जम्मू-कश्मीर

पीओजेके पीड़ितों को मिलेगा न्याय !

 

आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए जम्मू-कश्मीर के अपने उन भाइयों और बहिनों को याद करना आवश्यक है जोकि पाकिस्तान के जुल्मोसितम के शिकार हुए। उनके वंशज आजतक भी शोषण-उत्पीड़न सहने और दर-दर की ठोकरें खाने को अभिशप्त हैं। पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर के विस्थापितों और वहाँ के वासियों के साथ न्याय सुनिश्चित करना राष्ट्रीय कर्तव्य है। दरअसल, पीओजेके स्वातंत्र्योत्तर भारत की बलिदान भूमि है। जम्मू में 8 मई, 2022 को जम्मू-कश्मीर पीपुल्स फोरम द्वारा आयोजित ‘श्रद्धांजलि व पुण्यभूमि स्मरण सभा’ ऐसी ही एक कोशिश है। इस सभा में शामिल होकर पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर के हजारों विस्थापित अपने पूर्वजों के त्याग और बलिदान का स्मरण करेंगे।

यह अपने जीवन-मूल्यों, धर्म-संस्कृति और राष्ट्रभाव का परित्याग न करने वाले भारत माँ के उन असंख्य सपूतों के प्रति श्रद्धांजलि और उनके वंशजों के साथ खड़े होने का अवसर है। साथ ही, अपनी ‘घर वापसी’ और अपने अधिकारों की आवाज़ भी मुखर करेंगे। इस सभा का उद्देश्य पाकिस्तान, चीन और दुनिया को यह सन्देश देना है कि प्रत्येक भारतीय अपने पीओजेके के उत्पीड़ित और विस्थापित  भाइयों-बहिनों के बलिदान और दुःख-दर्द से अनजान नहीं है। उनके कष्ट निवारण और राष्ट्रीय एकता-अखण्डता की रक्षा के लिए सम्पूर्ण राष्ट्र एकजुट और संकल्पबद्ध है।

पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर के प्रमुख क्षेत्र नीलम, हटियन बाला, मीरपुर, देवा बटाला, भिम्बर, कोटली, बाग़ पुलंदरी, सदनोती,रावलकोट, मुजफ्फराबाद, पुंछ, गिलगित और बाल्टिस्तान आदि हैं। बाद की दो लड़ाइयों (1965 और 1971) में पाकिस्तान ने कूटनीतिक चालाकी से छम्ब सेक्टर को भी हथिया लिया। माँ शारदा पीठ, माँ मंगला देवी मंदिर और गुरू हरगोविंद सिंह गुरुद्वारा जैसे अनेक पवित्र स्थल पाकिस्तान के अवैध कब्जे में हैं। पीओजेके वासियों की भाषा, खान-पान, वेशभूषा और संस्कृति-प्रकृति पाकिस्तानी से अधिक भारतीय है। यहाँ कश्मीरी, गोजरी, पहाड़ी, हिंदको आदि भाषाएं बोली जाती हैं। यह क्षेत्र न सिर्फ भू-रणनीतिक दृष्टि से, बल्कि अपने प्राकृतिक संसाधनों और सांस्कृतिक समृद्धि के कारण  भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। आज यहाँ शिया मुसलमान बसते हैं।

आज़ादी के समय हिन्दू और सिख भी काफी संख्या में रहते थे। जितने जुल्मोसितम गैर-मुस्लिमों अर्थात् हिन्दू और सिखों पर हुए लगभग उतने ही जुल्मोसितम आज शिया मुसलामानों पर हो रहे हैं। उन्हें आजतक भी दोयम दर्जे का मुसलमान और दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है। अमजद अयूब और डॉ. शब्बीर चौधरी (लन्दन), जमील मकसूद ( ब्रुसेल्स), मंसूर अहमद पश्तीन (वजीरिस्तान), आरिफ आजक़िया, हाजी सैय्यद सलमान चिश्ती, जफ़र चौधरी और जावेद राही जैसे हिम्मतवर लोग अलग-अलग मंचों से लगातार पीओजेके के पीड़ितों की आवाज़ मुखर कर रहे हैं।

