कलेक्टर : नाम नही मन बदलने की दरकार
मध्यप्रदेश में सरकार कलेक्टर का नाम बदलने जा रही है। अंग्रेजी हुकूमत के लिए राजस्व वसूलने यानी कलेक्ट करने के लिए ईजाद किये गए कलेक्टर के पद में अभी भी औपनिवेशिक प्रतिध्वनि होती है। हालांकि मध्यप्रदेश के आईएएस अफसर इस नाम को बदलने के लिये राजी नही है। मध्यप्रदेश आईएएस एशोसिएशन के अध्यक्ष आईसीपी केसरी की अध्यक्षता में बनाई गई एक पांच सदस्यीय कमेटी के समक्ष राज्य के आईएएस अफसरों के अलावा राज्य प्रशासनिक सेवा और तहसीलदार संघ ने भी सरकार के इस प्रस्ताव का विरोध किया है। अब यह कमेटी राज्य के सांसद, विधायक, औऱ अन्य मैदानी जनप्रतिनिधियों से परामर्श कर मुख्यमन्त्री कमलनाथ को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी।
उधर राज्य के सामान्य प्रशासन मन्त्री डॉ गोविंद सिंह स्पष्ट कर चुके है कि कलेक्टर का नाम बदला जाएगा। मध्यप्रदेश सरकार मैदानी प्रशासन तन्त्र में भी नीतिगत रूप से बदलाव कर रही है अब जिलों में जिला सरकार काम करेंगी। यानी जिला प्रशासन की जगह अब सरकार लेगी जो प्रशासन की तुलना में सरकार के समावेशी स्वरूप का अहसास कराता है। कलेक्टर अभी जिले का सबसे बड़ा अफसर होता है और उसकी प्रशासनिक ताकत समय के साथ असीमित रूप से बढ़ती जा रही है। आलम यह है कि कलेक्टर के आगे विधायक सांसद जैसे चुने गए प्रतिनिधि भी लाचार नजर आते है। मध्यप्रदेश में छतरपुर के मौजूदा कलेक्टर तो स्थानीय विद्यायकों को मिलने के लिये घन्टो इंतजार कराकर सुर्खियों में रह चुके है। सरकार के तमाम मन्त्री कलेक्टरो द्वारा असुनवाई की शिकायत करते रहते है। असल में मौजूदा राजव्यवस्था का स्वरूप स्वतः ही कलेक्टर के पद को अपरिमित ताकत देता है।लोककल्याणकारी राज के चलते सरकारें लगातार जनजीवन में अपना सकारात्मक दखल बढ़ाती जा रही है। प्रशासन का ढांचा विशालकाय हो गया है। व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक आज सरकार की भागीदारी सुनिश्चित है। ऐसे मैं कलेक्टर लोककल्याणकारी योजनाओं से लेकर आधारभूत ढांचा विकास औऱ कानून व्यवस्था के अंतहीन दायित्व कलेक्टर के पास आ गए है। इन परिस्थितियों में कलेक्टर की व्यस्तता तो बढ़ी ही है समानान्तर ताकत और अधिकारों के साथ आने वाली बुराइयों ने भी इस पद को अपने कब्जे में ले लिया है।सरकार की समस्त मैदानी प्रयोगशाला आज जिला इकाई है। कलेक्टर एक ऐसे परीक्षक बन गए है जहां से हर समीकरण निर्धारित होता है। कलेक्टर के पद से जुड़ी असीम ताकत ने निर्वाचित तन्त्र को आज लाचार सा बना दिया है। आज भी आम आदमी कलेक्टर को लेकर कतई सहज नही है। इसी व्यवस्थागत विवशता को समझते हुए मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार ने बुनियादी परिवर्तन का मन बना लिया है। जिला सरकार का प्रयोग वस्तुतः मैदानी प्रशासन तन्त्र में जनभागीदारी को प्रधानता देना ही है। इस जिला सरकार में प्रभारी/पालक मन्त्री अध्यक्ष होंगे और कलेक्टर सचिव ।4 सदस्य जनता की ओर से मनोनीत होंगे। कलेक्टर का पदनाम बदला जाना भी इस अंग्रेजी राज व्यवस्था पर मनोवैज्ञानिक रूप से प्रधानता हासिल करने का प्रतीक है।
बेहतर होगा कलेक्टर भी अपने व्यवहार में परिवर्तन लाकर भारत के आम नागरिकों के साथ, उनकी अपेक्षाओं आकांक्षाओं के साथ समेकन का प्रयास करें। नही तो पदनाम बदले जाने का कोई औचित्य नही रह जायेगा। वैसे देश में कलेक्टर हर राज्य में नही है। पंजाब में यह डीसी, यूपी में डीएम, बिहार में समाहर्ता के नाम से जाने जाते है। जनप्रतिनिधियों को भी चाहिये कि वे भी लोकव्यवहार में पारदर्शिता का अबलंबन करें। तभी औपनिवेशिक राजव्यवस्था से जनता को मुक्ति मिल सकेगी। अफसरशाही को लेकर यह आमधारणा है कि वह एक अनावश्यक आवरण खड़ा करके रहती है। लोकसेवक के रूप में उसकी आवश्यकता के साथ आज भी भारत की नौकरशाही न्याय नही कर पाई है और त्रासदी यह है कि 70 साल बाद मानसिकता के स्तर पर भी हमारे समाज से निकली इस जमात ने खुद को आईसीएस के मनोविज्ञान को त्यागा नही है। कलेक्टर की व्यवस्था असल में आज भी देश भर में लोगों को सुशासन का अहसास कराने में नाकाम रही है। नाम बदलकर जिला अधिकारी, जिला प्रमुख, जिलाधीश करने से उस बुनियादी लक्ष्य की ओर उन्मुख होना संभव नही है जिसे लेकर कमलनाथ यह कदम उठा रहे है।