स्वास्थ्य सेवाओं में कॉर्पोरेट पूँजी
स्वास्थ्य सेवाओं में कॉर्पोरेट पूँजी के अधिकाधिक प्रवेश के कारण कौन सी मुश्किलें मरीज़ों के सामने खड़ी हो रही हैं, इस बारे में जब ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में डॉ. समीरन नन्दी का लेख पढ़ा, तब आँखें खुल गयीं, दिमाग़ चकरा गया!
डॉ. नन्दी से गंगाराम अस्पताल में अपनी बेटी के इलाज के सिलसिले में मिल चुका था। उनकी अति-संक्षिप्त संवाद-शैली और गहरी सूझबूझ से प्रभावित भी हो चुका था। लेकिन इस लेख से दुनिया भर में स्वास्थ्य सेवाओं के बदलते हुलिए का जो परिचय मिला, वह बिल्कुल नया अनुभव था।
जब डॉ. नन्दी AIIMS (अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, हरिद्वार में थे, तब उन्हें जानता भी नहीं था। लड़की के बीमार होने पर एक सुझाव के कारण विशेषज्ञ के रुप में डॉ. नन्दी से मिला। शायद ऑपरेशन करना पड़े, इसके लिए बातचीत करने के उद्देश्य से अगले दिन सुबह बुलाया। हम लोग समय पर मौजूद थे। वे एक उच्च स्तरीय बैठक में थे। लगभग दो-ढाई घण्टे बाद निकले। तेज़ी से जाने लगे। हम उनके पीछे हल्के-हल्के दौड़कर बात कर रहे थे।
उन्हें केस याद था। हमने कहा, आपने ऑपरेशन की तारीख़ के लिए बुलाया था। बोले, व्हाई ऑपरेशन? नो ऑपरेशन!’
फिर तकलीफ़ के बारे में अपनी सलाह दी और दवाएँ बतायीं। अकस्मात यह भी कहा कि ‘मिनिमम मेडिसिन, रेयरली ऑपरेशन।’
यह दो-तीन शब्दों वाली उनकी विशेषता थी। दो दिनों में यह खूब समझ में आ गया था। लेकिन ऑपरेशन को नकारकर उन्होंने बड़ी राहत दे थी। प्राइवेट अस्पतालों में ऑपरेशन सबसे पहले करते हैं। उसमें अस्पताल की ओर सीनियर डॉक्टरों की बहुत अधिक कमाई होती है। नन्दी के नाम से ही इतने मरीज आते हैं कि अलग से कमाई का कोटा पूरा करने के लिए इन तिकड़मों की ज़ररत या मजबूरी डॉ. नन्दी के लिए नहीं है।
उन्हीं दिनों टाइम्स ऑफ इंडिया में सम्पादकीय पृष्ठ पर नीचे वाला एक लेख समीरन नन्दी का प्रकाशित हुआ। उन्होंने छोटे से लेख में वैश्विक स्तर पर कॉर्पोरेट पूँजी के स्वास्थ्य सेवाओं में प्रवेश के कारण क्या बदलाव हुए हैं, इसका खाका उभार दिया था। अस्पतालों की श्रृंखला के पीछे कॉर्पोरेट पूँजी है, दवा उद्योग में भी वही कॉर्पोरेट पूँजी है, क़र्ज़ बाँटने वाले अंतर्राष्ट्रीय बैंकों में भी उन्हीं कॉर्पोरेट स्वामियों की पूँजी है।
ये लोग स्वास्थ्य सेवाओं को मुनाफे के लिए उसी तरह चलाते हैं जिस तरह मैगी-चिप्स-चॉकलेट का व्यापार चलाते हैं।
अस्पतालों में मैनेजमेंट नीति तय करता है, डॉक्टरों को उसी का पालन करना पड़ता है। कुछ बड़े डॉक्टरों को बहुत ज्यादा वेतन मिलता है, उनका नाम चलता है। वे अस्पताल द्वारा निश्चित किये गए लक्ष्य तक आमदनी वसूलने के लिए बाध्य हैं। जूनियर डॉक्टर का कुछ महत्व नहीं है। कम वेतन पर बहुत से जूनियर डॉक्टर रखे जाते हैं।
यही हाल हर सार्वजनिक आवश्यकता के क्षेत्र में है। अखबारों में भी पहले प्रधान सम्पादक होते थे। अब नहीं होते। बड़े केंद्रों में प्रबंध संपादक होते हैं, वे सभी संस्करणों की देखरेख करते हैं। उसके नीचे समाचार सम्पादक और विचार सम्पादक होते हैं। छोटे केंद्रों पर स्थानीय संपादक होते हैं।
बहरहाल, समीरन नन्दी उन बड़े डॉक्टरों में हैं जिनके नाम से अस्पताल की इतनी कमाई हो जाती है कि उन्हें अलग से मरीज पर दबाव डालकर कोटा पूरा नहीं करना पड़ता। ऐसा एक डॉक्टर अम्मा के हार्ट फेल्योर के समय द्वारका के वेंकटेश्वर अस्पताल में मिला–डॉ. दत्ता। उन्होंने तो साफ कहा कि हम-आप मध्यवर्ग के लोग हैं, बेमतलब में कोई इलाज मैं नहीं बताऊँगा। मेरे कोटे की आमदनी इन्हें दो-तीन हफ्ते में हो जाती है।
समीरन नन्दी ने जनसाधारण को ध्यान में रखकर बहुत सी पुस्तकें लिखी हैं। ‘अंडरस्टैंडिंग ब्लड कैंसर, अंडरस्टैंडिंग हार्ट अटैक, इत्यादि। हाँ, ये पुस्तकें अंग्रेजी में हैं। लेकिन इन दिनों डायबिटीज को लेकर बहुत सी बातें उठ रही हैं, भारत को डायबिटीज का सबसे बड़ा उत्पादक बताया गया है। यद्यपि यह भी फार्मास्युटिकल लॉबी का खेल है, लेकिन डॉ. नन्दी की एक दिलचस्प पुस्तक इस बारे में है: डाइट इन डायबिटीज!
मेरा समीरन नन्दी के पति आत्मीय भाव बढ़ता गया इस बात से कि वे उसी स्वास्थ्य बाज़ार में हैं जिसका नियंत्रण आज कॉर्पोरेट पूँजी कर रही है लेकिन वे उसके प्रतिपक्ष भी हैं। मानवीय सरोकार से भरे हुए, भारतीय लोगों की परिस्थिति समझने वाले और हर मनुष्य को आत्मसजग बनाने का उद्योग करने वाले।