अपने दिल को संभाल के रखिये यही आपके जीवन का साथी है
‘विश्व हृदय दिवस’ 29 सितम्बर 2024 के अवसर पर विशेष आलेख
दिल को केंद्र में रखकर कालांतर में कवियों ने अनेक कविताएं लिखीं और फिल्मकारों ने अनेक फिल्में बनाई लेकिन भागमभाग भरी ज़िन्दगी और रोटी-पानी के जुगाड़ के चक्कर में हमने अपनी जीवनशैली ऐसी बना ली है की हम अपनी देह के सबसे महत्वपूर्ण अंगों में से एक ‘हृदय’ को जाने-अनजाने अनदेखा कर बैठे। आज ‘विश्व हृदय दिवस’ है और हृदय के बारे में बात करना समीचीन लग रहा है। आज मनुष्य का हृदय तरह-तरह की बीमारियों से कमजोर पड़ रहा है।
‘द लैंसेट’ नामक प्रतिष्ठित शोध जर्नल के वॉल्यूम 12 में मई 2023 में प्रकाशित ‘कालरा एवं अन्य’ के एक शोध पत्र के अनुसार वर्ष 2017 में भारत में कुल मौतों का 26.6% का कारण कार्डियो-वैस्कुलर डिजीज था जबकि 13.6% डिसेबिलिटी एडजेस्टेड लाइफ ईयर के रूप में दर्ज हुआ। वहीं दूसरी तरफ ‘प्रभाकरन एवं अन्य’ के द्वारा ‘द लैंसेट’ में ही छपे शोधपत्र के अनुसार भारत में राज्य स्तरीय डिजीज बर्डन का आँकड़ा (ग्लोबल बर्डन ऑफ़ डिजीज अध्ययन समूह की रिपोर्ट के अनुसार) 1990 की तुलना में 2016 में इस्केमिक हार्ट डिजीज और स्ट्रोक के मामलों के बढ़ने के साथ 2.3 गुना बढ़ गया था। इसी अध्ययन के हवाले से यह भी बताया गया कि भारत में कार्डियो-वैस्कुलर डिजीज का जो आँकड़ा वर्ष 1990 में 25.7 मिलियन था वह 2016 में बढ़कर 54.5 मिलियन पहुँच गया अर्थात दो गुना से भी ज्यादा बढ़ोतरी दर्ज हुई।
‘वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम’ और ‘हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ’ के वर्ष 2014 के एक आंकलन के अनुसार सन 2012 से 2030 के बीच कार्डियो-वैस्कुलर डिजीज की वजह से भारत को लगभग 2.17 ट्रिलियन डॉलर का आर्थिक नुकसान उठाना पड़ेगा। संयुक्त राज्य अमेरिका की सी.डी.सी. की ऑफिशियल वेबसाइट के अनुसार वर्ष 2022 में संयुक्त राज्य अमेरिका में 702,880 मौतें हुई जो हृदय रोगों के कारण हुईं अर्थात प्रत्येक 5 मौतों में एक हृदय रोग के कारण। वहाँ प्रत्येक वर्ष 805,000 लोगों को हार्ट अटैक हुआ और इनमें से 605,000 को पहली बार और 200,000 लोगों के साथ यह दूसरी बार हुआ। बड़ा ही भयावह है ये आँकड़ा। वहीं ‘वर्ल्ड हेल्थ रिपोर्ट 2023’ के अनुसार जो कि हृदय रोगों को दुनिया के सबसे बड़े किलर के रुप में देखती है, के अनुसार दुनियाभर में कार्डियो-वैस्कुलर डिजीज़ के कारण वर्ष 2021 में 20.5 मिलियन मौतें हुई हैं, यानी कि हर तीसरी मौत का कारण सी.वी.डी. है। ऐसी मौतों की दरों में कमीं आई है लेकिन यदि दुनिया भर में संयुक्त और एकीकृत प्रयास नहीं हुए तो यह स्थिति पलट भी सकती है।