जम्मू-कश्मीर पीपुल्स फोरम द्वारा आयोजित जनसभा का प्रतीकात्मक ही नहीं, बल्कि रणनीतिक महत्व भी है। इस सभा में अपनी भूमि को वापस पाने और घर वापसी के संकल्प को फलीभूत करने के ठोस उपायों पर चर्चा होनी चाहिए। इन विस्थापितों की कुर्बानियों और कष्टों की ओर अंतरराष्ट्रीय समाज का ध्यान भी आकृष्ट करना चाहिए। मानवाधिकारों का उल्लंघन, लोकतन्त्र का पददलन, माँ-बहिनों का शील-हरण, पाकिस्तानी सेना की पिट्ठू सरकार और शासन-तंत्र द्वारा दमन, पाकिस्तानी सेना की देखरेख में फल-फूल रहे आतंकी संगठन और नशीले पदार्थों की खेती और तस्करी, पाकिस्तान के सिन्धी-पंजाबी मुस्लिम समुदाय को बसाकर किये जा रहे जनसांख्यिकीय परिवर्तन, मंदिरों और गुरुद्वारों को ढहाने, मूर्तियों को क्षतिग्रस्त करने  आदि के किस्से पाक अधिक्रांत कश्मीर का रोजनामचा है। यह सब सह रहे लोगों का अपराध यह है कि वे महाराजा हरिसिंह द्वारा हस्ताक्षरित 26 अक्टूबर, 1947 के अधिमिलन-पत्र के अनुसार भारतीय गणराज्य का हिस्सा होना चाहते हैं। भारत की प्रगति और खुशहाली में शामिल होना चाहते हैं। अमन-चैन और सुख-शांति चाहते हैं, जो ‘एक असफल राष्ट्र’ बन चुके पाकिस्तान में कभी मयस्सर नहीं होगी।

यह ऐतिहासिक अवसर है कि हम भूल-सुधार करते हुए अपने देश के भूले-बिसरे हिस्सों और देशवासियों का ध्यान करें। उनके मान-सम्मान और अधिकारों के लिए कुछ ठोस योजनायें बनायें। वर्तमान केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर समस्या के समाधान की दिशा में दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय दिया है। उसने पीओजेके विस्थापितों के प्रति पूरी संवेदनशीलता, सहानुभूति और सदाशयता दिखाते हुए 2000 करोड़ रुपये के राहत पैकेज, अन्यान्य सुविधाओं और योजनाओं की शुरुआत की है। लेकिन इस राहत पैकेज में जम्मू-कश्मीर के बाहर बसे विस्थापितों को शामिल न करना अनुचित है। तत्कालीन जम्मू-कश्मीर सरकार की सांप्रदायिक नीति और उपेक्षापूर्ण रवैये के कारण बहुत से विस्थापितों को अलग-अलग राज्यों में शरण लेनी पड़ी। पीओजेके विस्थापित समिति ने गृहमंत्री अमित शाह को एक ज्ञापन देकर अलग-अलग जगहों पर बसे सभी शरणार्थियों को इन राहत योजनाओं का लाभ देने की माँग भारत सरकार से की है।

कश्मीर घाटी के विस्थापितों के लिए भी ऐसे पैकेज और परियोजनाओं लागू की जा रही हैं। लेकिन इन राहत योजनाओं का दायरा और स्तर बढ़ाये जाने की आवश्यकता है। नागरिकता (संशोधन) अधिनियम-2019 ऐसी ही एक उल्लेखनीय राहत योजना है। कश्मीर घाटी के विस्थापितों के लिए देश के शिक्षण संस्थानों और सरकारी सेवाओं में प्रवेश हेतु विशेष प्रावधान किये गए  हैं। इसके दायरे में पीओजेके विस्थापितों को भी शामिल करने की आवश्यकता है। जिस भारत का नागरिक होने की वजह से उनके पूर्वजों को असहनीय क्रूरता और प्रताड़ना सहनी पड़ी और वे स्वयं आजतक भी मुश्किल हालात में जीने को मजबूर हैं; उस भारत की सरकार और नागरिक समाज को एकजुट होकर उनके साथ खड़े होने और उनके आँसू पोंछने और आश्वस्त करने की जरूरत है।

