देशसेहत

निजीकरण की बजाय समुदायिकरण पर हो जोर

 

भारत की आत्मा भले ही गांवों में बसती हो, लेकिन आजादी के 72 साल बाद भी ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य जैसी बुनियादी और मूलभूत सुविधाओं का खासा अभाव है। आज जब कोरोना जैसी महामारी ने गांव में फैलकर ग्रामीणों को अपना शिकार बनाना शुरू किया तो हम उनकी कुछ मदद करने की बजाय एक बेबस दर्शक बन कर ही रह गये है। सवाल है कि आखिर ऐसा क्यूं हुआ। असल में भारतीय राजनेताओं के लिए आमजन का स्वास्थ्य कभी प्राथमिकता में रहा ही नही है। वे चुनाव के समय चुनावी सभाओं में स्वास्थ्य से जुड़ी बड़ी-बड़ी बातें करके सब्जबाग तो दिखा देते है लेकिन चुनाव संपन्न होते ही फिर लोगों को उनके ही हाल पर छोड़ देते है।

इसमें कोई दो राय नही है कि किसी भी देश की तरक्की तभी संभव है जब उसके नागरिक सेहतमंद हों। जनता स्वस्थ हो, देश में चिकित्सा सुविधाएं दुरुस्त हो। लेकिन भारत में ऐसा नही है यहाँ स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति बेहद दयनीय और निराशाजनक है। हम विकसित देश किसे मानते है। क्या होता है विकास। यही ना कि एक सभ्य देश बनने के लिए हम अपने लोगों को छोटी-छोटी बीमारियों से तबाह न होने दे। अभी इस समय देश में सबसे ज्यादातर लोग कोरोना जैसी महामारी के इन्फेक्शन यानी संक्रमण के चलते बीमार हो रहे हैं, और यह बात सिर्फ ठंड में होने वाले सर्दी-जुकाम जैसी नही है। लेकिन सबसे दुखद तो ये है कि हम थे जिनके सहारे है वे हुए ना हमारे। उनने ही अवाम को अपने हाल पर छोड़ दिया है जिनकी जिम्मेदारी थी कि वे देखरेख करें। मौजूदा वक्त में लोग बेसहारा है। आखिर क्यूं।

कोरोना महामारी को लेकर भारत में हालत भयावह बन गये है। इसके मरीजों का आंकड़ा करीब साढ़े तीन करोड़ को छुने वाला है। तारीख 21 मई तक 2,76,110 नये मामले सामने आने के बाद देश में संक्रमितों की संख्या बढ़कर 2,57,72,440 हो गयी। जबकि 3,874 लोगों की मौत के बाद मृतक संख्या बढ़कर 2,87,122 हो गयी।

इस समय दुनियाभर में कोरोना के 16.42 करोड़ से ज्यादा मामले है। जबकि 34. 04 लाख से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। अमेरिका की जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी की ओर से जारी आंकड़ों के अनुसार, पूरी दुनिया में कोरोना वायरस संक्रमण के कुल मामले बढ़कर 164,251,023 हो गये हैं और अब तक 3,404,990 लोगों की जान जा चुकी है। पूरी दुनिया में इस महामारी से अमेरिका सबसे अधिक प्रभावित देश है। यहाँ अब तक 32,997,496 मामले सामने आए हैं, जबकि मरने वालों की संख्या 587,219 हो चुकी है। संसार में इस बीमारी से दूसरा सबसे बड़ा प्रभावित देश भारत है।

बताते चलूं कि देश में 25 मार्च 2020 को जब लॉकडाउन लगा था तब कोरोना वायरस के 525 मामले सामने आए थे और 11 मौतें दर्ज हुई थी। जब लॉकडाउन 68 दिनों बाद 31 मई 2020 को खत्म हुआ तब भारत में 1,90,609 मामले दर्ज किये जा चुके थे और 5,408 मौतें हुई थी। आज यह कितना भयावह रूप ले चुका है सबके सामने है। किसी ने भी अंदाजा नही लगाया होगा कि तबाही इस हद तक मच जाएगी।

खैर। अब आलम ये है कि इस बीमारी में मरीजों को न तो शहर और न ही गांव में ठीक से उपचार मिल पा रहा है। शहरों में कुछ हद तक स्थिति को सामान्य कह सकते है पर गांवों में तो स्थिति बहुत ही खराब है। कुछ भी ठीक नही है। यहाँ बीमारी और बीमारी के दौरान समय पर उपचार नही मिलने के साथ ही गरीबी के चलते लोग बड़ी तादात में मर रहे हैं।

