बस को थोड़ी देर के लिय रोका जाए। बस थोड़ी देर पहले ही चली थी और ज़्यादातर लोग सो रहे थे। बस को रोकने से लोग सचेत हो गए। क्योंकि बिहार का वह खतरनाक समय था। बस के असमय रुकने का मतलब था ख़तरा। पता चला कि नक्षतर मलाकार बस में हैं और उनका पेट ख़राब है। मेरे कान खड़े हो गए। कुछ वर्षों पहले यह सूचना लोगों के लिय डरावनी होती। लेकिन अभी तो ज़्यादातर लोग इस नाम से परिचित भी नहीं थे। मेरी उत्सुकता बढ़ी और मैं भी उनलोगों के साथ बस से उतर गया। एक कृशकाय  वृद्ध मलाकार जी मेरे सामने थे। पता चला कि अब कोई ख़ास गतिविधि नहीं रह गई थी। पटना जाना हो रहा था किसी मीटिंग के सिलसिले में। इतना ज़रूर था कि अभी भी अपने अधूरे कामों को पूरा करने में लगे थे।

इन छोटी-छोटी मुलाक़ातों ने में मन में उनकी एक छवि बनाई है। हो सकता है वह स्पष्ट न हो लेकिन  उम्मीदों से भरी है। ऐसा लगता है कि भारतीय समाज ने अपने रॉबिनहुड जैसे लोगों को भुला दिया है। राज सत्ता ने जिन नामों को इतिहास के पन्नों पर अंकित किया है उनमें वे नाम नहीं हैं। लेकिन नई पीढ़ी को समाज की यादों के ख़ज़ानों से उसे निकाल कर जनमानस का हिस्सा बनाना होगा ताकि हमारे नेतृत्व करनेवालों को यह समझ में आए कि जनता क्या चाहती है। नयी पीढ़ी उनके साधन को न  अपनाये लेकिन उनके साध्य पर ज़रूर ग़ौर करे। किसी शोधकर्ता को यह काम करना होगा ताकि इस परम्परा के बारे में लोगों की रुचि बनी रहे और राजनीति शुद्ध हो सके।

लेखक समाजशास्त्री और जे.एन.यू. में प्राध्यापक हैं|

सम्पर्क- +919968406430, manindrat@gmail.com

 

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सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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