भारत के संदर्भ में देखें तो ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ के अनुसार वर्ष 2019 में 111 मौतें (प्रति 1 लाख जनसंख्या पर) सी.वी.डी. के कारण हुईं। ‘जन एवं अन्य’ के जून 2024 में प्रतिष्ठित जर्नल ‘कार्डियोवैस्कुलर थेराप्यूटिक्स’ में प्रकाशित शोधपत्र के अनुसार आयु में बढ़ोत्तरी के साथ भारत के ‘ओल्डर एडल्ट्स’ में यह समस्या घातक रूप ले रही है और स्थिति खतरनाक होती जा रही है। इसी अध्ययन के अनुसार भारत में हाइपरटेन्सन (उच्च रक्तचाप), डायबिटीज (मधुमेह), डिसलिपेडेमिया (कोलेस्ट्रॉल की समस्या/ अच्छे या बुरे कोलेस्ट्रॉल के स्तर में असंतुलन आदि), ओबेसिटी (मोटापा), स्मोकिंग (धूम्रपान), तम्बाकू का उपयोग, गतिहीन/आरामतलब/बेतरतीब जीवनशैली, खानपान की बुरी/ अवैज्ञानिक आदतें, अधिक नमक युक्त भोजन, ‘न्यूट्रिएंट डेन्स फ़ूड’ कम खाना, ‘रेडी-टू-ईट’ फूड का ज्यादा खाया जाना और फल, सब्जी, सलाद, जैसे चीजों को भोजन में कम शामिल किया जाना, सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक कारक आदि जैसे अनेक कारण हैं जिनके कारण यह बीमारी देश के लोगों को गंभीर अवस्था की ओर ले जा रही है।
कई बार बचपन में अपने गांव में लोगों को ऐसा कहते सुना था कि “फ़ला को बहुत अच्छी मौत आई, सोते हुए चले गए….न किसी की सेवा की जरूरत पड़ी और न ही किसी के भरोसे रहने की”। लेकिन कल्पना कीजिए उस स्थिति की कि जिसकी मौत हुई होगी अगर वह हृदयघात या स्ट्रोक के कारण हुई होगी तो कितनी पीड़ादायक रही होगी। यह 90 के दशक की बातें हैं तब चिकित्सकीय तकनीकी और चिकित्सा पद्धति में विकास कम हुए थे या फिर लोगों में जागरूकता और वैज्ञानिक सोच की कमीं थी।
बचपन में ही किसी किताब में पढ़ा था कि कैसे क्रिस्टियन बर्नार्ड ने अपने छोटे भाई अब्राहम को, जो ‘ब्लू बेबी’ था, को तीन वर्ष की आयु में बिस्कुट खाते समय पैदाइशी हृदय की बीमारी (टेट्रालॉजी ऑफ फ़ॉलोट: टी.ओ.एफ.) से मरते हुए देखा था और फिर उस बिस्कुट के आधे टुकड़े को देखते-देखते उसी घटना से प्रेरणा लेकर 03 दिसम्बर 1967 में लुई वाशकन्स्की नाम के व्यक्ति पर पहला हृदय प्रत्यारोपण कर डाला। पहले सुनते थे कि 55-60 की उम्र के बाद हृदयघात हुआ लेकिन अब आये दिन यह सुनने को मिलता है कि 20 से 30 वर्ष के युवाओं में भी यह समस्या आम हो रही है जो चिंता का सबब है। क्या बच्चे, क्या युवा, क्या यंग एडल्ट्स और क्या ओल्ड एडल्ट्स, क्या ग्रामीण जीवन क्या शहरी जीवन, क्या गैर जनजातीय और क्या जनजातीय, सभी को इस बीमारी ने अपने चंगुल में ले लिया है बिना किसी भेदभाव के।
अब तो ‘रोबोट’ जो कहता है कि वो मशीन है, हृदय-विहीन है उसने भी अवसाद में आकर कि उसका मालिक उस से बहुत काम लेता है, सीढ़ियों से कूद कर अपने को खत्म कर लिया। कहने का तात्पर्य है कि हम सभी तो इंसान हैं, ऐसे बहुत से कारक हैं जो हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं, हमें बीमारियों की चपेट में धकेलते हैं और हमारे हृदय को घात देते हैं।