जिस प्रकार चीन लद्दाख क्षेत्र में भारतीय सीमा पर गाँव बसाने की साजिशें रच रहा है, उसी प्रकार भारत को भी कश्मीर घाटी में और पीओजेके के सीमान्त क्षेत्रों में सेना और अर्धसैनिकों बलों की कॉलोनियां बसाने की पहल करनी चाहिए। यहाँ बसने और काम-धंधा शुरू करने वाले देशवासियों को बसाने के  लिए भूमि अधिगृहीत और विकसित की जानी चाहिए। प्रवासी श्रमिकों और उद्यमियों के लिए सस्ते दाम पर आवासीय और व्यावसायिक भूखण्ड, आसान ऋण, ब्याज दर में सब्सिडी, शस्त्र लाइसेंस और शस्त्र आदि की उपलब्धता सुनिश्चित करनी चाहिए। ये लोग आतंकवाद से निपटने और खोई हुई भूमि को पाने में सेना और स्थानीय समाज के साथ प्रभावी भूमिका निभा सकेंगे। दहशतगर्दों के वर्चस्व को समाप्त करने की दिशा में ये उपाय प्रभावी साबित होंगे। आतंकवाद के शिकार निर्दोष नागरिकों को शहीद का दर्जा और उनके परिजनों को आर्थिक, सामाजिक और शारीरिक सुरक्षा देकर आतंकवाद से निडरतापूर्वक लड़ने वाला नागरिक समाज तैयार किया जा सकता है। सामाजिक संकल्प और संगठन के सामने मुट्ठीभर भाड़े के आतंकी भला कब तक ठहर पायेंगे!

जस्टिस रंजना देसाई की अध्यक्षता वाले परिसीमन आयोग ने अपनी अन्तिम रिपोर्ट दे दी है। इसमें अनुसूचित जनजातियों के लिए 9 सीटें आरक्षित की गयी हैं। आयोग ने एक महिला सहित कश्मीर घाटी के दो विस्थापितों के मनोनयन की सिफारिश की है। इसीप्रकार पाक-अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर के विस्थापितों के मनोनयन (संख्या स्पष्ट नहीं है) की सिफारिश भी की गयी है। यह पहली बार किया गया है। इसलिए सराहनीय और स्वागतयोग्य है। हालाँकि, मनोनयन की जगह चुनाव द्वारा और अधिक संख्या में प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए था। इन समुदायों और भारत के राष्ट्रवादी बुद्धिजीवियों की ओर से इस आशय की माँग की जा रही थी।

उल्लेखनीय है कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा में पाक अधिक्रांत क्षेत्र के लिए 24 सीटों को खाली छोड़ा जाता रहा है। यह उचित अवसर था कि उस क्षेत्र से खदेड़े गए भारतवासियों और उनके वंशजों के लिए 24 में से कम-से-कम 4 सीटें आवंटित कर दी जातीं।  गुलाम कश्मीर और कश्मीर घाटी के विस्थापितों के लिए सीटें आरक्षित करना इसलिए जरूरी था, ताकि उनके उनका दुःख-दर्द, समस्याओं और मुद्दों की ओर देश-दुनिया का ध्यान आकर्षित हो। वर्तमान केंद्र सरकार ने 22 फरवरी, 1994 के भारतीय संसद के संकल्प की पृष्ठभूमि में अनुच्छेद 370 और 35 ए को निष्प्रभावी करते हुए जम्मू-कश्मीर के पूर्ण विलय की दिशा में बड़ी पहल की थी। अब उस संकल्प की सिद्धि की दिशा में सक्रिय होने का अवसर है

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रसाल सिंह

लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में प्रोफेसर हैं। सम्पर्क- +918800886847, rasal_singh@yahoo.co.in
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