रोहिंग्याओं की रवानगी
जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने 6 मार्च, 2021 को जम्मू में अवैध रूप से बसे हुए रोहिंग्या घुसपैठियों की पहचान शुरू करते हुए वर्षों से लंबित उनकी रवानगी की कवायद शुरू की है। गृह मंत्रालय के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार जम्मू-कश्मीर में 13700 रोहिंग्या घुसपैठिये बसे हुए हैं। इनमें से 90 फीसदी से अधिक अकेले जम्मू में बसे हुए हैं। जम्मू महानगर की भटिंडी कॉलोनी को ‘मिनी पाकिस्तान’ कहा जाता है। इसके पीछे की बड़ी वजह यहाँ बसे हुए रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठिये हैं। इस कॉलोनी की किरियानी तालाब बस्ती जैसे इलाकों में इनका एकाधिकार है। इसके अलावा ये लोग जम्मू महानगर के ही नरवाल वाला, सुंजवाँ और साम्बा जिले की बाड़ी ब्राह्मणां स्थित तेली बस्ती जैसे इलाकों में भी बड़ी संख्या में बसे हुए हैं। रोहिंग्या घुसपैठियों की संख्या में सन् 2008 से 2016 के बीच लगभग दोगुनी बढ़ोतरी हुई है।
उल्लेखनीय तथ्य यह है कि मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी में इनकी संख्या नगण्य है। यह अकारण नहीं है, बल्कि इसके पीछे तत्कालीन सरकारों की सुविचारित राजनीतिक साजिश रही है। म्यांमार से जम्मू की भौगोलिक दूरी और रास्ते को देखकर इस साजिश का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। दरअसल, यह हिन्दू बहुल ‘जम्मू संभाग की जनसांख्यिकी को बदलने’ की व्यापक परियोजना का परिणाम है। इस परियोजना के तहत बांग्लादेशी घुसपैठियों और घाटी के मुसलमानों को भी जम्मू संभाग ख़ासकर जम्मू महानगर में बसाया गया। उन्हें रोशनी एक्ट की आड़ में भूमि आवंटित की गयी और इस संभाग में मतदाता बनाया गया, ताकि यहाँ के चुनावी समीकरणों को प्रभावित किया जा सके। रोहिंग्या घुसपैठियों को राजनीतिक प्रश्रय देकर बंगाल में भी बड़ी संख्या में बसाया गया। अब वहाँ चुनावी फसल काटने की तैयारी है। इसलिए जयश्री राम से चिढ़ने वाली ममता बनर्जी ने रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठियों आदि सभी अल्पसंख्यकों (मुस्लिमों) से एकजुट होकर तृणमूल कॉंग्रेस को मत देने की अपील की है।
इकजुट जम्मू के अध्यक्ष एडवोकेट अंकुर शर्मा जम्मू की जनसांख्यिकी में बदलाव की इन साजिशों के खिलाफ लगातार मुखर रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार अकेले जम्मू में भारत के आधे से अधिक रोहिंग्या घुसपैठिये बसे हुए हैं। राजनीतिक शह और समर्थन मिलने से जम्मू मुसलमान घुसपैठियों की धर्मशाला या आश्रयस्थली बन गया है। म्यांमार में सैन्य तख्तापलट के बाद घुसपैठ की आशंका बढ़ गयी है। हैरतअंगेज बात यह है कि इस पृष्ठभूमि में गृह मंत्रालय द्वारा 10 मार्च को मिजोरम, मणिपुर, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश को जारी की गयी एडवाइजरी को नज़रन्दाज करते हुए मिजोरम के मुख्यमंत्री जोरमथंगा ने ‘शरणार्थियों’को शरण देने की वकालत की है। जम्मू की ही तरह दिल्ली में भी शास्त्री नगर में डिटेंशन सेंटर बनाकर कंचन कुंज और श्रम विहार आदि जगहों पर बसे हुए घुसपैठियों की जाँच-पड़ताल और धर-पकड़ शुरू हुई है। उल्लेखनीय है कि ये वही खूनी रोहिंग्या हैं जिन्होंने अपनी नृशंसता से म्यांमार के रखाइन प्रान्त को हिन्दू-विहीन कर दिया है।
