दास्तान-ए-दंगल सिंह (95)
मुहल्ले में सात-आठ परिवार ही बस पाये थे। न बिजली का ट्रांसफार्मर लग सका था और न गलियों का पक्कीकरण हो पाया था। इन दोनों कार्यों के लिए लोगों को मुझसे काफी उम्मीदें थीं। बसे हुए सभी लोग बिहार राज्य विद्युत बोर्ड के विधिवत उपभोक्ता बन गये थे, किन्तु इतनी कम संख्या होने के कारण अलग ट्रांसफार्मर लगना मुश्किल था। बिजली विभाग के अभियंता ने हमें कहा कि विभाग में तार उपलब्ध नहीं है। एक क्वायल कवर्ड मोटा तार हम अपने अंशदान से खरीद लाएँ तब वे सामने वाले मुहल्ले शिवपार्वती नगर के ट्रांसफार्मर से लाइन जोड़ देंगे। मरता क्या नहीं करता के सिद्धांत पर हम सब ने वही किया और मुहल्ले में विद्युत आपूर्ति शुरू हो गयी।
उधर शिवपार्वती नगर का हाल पहले से बेहाल था। ओवर लोड के कारण हर हफ्ते-पखवाड़े में ट्रांसफार्मर जल जाता था। बिजली विभाग में भ्रष्टाचार और साधनहीनता की पराकाष्ठा की स्थिति थी, एक बार ट्रांसफार्मर बदलने में पच्चीस हजार से चालीस हजार तक का खर्च आता था। मुहल्ले वालों ने एक समिति बना रखी थी और उपभोक्ताओं को लगातार मोटा चंदा देना पड़ रहा था। ऐसी विकट स्थिति में वे लोग हमारे मुहल्ले के लोड को बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। वही हुआ और लोगों ने जोरदार विरोध किया। समिति ने प्रस्ताव पारित करके हमारे मुहल्ले का लाइन काट देने का निर्णय कर लिया। उस मुहल्ले के गण्यमान्य लोगों में मेरे वरिष्ठ प्रोफेसर डॉ0 कुंज बिहारी सिंह थे। मैंने उनसे मिलकर प्रस्ताव रखा कि हमें भी अपनी समिति में शामिल कर लें, हम सभी शर्तें मानेंगे। पर उन्होंने अपनी असमर्थता जताई और अगली शाम एक युवक को पोल पर चढ़ाकर लोगों ने हमारा तार कटवा दिया। उस समय दोनों मुहल्लों में झड़प होते-होते बच गया था। एक दिन फिर हम बिना बिजली के थे।
अगले दिन बिजली विभाग के अधिकारियों ने हमारा कनेक्शन ब्लॉक कॉलोनी के ट्रांसफार्मर से देने का आदेश जारी किया, जिसके लिए चौराहे पर एक खम्भा डालने की जरूरत थी। लगा कि यह काम आसान है, किन्तु फिर एक विघ्न पैदा हो गया। मेरे निर्माणाधीन घर के सामने नहर के उस पार चौराहे पर एक रिटायर्ड बीडीओ सिंह जी का घर था। उन्होंने अपने घर के आगे बिजली का खम्भा गाड़ने से साफ मना कर दिया। काम कर रहे मजदूरों को वहाँ से बलपूर्वक भगा दिया। एक दिन और टल गया। अगले दिन फिर मजदूर बुलाये गये। सिंह जी ने फिर विरोध किया। खूब कहा-सुनी हुई और माहौल गर्म हो गया। उन्होंने लाठी निकाल ली, तब हमारे मुहल्ले के युवक नितेश और सर्वेश ने प्रत्याक्रमण करके उन्हें घर में घुसकर जान बचाने को मजबूर कर दिया था। तीसरे दिन हमारी विद्युत आपूर्ति बहाल हो पायी थी। किन्तु चिंता इस बात की थी कि एक कवर्ड वायर के भरोसे आठ घरों की आपूर्ति कब तक हो पायेगी? इतने कम उपभोक्ता पर अलग ट्रांसफार्मर देने में विभागीय अधिकारी असमर्थता जता रहे थे।
उसी समय एक संयोग घटित हुआ जिससे उस संकट का हल निकल आया। हमारी मित्रमंडली के आदरणीय भाई जी डॉ0 रमेश कुमार सिंह (एडवोकेट, पटना हाईकोर्ट) के साढ़ू श्री मदन मोहन सिंह की नियुक्ति बिहार राज्य विद्युत बोर्ड के अध्यक्ष के पद पर हो गयी। उनकी सलहज शिक्षिका सुमाला मैडम हमारी पड़ोसन हैं। मैंने सुमाला जी को सुझाव दिया कि वे अपनी ननद पूनम दीदी से बात करके ट्रांसफार्मर के लिए पैरवी करें। कुछ हफ्तों बाद संयोगवश एक विवाह समारोह में दोनों ननद-भौजाई की मुलाकात हो गयी। पूनम दीदी ने कहा कि एक सामूहिक आवेदन भेज दें तो काम हो जायेगा। हमने अविलम्ब आवेदन तैयार करके भिजवा दिया। एक सप्ताह बाद एक दिन तेज बारिश के बीच मुझे फोन कॉल आया, “आप पवन सिंह जी बोल रहे हैं क्या?”
