तालिबान की अगवानी को आतुर महबूबा के बिगड़ते बोल!
पिछले दिनों कश्मीर के कुलगाम में अपने पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की अध्यक्षा और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने केंद्र सरकार को खुली धमकी दी है। उन्होंने कश्मीर और अफगानिस्तान के हालात की तुलना करते हुए कहा है कि हमारे सब्र का इम्तिहान न लो। हमारे सामने अफगानिस्तान की मिसाल है। फ़ौज काम नहीं आएगी। तालिबान ने अंततः अमेरिका को अफगानिस्तान से भागने पर मजबूर कर दिया। जिस वक्त हमारे सब्र का बाँध टूट जायेगा, आप नहीं रहोगे, मिट जाओगे। आपके लिए अब भी मौका है कि बोरिया-बिस्तर समेटकर वापस चले जाओ।
गौरतलब है कि इस बयान में वे खुद को तालिबान और भारत को अमेरिका मानकर चल रही हैं। उन्हें याद रखने और दिलाने की जरूरत है कि कश्मीर अफगानिस्तान की तरह कोई अलग देश नहीं, बल्कि भारत ही है। वे खुद तालिबान या तालिबान का हिमायती होने के लिए तो स्वतन्त्र हैं, मगर तालिबान को कश्मीर बुलाने या भारत सरकार को तालिबानी दहशतगर्दी से डराने की आज़ादी उन्हें नहीं है। महबूबा के इस बयान से अमेरिका और पश्चिमी देशों को यह समझने में आसानी होगी कि कश्मीर के ये स्वघोषित लोकतंत्रवादी और मानवाधिकारवादी दरअसल तालिबान के हिमायती और हमदर्द हैं। वे दहशतगर्दी और हिंसा की तालिबानी विचारधारा के पोषक और प्रसारक हैं। खोल उतरने के बाद ही शेर-सियार और भेड़-भेड़िये की सच्चाई सामने आती है।
महबूबा एक के बाद एक बयान देकर अपना खोल, अपना मुलम्मा उतारने पर उतारू हैं। महबूबा के मन की बात गाहे-बगाहे उनकी जबान पर आ ही जाती है। इस धमकी के साथ ही उन्होंने एकबार फिर अनुच्छेद 370 की बहाली का बेसुरा राग अलापते हुए कहा कि सन् 1947 में यदि भाजपा होती तो जम्मू-कश्मीर कभी भारत का हिस्सा नहीं बनता। हालाँकि, उनका यह बयान इतिहास और वर्तमान को सीमित और स्वार्थप्रेरित नज़रिये से देखना भर है। वे चाहे अपनी अलगाववादी ढपली पर लाख तालिबानी राग बजाएं पर कश्मीर के तालिबानीकरण का उनका एजेंडा कभी कामयाब नहीं होगा।
इससे पहले भी वे अपनी पार्टी के 22 वें स्थापना दिवस (28 जुलाई) के अवसर पर एक अत्यंत उत्तेजक, आपत्तिजनक और गैर-जिम्मेदाराना बयान देकर कश्मीर में आग भड़काने की कोशिश कर चुकी हैं। उन्होंने उस अवसर पर कहा था कि केंद्र सरकार ने 5 अगस्त, 2019 को कश्मीरियों से जो कुछ छीना है, उसे सूद समेत लौटाना पड़ेगा। इसीतरह का उनका एक और विवादास्पद बयान उल्लेखनीय है। उसमें उन्होंने 5 अगस्त, 2019 से पहले की स्थिति की बहाली तक तिरंगा न फहराने की कसम खायी थी। हालांकि, अपनी पार्टी और गुपकार गठजोड़ तक में अकेले पड़ जाने और राष्ट्रीय स्तर पर हुई फजीहत के दबाव में उन्हें अपना वह बयान वापस लेना पड़ा था। नफ़रत की भाषा बोलने और इस्लामिक जिहादियों को शह देने में महबूबा माहिर हैं। वे 5 अगस्त, 2019 से पहले की स्थिति की बहाली के ख्याली पुलाव पका रही हैं और कश्मीर घाटी के मुठ्ठीभर भ्रमित लोगों को सब्जबाग दिखा रही हैं। निश्चय ही, उनके इस प्रकार के भारत-विरोधी बयान उनकी पुनः नज़रबंदी की जमीन तैयार कर रहे हैं।
दरअसल, यह बयान देकर महबूबा मुफ़्ती ने जाने-अनजाने अपनी तालिबानी मानसिकता का परिचय दे दिया है। यह विचारणीय प्रश्न है कि तालिबान और उसकी करतूतों की वकालत करने वाली महबूबा क्या कश्मीर में तालिबान का शासन चाहती हैं? क्या वे चाहती हैं कि कश्मीर में अफगानिस्तान की तरह हर आवाज़ का जवाब एके 47 और एके 56 की गोलियों से देने की रवायत शुरू हो? उनसे पूछा जाना चाहिए कि वे क्या तालिबान को दावत देकर कश्मीर की बहिन-बेटियों के पढ़ने-लिखने, काम करने पर पाबंदी लगवाना चाहती हैं? कश्मीर के अवाम द्वारा उनसे यह भी पूछा जाना चाहिए कि क्या वे कश्मीरी महिलाओं को तालिबानी आतंकियों की ‘सेक्स स्लेव’ बनाये जाने की हिमायती हैं?