देर से ही सही पर दुरुस्त आयद करते हुए जम्मू-कश्मीर और दिल्ली प्रशासन ने अब इन अवैध घुसपैठियों की बायोमीट्रिक, फिंगरप्रिंट, पासपोर्ट, शरणार्थी कार्ड आदि की जानकारी जुटाना शुरू किया है। देर से इसलिए क्योंकि यह कार्रवाई केन्द्रीय गृह मंत्रालय के 8 अगस्त, 2017 को सभी राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों को लिखे पत्र का का संज्ञान लेकर की गयी है। इस पत्र में गृह मंत्रालय ने भारत में अवैध घुसपैठियों की बढ़ती संख्या और उससे पैदा होने वाले राष्ट्रीय सुरक्षा संकट पर गंभीर चिंता व्यक्त की थी। कड़ी सुरक्षा और निगरानी के बीच जम्मू के मौलाना आज़ाद मेमोरियल स्टेडियम में इनकी जाँच पड़ताल का काम शुरू किया गया है। इसके तहत पहली खेप में 170 अवैध घुसपैठियों को कठुआ के हीरानगर कारागार में बनाये गए ‘डिटेंशन सेंटर’ में रखा गया है। वहाँ से उनकी स्वदेश वापसी सुनिश्चित की जाएगी।
रोहिंग्या म्यांमार के बांग्लाभाषी मुसलमान हैं। ये हिंसक और आपराधिक प्रवृत्ति के होते हैं। राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में भी इन अवैध घुसपैठियों की संलिप्तता के सबूत मिलते रहे हैं। ये लोग बांग्लादेश के रास्ते अवैध तरीके से भारत में घुसकर देश के विभिन्न भागों-असम, पश्चिम बंगाल, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली और हैदराबाद आदि में फ़ैल गए हैं। देशभर में इनकी संख्या 40 हजार से अधिक है। जम्मू उनका सबसे पसंदीदा स्थान है क्योंकि यहाँ की फारुख अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नैशनल कॉन्फ्रेंस, मुफ़्ती मोहम्मद सईद और महबूबा मुफ़्ती के नेतृत्व वाली पी डी पी और गुलाम नबी आज़ाद के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकारों को उनके बसने से खास तरह का राजनीतिक लाभ मिलता रहा है। इसलिए इन सरकारों और इनके आकाओं ने म्यांमार के रोहिंग्या घुसपैठियों और बांग्लादेशी घुसपैठियों की आगे बढ़कर अगवानी की है, और उन्हें वोट के बदले में तमाम तरह के लाभ दिए हैं। जम्मू में इनके बसने की शुरुआत सन् 1996 में हुई। उस वक्त जम्मू-कश्मीर में फारुख अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नैशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार थी।
ये अवैध घुसपैठिये न सिर्फ स्थानीय सीमित संसाधनों पर बोझ हैं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी बहुत बड़ा खतरा हैं। जिन साधनों और संसाधनों पर भारतवासियों का प्राथमिक अधिकार है। उनका उपयोग और उपभोग ये लोग बेधड़क कर रहे हैं। क्योंकि उन्हें फारुख अब्दुल्ला और महबूबा मुफ़्ती जैसे राजनीतिक आकाओं की शह और समर्थन मिला हुआ है। हालाँकि, तमाम राष्ट्रवादी संगठन इन आपराधिक प्रवृत्ति के अवैध घुसपैठियों को इनके देश म्यांमार वापस भेजने की माँग करते रहे हैं। लेकिन अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण की आदी सेक्युलर सरकारें उनकी इस माँग को नज़रन्दाज करती रही हैं। जम्मू में डिटेंशन सेंटर में रखे गए और उन्हें उनके देश प्रत्यर्पित किये जाने वाले रोहिंग्या घुसपैठियों के समर्थन में ‘सेक्युलर जमात’ के अलावा ‘गुपकार गैंग’ भी फुफकार रहा है।
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एक रोहिंग्या घुसपैठिये मोहम्मद सलीमुल्ला ने ‘विख्यात’ वकील प्रशांत भूषण के माध्यम से उच्चतम न्यायालय में जनहित याचिका दायर करते हुए जम्मू-कश्मीर प्रशासन की इस कार्रवाई पर तत्काल रोक लगाने की माँग की है। साथ ही, गृह मंत्रालय को यह निर्देश देने की भी माँग की गयी है कि वह अनौपचारिक शिविरों में रह रहे रोहिंग्या शरणार्थियों के लिए विदेशी क्षेत्रीय पंजीकरण कार्यालय (एफ आर आर ओ) के माध्यम से तत्काल और तीव्र गति से शरणार्थी पहचान पत्र जारी करे ताकि इन ‘शरणार्थियों’ का उत्पीड़न