प्रश्र है कि आखिर गांव में इतनी विकराल स्थिति क्यूं बनी। इसको जानने के लिए हमें केन्द्र व राज्य सरकारों की स्वास्थ्य नीति पर नजरें इनायत करना होगी। हालाकि भारत में स्वास्थ्य का जिम्मा राज्य सरकारों के अधीन है लेकिन इस महामारी में जिम्मेदारी केन्द्र सरकार की कुछ ज्यादा ही बन पड़ती है। सवाल उठता है कि केन्द्र और राज्य सरकारें मिल कर भी मरीजों को लाशे बनने से क्यूं नही रोक पा रही है। इसका जवाब सत्ता शासकों के पास ही है। यकीनन। इस समय सत्ता शासकों को अपने देश की करीब 140 करोड़ आबादी की सेहत का विशेष ख्याल रखना चाहिए था, ये उसकी जिम्मेदारी भी बनती थी लेकिन किसी ने भी अपनी जिम्मेदारी नही माना। हर सत्ता शासक ने इसे मजाक बनाया। हालात सामने है। इस देश में अब तक जितने में सत्ता शासक हुए हैं ये स्वास्थ्य बदहाली उनकी ही देन है।

असल में हमारे यहाँ स्वास्थ्य बदहाली का सबसे बड़ा कारण आबादी के लिहाज से स्वास्थ्य बजट की उपलब्धता नही होने को माना जा सकता है। दुर्भाग्य है कि देश में अब तक जितनी भी सरकारें चुन कर आई उन सब सरकारों ने स्वास्थ्य सेवाओं के बजट को बढ़ाने की बजाय उदासीनता ही दिखाई।

अब बात स्वास्थ्य सेवा के बजट पर। ये अब तक ऊंट के मुंह में जीरा के समान ही रहा है। हम अब भी स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का महज एक फीसदी खर्च करते है। सच तो यह है कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में खर्च के मामले भारत अपने पड़ोसियों से भी पीछे है। स्वास्थ्य के मद में मालदीव (9.4 फीसदी), भूटान (2.5 फीसदी), श्रीलंका (1.6 फीसदी) और नेपाल (1.1 फीसदी) खर्च करता है। हम तो अपने लोगों के स्वास्थ्य पर खर्च के मामले में इन छोटे-छोटे देशों से भी पीछे है। दक्षिण एशिया क्षेत्र के 10 देशों की सूची में भारत सिर्फ बांग्लादेश से पहले नीचे से दूसरे स्थान पर है। भारत की तुलना में इलाज पर अपनी आय का दस प्रतिशत से अधिक खर्च करने वाले देशों में ब्रिटेन भी शामिल है। यहाँ स्वास्थ्य पर 1.6 फीसदी, अमेरिका में 4.8 फीसदी और चीन में 17.7 फीसदी खर्च किया जाता है।

आपको ये जानकर भी ताज्जुब होगा कि केन्द्र सरकार ने सेहत को लेकर जिस तरह की उपेक्षा से भरी नीति को अपना रखा है उस कारण देश में स्वास्थ्य पर होने वाले भारी-भरकम खर्च के चलते हर साल औसतन चार करोड़ भारतीय परिवार गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं। जब हालात इतने विकट है तो मोदी सरकार को स्वास्थ्य बजट पर जीडीपी का कम से कम तीन से चार फीसदी खर्च करना चाहिए लेकिन ढ़ाक के तीन पांत ही है।

ये भी जाहिर है कि आबादी के लिहाज से उचित बजट के अभाव में हमारे देश में बीमारियों के बोझ की तुलना में स्वास्थ्य सेवा का ढांचा काफी लचर है। स्वास्थ्य बजट में सरकार को प्राथमिक और आपातकालीन चिकित्सा सेवा पर सबसे ज्यादा ध्यान देना चाहिए फिर चाहे वह सरकारी हो या निजी क्षेत्र के अस्पताल। आज भी भारत की 70 फीसद आबादी इलाज के लिए निजी क्षेत्र पर निर्भर है। निजी अस्पतालों पर आश्रित रहने का मामला तभी खत्म होगा जब सरकार स्वास्थ्य बजट पर अधिक खर्च करे। केन्द्र सरकार को विदेशों से आयात होने वाली मेडिकल इक्यूपमेंट की कीमतों को कम करने पर ध्यान देना चाहिए ताकि मरीजों को सस्ता इलाज मिले।

काबिलेगौर हो कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने आम चुनाव 2019 के अपने घोषणापत्र (संकल्प पत्र) में वादा किया था कि इस बार वो स्वास्थ्य बजट को न केवल बढ़ाएगी बल्कि एक कदम और आगे बढ़ते हुए दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना आयुष्मान भारत योजना को अगले चरण तक ले जाएगी। इसके लिए हेल्थ फॉर ऑल नाम का नारा भी दिया। आज कोरोना काल में देश के वजीरे आजम नरेन्द्र मोदी की सबसे अहम मानी जाने वाली आयुष्मान बीमा योजना की कैसी धज्जियां उड़ाई जा रही है ये आप सबके सामने है। इस समय तमाम प्रायवेट अस्पताल में इसे स्वीकार करने से इंकार कर रहे हैं। जबकि मोदी सरकार और भाजपा जनित राज्यों की सरकारें अखबारों में बड़े-बड़े फुल पेज के इस्तेहार निकाल कर मरीजों और उनके परिजनों को यह बता कर बेवकुफ बना रही है कि 5 लाख तक का इलाज निशुल्क मिलेगा।