आँकड़ों की बजाय आइए अब कुछ व्यावहारिक पहलुओं की भी चर्चा कर लेते हैं। हम अपने जीवन का एक लंबा समय अपने कार्यस्थल या ऑफिस में गुजारते हैं। वहाँ पर तरह-तरह के टेंशन्स भी होते हैं। जरूरी है कि कार्यस्थल पर यथासंभव हम ‘माफ़ी मांग लेने या माफ़ कर देने’ के सिद्धांत को (जहाँ तक संभव हो) अपने जीवन में लागू करें तभी हम अपने जीवन की खुशियों के गुल्लक में चिल्लर की बजाय कुछ अच्छा क्रेडिट एकत्र कर पाएंगे जो हमारे स्वयं के शरीर और परिवार के सदस्यों के लिए भी खुशहाली लाने में अच्छी भूमिका निभाएगा। इसका एक फ़ायदा यह भी होगा कि हम ऑफिस के टेंशन्स को घर तक आने से रोक पायेंगे और परिवार के सदस्यों को भी परोक्ष रूप से अवसादग्रस्त होने से बचा पाएंगे। यह भी कर सकते हैं कि कार्यालय के लोगों के अतिरिक्त वाह्य समाज के लोगों से भी सामाजिक संपर्क बनाएं ताकि 24 घंटे कार्य के बोझ तले दबे रहने की मानसिक प्रवृत्ति से बच सकें। हमें अपने शरीर को भी समझने की गम्भीर कोशिश करनी होगी।
हमारे शरीर की क्या आवश्यकता है यह किसी डॉक्टर की जगह सबसे बेहतर तरीके से हम स्वयं ही समझ सकते हैं। हम स्वयं अपने शरीर के सबसे अच्छे डॉक्टर होते हैं। इस बात को कहते हुए यहाँ मैं ‘मिशेल फ़ूको’ के ‘मेडिकल गेज़’ की अवहेलना तो कर रहा हूँ लेकिन मुझे यह भी जरूरी लगता है कि हमको स्वयं ही इसको समय-समय पररखते रहना चाहिए ताकि चिकित्साशास्त्र के पैरामीटर में किसी भी अप-डाउन की स्थिति में हम चिकित्सकों से सही समय पर उचित परामर्श ले सकें।
हम सभी आज आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की दुनिया में है और टेक्नोलॉजी हमारे जीवन को गंभीर रूप से प्रभावित कर रही है। हम अपने बायोलॉजिकल क्लॉक और सर्केडियन रिदम को अपनी व्यस्त, भौतिकतावादी और कमर्शियल दुनिया के फेर में दरकिनार कर चुके हैं। हम अपनी स्मार्ट वॉच और अन्य गैजेट के माध्यम से यह तो जान लेते हैं कि हम कितने कदम चले हैं पर यह नहीं जान पाते कि जितने कदम चले हैं वह कितने गुणवत्तापूर्ण हैं। हो सकता है हम 7,000 कदम चले हों लेकिन इतनी देर तक हमारे चेतन और अवचेतन मन में कुछ नकारात्मक चल रहा हो। हम प्रातः काल योग कक्षाओं में जाते हैं, जिम जाते हैं या फिर पार्कों में लाफ्टर योगा/लाफिंग क्लब (ठहाकों की एक्सरसाइज- हा हा हा क्लब) में भी भाग लेते हैं लेकिन कई बार हमारा मन और चित्त एकाग्र नहीं होता है जो हमारे प्रयासों के बावजूद भी शरीर पर अच्छा प्रभाव नहीं डाल पाता है और इन सब का प्रभाव हमारे हृदय पर पड़ता ही है और फिर जाने-अनजाने हाइपरटेंशन/उच्च रक्तचाप एक अतिथि के रूप में हमारे शरीर में घर कर लेता है। अतः ज़रूरी है कि वही करें जो आपको मानसिक खुशी दे, ऐसी खुशी जो हमारे मन और चित्त दोनों को रीवाईटलाइज करे।
आज के युवाओं से यही आवाह्न है कि इस ‘विश्व हृदय दिवस’ पर मेरे कहने पर एक शपथ लें कि “अनुशासनपूर्ण, नियमित, स्वस्थ, सात्विक जीवनशैली अपनाकर अपने स्वयं के ह्रदय और अपने परिवारीजनों के हृदय को मज़बूत करने का ईमानदार प्रयास करेंगे क्योंकि हमारा हृदय मज़बूत होगा तो परिवार के लोग भी खुश रहेंगे और भारत अपने देशवासियों के लिए गुणवत्तापूर्ण जीवन, ‘वेलनेस’ और ‘वेलवीइंग’ के लक्ष्य को जल्द से जल्द प्राप्त कर सकेगा।