न हो सके। इस याचिका में संविधान के अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 51 (सी) के तहत प्राप्त अधिकारों का हवाला दिया गया है। इसकी सुनवाई 25 मार्च को होनी है। जम्मू में रोहिंग्या घुसपैठियों के सत्यापन की चल रही इस कार्रवाई के बीच सेक्युलर समाजसेवियों के आमंत्रण पर यूनाइटेड नेशंस हाई कमिश्नर फॉर रिफ्यूजी (यू एन एच सी आर) की टीम भी जम्मू पहुँच गयी है। यह याचिका और यूएनएचसीआर की टीम को आमंत्रण और उसका अवांछित हस्तक्षेप सेक्युलर जमात के “राष्ट्रप्रेम” को उजागर करता है।
गृह मंत्रालय ने राज्यसभा में दिए गए एक लिखित जवाब में बताया है कि सन् 2018 से 2020 के बीच दो वर्षों में अवैध रूप से भारत में प्रवेश करने का प्रयास करने वाले 3000 लोगों को गिरफ़्तार किया गया है। इनमें सबसे बड़ी संख्या बांग्लादेशी, पाकिस्तानी और म्यांमारी रोहिंग्या घुसपैठियों की है। गौरतलब है कि मात्र 2 वर्ष में 3 हजार लोग तो गिरफ़्तार हुए हैं। न जाने कितने अपने प्रयास में सफल भी हो गए होंगे। पिछले 20 साल में ही न जाने कितने घुसपैठिये भारत में घुसकर कहाँ-कहाँ बस गए होंगे! इन घुसपैठियों की पहचान और प्रत्यर्पण की बात करते ही सेक्युलर जमात सक्रिय हो जाती है। इस जमात को इस तथ्य से भी कुछ लेना-देना नहीं है कि इन अवैध घुसपैठियों को भारत में बसाने के लिए पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब आदि मुस्लिम देशों से हवाला फंडिंग की जा रही है। हवाला फंडिंग से खाए-अघाए कुछ एन जी ओ मदरसे, वेलफेयर सेंटर और मस्जिद आदि बनाने/चलाने की आड़ में इनकी सुगम बसावट सुनिश्चित कर रहे थे और जरूरी दस्तावेज जुटाने/बनवाने में भी इनकी मदद कर रहे थे। भारत की ख़ुफ़िया एजेंसियां अब इन दबे-ढंके तारों को उघाड़ने और जोड़ने में जुटी हुई हैं। रोशनी एक्ट घोटाले की तर्ज पर जैसे-जैसे इस मामले की परतें खुलेंगी, इस मामले में जम्मू-कश्मीर के अब्दुल्ला-मुफ़्ती ‘राजवंशों’ की मिलीभगत का भी पर्दाफाश हो ही जायेगा। केंद्र सरकार द्वारा इन पनाहगारों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की भी पूरी सम्भावना है।
सत्यापन-प्रक्रिया में कई चौंकाने वाले खुलासे हुए हैं। बहुत से रोहिंग्या घुसपैठियों ने लेन-देन करके या सत्ताधीशों के साथ सांठ-गाँठ करके राशन-कार्ड, आधार-कार्ड और वोटर कार्ड आदि बनवा लिए हैं और सिम कार्ड हासिल कर लिए हैं। एक और चिंता की बात यह है कि इनके बच्चे बहुत ज्यादा हैं। उनकी पहचान करना मुश्किल हो रहा है। अधिक बच्चे पैदा करने का काम भी राजनीतिक शह पर ही हो रहा है; ताकि ‘जम्मू की जनसांख्यिकी’ को जल्द-से जल्द बदला जा सके और निर्णायक वोट बैंक तैयार किया जा सके। जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने मानवीयता का परिचय देते हुए पहली खेप में बिना बच्चे वाले घुसपैठियों को ही ‘डिटेंशन सेंटर’ भेजा है। सत्यापन-प्रक्रिया शुरू होते ही बहुत से रोहिंग्या जम्मू छोड़कर इधर-उधर के दूरदराज इलाकों तथा अन्य राज्यों में भी खिसक गए हैं। मगर इन दिक्कतों के बावजूद सत्यापन-प्रक्रिया पूरी प्रामाणिकता के साथ पूर्ण की जानी चाहिए और अवैध घुसपैठियों को हर हालत में प्रत्यर्पित किया जाना चाहिए।