केन्द्र की मोदी सरकार अवाम को वाकई में स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराना चाहती है तो सबसे पहले इस सरकार को बुनियादी स्वास्थ्य को मजबूत करने की आवश्यकता है। बीते साल विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट आई थी। इस रिपोर्ट के आंकड़े मौजूदा सरकार की नीति और नियत को खुल कर सामने रख देते है। इस रिपोर्ट के आंकड़े बताते है कि मोदी सरकार की ऐसी कोई नियत नही है कि वे अपनी जनता का हेल्थ खर्च कम करवा कर किसी प्रकार की राहत दिलाना चाहती है। इस रिपोर्ट में ये भी साफ है कि भारत में स्वास्थ्य के मद में होने वाले खर्च का 67.78 प्रतिशत लोगों की जेब से ही निकलता है, जबकि इस मामले में वैश्विक औसत 17.3 प्रतिशत ही है। इसमें तो यह तक कहा गया है कि आधे भारतीयों की आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच ही नहीं है।

इसमें ये भी बताया गया कि भारत में लगभग 23 करोड़ लोगों को 2007 से 2015 के दौरान अपनी आय का 10 फीसदी से अधिक पैसा इलाज पर खर्च करना पड़ा था। यह संख्या ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी की संयुक्त आबादी से भी अधिक था। इन आंकड़ों से साफ अंदाजा लगा सकते हो कि वर्तमान मोदी सरकार भारत के आमजन के स्वास्थ्य के प्रति कितनी बेपरवाह है।

अब हम ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य बदहाली और गंभीर समस्याओं के साथ ही वहाँ डॉक्टर, अनिवार्य स्टॉफ और आवश्यक सुविधाओं उस पर बात करते है। स्वास्थ्य मामलों के जानकारों की माने तो सरकार ने ग्रामीण स्वास्थ्य के ढांचे के नाम पर अस्पतालों और हेल्थ सेटरों की इमारतें तो खड़ी कर दी है लेकिन इनको क्रियाशील बनाने के लिए मानव संसाधनों की खासी कमी है। इस पर न कभी ध्यान दिया और न ही देना चाहती है। ये तो सर्व विदित है कि भारत में डॉक्टरों की भारी कमी है। इस कमी के चलते ग्रामीण अंचल में कोरोना महामारी के कारण हाहाकार की स्थिति निर्मित हो गयी है। अब भारत में कोरोना ने महामारी का रूप ले लिया है और हमारी स्थिति यह है कि इलाज के लिए प्रर्याप्त डॉक्टर तक नही है।

आपको जानकर हैरानी होगी कि देश के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर डॉक्टरों की करीब 41.32 फीसदी की कमी है। यानी सरकार की तरफ से कुल 158,417 पद स्वीकृत है। इनमें से 65,467 अब भी खाली है। अब कोरोना महामारी शहर से गांव की तरफ तेजी से बढ़ चली है और वहाँ फैलकर तबाही मचा रही है। हालात हम सबके सामने है। सच कहूं तो केन्द्र व राज्यों की सरकारें लोगों की जान तक नही बचा पा रही है। इसका एकमात्र कारण ये है कि हमारे पास इस बीमारी से लडऩे के लिए ग्रामीण इलाकों में डॉक्टरों की अभाव के साथ ही आवश्यक संसाधनों की भारी कमी है।

इस संबंध में जन स्वास्थ्य अभियान के राष्ट्रीय सहसंयोजक अमूल्य निधि का साफ कहना है कि इस कोरोना काल ने भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल खोल कर रख दी हैं। लेकिन दुर्भाग्य ये है कि आज भी स्वास्थ्य विभाग के मंत्री और अधिकारी इस बात को समझने को तैयार नही है कि सरकारी स्वास्थ्य व्यस्था ने ही इस देश की जनता को संभाल कर रखा हैं। वे कहते है कि देश में चरमराई हुई इस स्वास्थ्य व्यवस्था का एक ही इलाज है।

हमारी सरकारें व नीति निर्माता जिला स्तर की स्वास्थ्य व्यवस्थाओं का मूल्यांकन करके स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के साथ ही ढांचागत सुधार कर सकते है। इसके साथ ही अमूल्य कहते है कि अब समय आ गया हैं कि स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार बनाया जाए। स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण करने की बजाय उनका समुदायिकरण किया जाए। देश की मौजूदा लोक केंद्रीत स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ावा दिया जाए। गर सरकारें स्वास्थ्य बदहाली को वाकई में खुशहाली में बदलना चाहती है तो सहकारिता आंदोलन के प्रयासों से सीख लिख लेकर निजी अस्पतालों पर एक मजबूत निगरानी तंत्र को खड़ा किया जाए ताकि बीमार को समय पर सरल, सहज और सस्ता इलाज मिल सके।

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संजय रोकड़े

लेखक पत्रकारिता जगत से सरोकार रखने वाली पत्रिका मीडिय़ा रिलेशन का संपादन करते हैं और सम-सामयिक मुद्दों पर कलम भी चलाते हैं। सम्पर्क +919827277518, mediarelation1@gmail.com
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