“जी, आप कौन?”
“मैं अशोक सिंह हूँ, बिजली विभाग का एक्सक्यूटिव इंजीनियर। चैयरमेन साहब का आदेश है। आप अपना लोकेशन बताएँ। मैं मिल लूँगा। अभी सबस्टेशन में हूँ।”
मैंने उन्हें अपने मुहल्ले का लोकेशन बता दिया और वे कुछ मिनटों बाद ही पहुँच गये। इतने खराब मौसम में रेनकोट और गमबूट पहने अधिकारी को इतनी शिद्दत से काम करते हुए देखना एक सुखद आश्चर्य था। हमने मुहल्ले के मध्य में एक खाली जगह ट्रांसफार्मर लगाने के लिए दिखा दी फिर वे चले गये। दो-तीन दिन बाद वे पुनः आये और कहा कि अधिक क्षमता का ट्रांसफार्मर आवंटित कर दिया गया है। हमने ऐसा करने से मना किया क्योंकि बाद में बगल के मुहल्ले के उपभोक्ताओं को भी जोड़ने की संभावना बनी रहेगी और झगड़े का कारण बनेगी। उनसे आग्रह किया कि 63 किलोवॉट का ही ट्रांसफार्मर लगाएँ। एक सप्ताह में एचटी लाइन का पोल-तार लगा दिया गया और ट्रांसफार्मर भी लगा दिया गया। एलटी लाइन के खम्भे, ब्रेकेट और तार आदि के लिए इतनी हाईप्रोफाइल पैरवी के बावजूद हमें पैसे खर्च करने पड़े थे। पर बिजली की समस्या दूर हो गयी थी।
मुहल्ले की गलियों के पक्कीकरण का काम एनटीपीसी के सौजन्य से हुआ था। तत्कालीन निदेशक (मानव संसाधन) श्री रमेश चंद्र श्रीवास्तव पूर्व में कहलगाँव परियोजना के महाप्रबंधक रह चुके थे। उनके कार्यकाल में ही मैंने कोचिंग संस्थान शुरू किया था। उनसे आत्मिक संबंध बन गया था जिसे हम दोनों ने बाद में भी जीवन्त बनाये रखा था। उनके कारण तत्कालीन महाप्रबंधक श्री उमेश प्रसाद पाणि से मेरे अच्छे ताल्लुकात बन गये थे। उस दौर में जब भी मैं दिल्ली जाता तो श्रीवास्तव जी से जरूर मिलता तथा वे जब भी कहलगाँव भ्रमण पर आते तो मुझे बुलाकर अवश्य मिलते थे। पाणि जी को मैंने सामूहिक पत्र देकर सामाजिक दायित्व योजना के माध्यम से अपने मुहल्ले की सड़क और नाली के निर्माण के लिए पहल की थी। उन्होंने वचन दिया था कि अगले वित्तीय वर्ष में वह काम जरूर करवा देंगे। मेरे द्वारा छपी कुछ खबरों के कारण परियोजना के तत्कालीन डीजीएम (एचआर) श्री थॉमस वर्की से मेरा तनावपूर्ण रिश्ता चल रहा था। उन्होंने प्रतापनगर की उस योजना में लंगड़ी मार दी थी और अपने मातहतों को कह दिया था कि जबतक वे हैं, पवन सिंह का कोई काम नहीं होने देंगे। मैं धैर्य के साथ सही मौके का इंतजार कर रहा था। कुछ माह बाद निदेशक श्रीवास्तव जी कहलगाँव भ्रमण के लिए आये। वे वाया कोलकाता हावड़ा-जमालपुर एक्सप्रेस ट्रेन से रात दस बजे कहलगाँव पहुँचे थे। उसी समय मैंने उन्हें फोन किया कि कब मिलूँ? उन्होंने सुबह नाश्ते पर बुला लिया। अगली सुबह अतिथिगृह मानसरोवर में उनसे मुलाकात हुई। डाइनिंग टेबल पर यू शेप में बाएँ से पहले मैं तब श्रीवास्तव जी, फिर पाणि जी, एजीएम श्री आर के सिंह और अंत में वर्की जी बैठे थे। नाश्ते के दरम्यान हालचाल लेने के क्रम में मैंने जानबूझकर सीएसआर की चर्चा छेड़ दी। मैंने उन्हें बताया कि इस बार मेरे द्वारा तीन योजनाओं का प्रस्ताव दिया गया था, जिनमें से दो स्वीकृत हुईं और एक अस्वीकृत। उन्होंने पूछा, “क्या सब प्रस्ताव था?”