पिछले साल जो लोग अविभाजित भारत के विस्थापित शरणार्थियों को नागरिकता देने सम्बन्धी नागरिकता(संशोधन) विधेयक (सी ए ए) के विरोध में दिल्ली में खूनी खेल खेल रहे थे और शाहीन बाग़ में टेंट तानकर बैठे थे; वही लोग आज इन अवैध घुसपैठियों को सिर पर बैठाने और सारे अधिकार देने की वकालत कर रहे हैं। यह विडम्बनापूर्ण व्यवहार है। राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर का विरोध भी इसी कारण किया जा रहा था, ताकि इसप्रकार के अवैध घुसपैठियों की पहचान और प्रत्यर्पण न किया जा सके। इन्होंने अपने वास्तविक मंसूबों को छिपाते हुए भारतीय मुसलमानों को नागरिकता छिनने का डर दिखाया और उन्हें भड़काया। यह सब हिन्दुओं के बाद भारत के ‘दूसरे बहुसंख्यक’ समुदाय- मुसलमानों की एकमुश्त वोट मुट्ठी में करने की जुगत थी। आज़ादी से लेकर आजतक कई राजनीतिक दल और अनेक झोला छाप स्वघोषित स्वयंसेवी संगठन इन तथाकथित ‘अल्पसंख्यकों’ के हिमायती दिखकर ही अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं। कल को अगर चीन के उइगर मुसलमान भी भारत में घुसपैठ करते हैं, तो भी ये लोग उनकी हिमायत करने में हिचकेंगे नहीं।
जस्टिस राजेन्द्र सच्चर कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि भारत में मुसलमानों की हालत दलितों से भी बदतर है। अगर यह बात सच है तो मुसलमानों की इस हालत के लिए जवाबदेही तय होनी चाहिए। जो लोग और राजनीतिक दल पिछले 60-70 साल से उनके तुष्टिकरण की राजनीति करते रहे हैं, उनके सबसे बड़े हिमायती, प्रवक्ता और पैरोकार बनकर उनके वोटों की एकमुश्त फसल काटते रहे हैं, उनसे मुसलमानों के इन हालात पर सवाल पूछा जाना चाहिए! देश के मुसलमानों को भरमाने के लिए धर्मनिरपेक्षता तक की अलग परिभाषा गढ़ दी गयी है। मुसलमानों का हिमायती दिखना, उनकी पैरोकारी करना ही सेक्युलर होना है। यह नायाब परिभाषा सिर्फ हिन्दुस्तान में चलती है। इसी परिभाषा से भरमाकर मुसलमानों को न सिर्फ पिछले 70 साल से पिछ्लगुआ बनाये रखा गया; बल्कि उन्हें राष्ट्र और संवैधानिक संस्थाओं के विरुद्ध भी खड़ा करने की साजिश की गयी।
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मुसलमानों के संगठित वोट बैंक को अपने पाले में कर लेना चुनाव जीतने का अबतक का सबसे आसान और नायाब तरीका रहा है। लेकिन अब हर राज्य में मुसलमान वोटों के कई-कई दावेदार और ठेकेदार खड़े हो गए हैं और हर कोई जोर-शोर से उनका हितैषी होने का दावा कर रहा है। पश्चिम बंगाल और असम इसके तात्कालिक और ताजा उदाहरण हैं। जहाँ पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, वामपंथी-कांग्रेसी गठजोड़, पीरजादा अब्बास सिद्दीकी और असदुद्दीन ओवैसी में मुसलमानों का सच्चा हमदर्द होने की होड़ लगी हुई है, वहीं असम में कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टियाँ, बदरुद्दीन अज़मल और असदुद्दीन ओवैसी इनकी सरपरस्ती की जोर आजमाइश कर रहे हैं। हालाँकि, अब मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति की विदाई वेला है।
रोहिंग्या और बांग्लादेशी आदि घुसपैठियों की विदाई की बात उठते ही सेक्युलर जमात की रुदाली मातम मनाने लगती हैं। मानवता और मानव अधिकारों की भी दुहाई देने लगती हैं। यही इसबार भी शुरू होने की आशंका है। धीरे-धीरे उन्होंने अपनी मातमी धुन शुरू भी कर डाली है। लेकिन भारत सरकार को इस मामले में भी मजबूत इरादों और इच्छाशक्ति से काम लेने की जरूरत है। देश के संसाधनों पर सबसे पहला हक़ देशवासियों का है, न कि घुसपैठियों का है। इसके साथ ही, देश की सुरक्षा और संप्रभुता के लिए संकट खड़ा करने वाले अवैध घुसपैठियों को बिना किसी हीला-हवाली के तत्काल बाहर का रास्ता दिखाया जाना चाहिए। उच्चतम न्यायालय और केंद्र सरकार को किसी भी प्रकार के दबाव में न आकर इस मामले में हस्तक्षेप करने से बचना चाहिए। ऐसा करके ही राष्ट्रीय सुरक्षा और संप्रभुता सुनिश्चित की जा सकती है।