मासूम महबूबा के अलावा अफगानिस्तान से लेकर अमेरिका तक सबको तालिबान की असलियत पता है। तालिबान मध्यकालीन मानसिकता वाला महिला और लोकतंत्र विरोधी एक क्रूरतम आतंकी संगठन है। उसकी तरफदारी करना और कश्मीर में उसकी आमद की कामना करना महबूबा के वास्तविक मंसूबों और बिगड़ते मानसिक संतुलन को उजागर करता है। भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार को धमकाने के फेर में वे संभल के सपा सांसद शफीकुर्रहमान वर्क और शायर (?) मुनव्वर राणा से भी दो कदम आगे निकल गयीं। वे यह भी भूल गयीं कि सत्ता की जिस भूख और भाजपा से नफ़रत ने उन्हें अंधा बना दिया है; वे उसके साथ लम्बे समय तक गलबहियां करते हुए मिली-जुली सरकार चलाते हुए सत्तासुख भोग चुकी हैं!
क्या इस आधार पर यह निष्कर्ष निकालना अनुचित होगा कि सत्ता-प्राप्ति के लिए वे भाजपा, कांग्रेस और तालिबान तक किसी से भी मिल सकती हैं। अपनी चिर प्रतिद्वंदी नैशनल कॉन्फ्रेंस के साथ गुपकार गठजोड़ बनाना और गठबंधन करके जिला विकास परिषद चुनाव लड़ना उनके सत्ताकामी चरित्र और अवसरवाद की एक और नायाब मिसाल है। राष्ट्रीय एकता, अखंडता और संप्रभुता पर लगातार प्रश्नचिह्न लगाना यह दर्शाता है कि वे कोई भी कीमत चुकाकर और किसी से भी हाथ मिलाकर सत्ता प्राप्त करने के लिए बेताब और व्याकुल हैं।
तालिबान द्वारा गोला-बारूद के दम पर अफगानिस्तान के पर किये गए कब्जे का उदाहरण देकर उन्होंने कश्मीर घाटी में सक्रिय आतंकी संगठनों के हमदर्द होने और उनके तार तालिबान से जुड़े होने का भी सबूत दे दिया है। यह किसी से छिपा नहीं है कि जम्मू-कश्मीर में सक्रिय हिजबुल मुजाहिदीन, लश्कर-ए-तैय्यबा और जैश-ए-मुहम्मद जैसे दुर्दांत आतंकी संगठनों ने अफगानिस्तान में तालिबान का साथ देकर वहाँ की लोकतांत्रिक सरकार को अपदस्थ कराया है। महबूबा द्वारा दी गयी धमकी से यह भी जाहिर होता है कि उनके खुद के सम्बन्ध भी इन आतंकी संगठनों से जुड़े हुए हैं। इसीलिए उन्होंने केंद्र सरकार को धमकी देने की हिमाकत की है।
उल्लेखनीय है कि जेल में बंद महबूबा के चहेते और पी.डी.पी. के तथाकथित युवा नेता वहीद-उर-रहमान पर्रा के आतंकी नेटवर्क से सांठगांठ होने और उनके निर्देश पर काम करने की पुष्टि हो चुकी है। लम्बे समय से ज़ेल में बंद होने के बावजूद पी डी पी ने उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की है। तालिबान की धमकी देना पृथ्वीराज चौहान को नीचा दिखाने के लिए जयचंद द्वारा मुहम्मद गोरी को दिए गए न्योते की याद दिलाता है। महबूबा को खुद यह तय करना है कि क्या वे भारतीय इतिहास का एक और जयचंद बनना चाहती हैं! यह अलग बात है कि 21 वीं सदी के संगठित और सशक्त भारत में उनके चहेते मुहम्मद गोरी अर्थात् तालिबान का हश्र बहुत भयानक होगा।