मैं बोला, “कॉलेज के लिए गर्ल्स कॉमन रूम, स्टाफ रूम और मेरे मुहल्ले के लिए सड़क व नाली। कॉलेज की दोनों योजनाएँ स्वीकृत हुईं और सड़क-नाली को वर्की जी ने खारिज कर दिया।” पाणि जी निर्विकार भाव से सुन रहे थे और वर्की जी का चेहरा जैसे नाश्ते के प्लेट में घुसा जा रहा था। श्रीवास्तव जी गुर्राहट भरे स्वर में बोले, “यू वर्की! इडियट हो क्या? और कोई काम नहीं है? पाणि यह काम करवाओ। पवन जी मुझे फोन करियेगा कि काम हुआ या नहीं।” इसके बाद माहौल थोड़ा भारी हो गया जिसे हल्का करने का मैंने प्रयास किया। कुछ हुआ भी, पर वर्की जी का मुँह लटका ही रह गया था। अगली सुबह सिविल इंजीनियर श्री बी के सिंह अपने एक सहायक के साथ मेरे घर पर पहुँच गये और साथ चलकर मुहल्ला घुमाने के लिए बोले। मुझे कॉलेज जाना था। पड़ोसी विनोद जी को साथ लगाकर मैं चला गया। सड़क की मापी हो गयी और बिना निविदा के नोटशीट पर एक भूविस्थापित को कार्यादेश दे दिया गया। यह काम महाप्रबंधक पाणि जी के विशेषाधिकार के तहत आवंटित हुआ था। लेकिन ठेकेदार टुटपुँजिया और कामचोर निकला, जिसके चलते हमारे मुहल्ले की सड़क और नाली अच्छी नहीं बन पायी।
एक तथ्य यह कि प्रतापनगर में नगरपंचायत ने कोई विकास का काम नहीं किया है। पेयजल की आपूर्ति के लिए मुख्य गली में गड्ढे खुदवाये गये थे। महीनों तक खुले गड्ढे के कारण लोगों को कष्ट झेलना पड़ा, पर उसमें पाइप नहीं डाला गया। परेशान मुहल्लावासियों ने गड्ढे को अपने खर्चे पर भरवा दिया। वह काम आजतक नहीं हुआ। कुलमिलाकर नगरपंचायत बिना लागत के हमारे मुहल्ले से मोटा टैक्स वसूल रहा है। गाहे-बगाहे झाड़ू और नाली उड़ाही का काम हो जाता है तथा चार खम्भों में स्ट्रीट लाइट लटका दिया गया है। हालांकि कई मामलों में यह मुहल्ला कहलगाँव के श्रेष्ठ मुहल्लों में शुमार है। एक नगरपंचायत कार्यालय को छोड़कर सभी सरकारी कार्यालय और अस्पताल दो सौ मीटर की दूरी में अवस्थित है। अभी मुहल्ले के पेट (एल शेप के अंदर) में अनुमंडल व्यवहार न्यायालय के जजों और कर्मचारियों के लिए आवास का निर्माण कार्य चल रहा है। आवासन के बाद सुरक्षा की दृष्टि से भी यह मुहल्ला श्रेष्ठ हो जायेगा।
(क्रमशः)