केंद्र सरकार को महबूबा मुफ़्ती द्वारा लगातार दिए जा रहे भड़काऊ बयानों का गंभीर संज्ञान लेना चाहिए। वे नज़रबंदी से आज़ाद होते ही एक-के-बाद एक भारत-विरोधी बयान देकर कश्मीरी अवाम को भड़काने की राष्ट्रविरोधी साजिश में मशगूल हैं। पत्थर और बंदूक छोड़कर कलम-किताब थामने वाले कश्मीरी नौजवानों को वे एकबार फिर गुमराह करने की फिराक में हैं। हिंसा, आतंक और अलगाववाद उनकी राजनीति का आधार रहा है। वे किसी भी कीमत पर इसे छोडती नज़र नहीं आ रहीं। उनके इस प्रकार के बयानों से भारत-विरोधी पड़ोसी देशों और आतंकवादियों को शह मिलती है। इसलिए भारत सरकार को उन्हें अपने तौर-तरीके ठीक करने और उलजलूल बयानबाजी बंद करने का सीधा सन्देश देना चाहिए।
अगर वे फिर भी भारतीय गणराज्य और भारतीय संविधान की अवहेलना और ख़िलाफ़त से बाज नहीं आतीं और इसीप्रकार विषवमन करती हैं तो उनके ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई करके राज्य की संप्रभुता और शक्ति का परिचय देना चाहिए। महबूबा मुफ्ती को भी यह जानने और मानने की जरूरत है कि समस्या का समाधान पड़ोसी देशों और भाड़े के आतंकियों के हमदर्द और हिमायती बनने से नहीं; बल्कि भारत की संवैधानिक प्रक्रियाओं में आस्था रखने और उनका सम्मान करने से निकलेगा। आतंकियों द्वारा कश्मीर में राजनीतिक कार्यकर्ताओं की निर्मम हत्या और पाकिस्तानी फौज द्वारा गुलाम कश्मीर के बाशिंदों के उत्पीड़न पर उनकी रणनीतिक चुप्पी उनकी प्रतिबद्धता का खुलासा करती है। उन्हें पाकिस्तान और आतंकियों की दोस्ती छोड़कर इन मुद्दों पर अपनी आवाज़ उठानी चाहिए। यह कश्मीरियत, जम्हूरियत, हिंदुस्तानियत और इंसानियत का तकाजा है और यही उनका सबसे बड़ा इम्तिहान भी है।
अफगानिस्तान में तालिबानी हुकूमत कायम हो जाने से पाकिस्तान ख़ासकर वहाँ की फ़ौज और आई एस आई की बांछे खिली हुई हैं। इसमें उन्हें कश्मीर में दम तोड़ते आतंकवाद में नयी जान डालने की सम्भावना नज़र आती है। इसलिए भारत सरकार को बदली हुई अंतरराष्ट्रीय परिस्थिति के मद्देनज़र अपनी सीमा सुरक्षा व्यवस्था और कश्मीर में तैनात सुरक्षा बलों को और चाक-चौबंद करने की जरूरत है। इसके अलावा जल्द-से-जल्द परिसीमन प्रक्रिया को पूरा करके जम्मू-कश्मीर में विधान-सभा चुनाव भी कराने चाहिए। यथाशीघ्र एक स्वतंत्र लोकतान्त्रिक सरकार का गठन करके जम्मू-कश्मीर के पूर्ण राज्य के दर्जे को भी बहाल किया जाना चाहिए। जनादेश पर आधारित सरकार के गठन द्वारा तालिबानी मानसिकता और तालिबानी शासन का मुंहतोड़ जवाब दिया जा सकता है। जम्मू-कश्मीर का अवाम अब शांति और विकास चाहता है। केंद्र सरकार को हवाला फंडिंग और विदेशी फूंक से बजने वाले भोंपुओं की जगह जन-भावना के अनुरूप नीतिगत निर्णय लेने और उन्हें तेजी से कार्यान्वित करने की जरूरत है।