बिहार के विकास में बाधक गठबन्धन की राजनीति
बिहार अपनी राजनीतिक फेरबदल के कारण राष्ट्रीय मीडिया में छाया हुआ है। नितिश कुमार ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन से अलग होकर महागठबन्धन के साथ मिलकर सरकार बनाई। सत्ता पक्ष में कुछ चेहरे भी बदले हैं। परन्तु बिहार अपना चेहरा बदलने की प्रतीक्षा दशकों से कर रहा है। बिहार गंगा, गंडक, सोन, घाघरा, कोशी जैसी 21 नदियों के प्रवाह से सिंचित कृषि प्रधान राज्य है। यहाँ के श्रमिकों की कार्यक्षमता और उत्पादकता के कारण सभी प्रदेशों में इनकी उच्च माँग रहती है। बिहारियों की मेधा के बारे में तो संघ लोक सेवा आयोग और विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं के परिणाम ही बता देते हैं। विगत दो दशकों से उत्तर प्रदेश के बाद सर्वाधिक प्रशासनिक सेवा के अधिकारी बिहार से होते हैं। मेधाशक्ति, श्रमशक्ति, उपजाऊ भूमि और अपने विकास के लिए अक्लांत परिश्रम करने की मानसिकता रहते हुए भी बिहार भारत का सर्वाधिक गरीब राज्य क्यों है?
किसी भी राज्य या देश के विकास का महत्वपूर्ण मापक उसका प्रति व्यक्ति आय होता है। चालू मूल्यों पर बिहार की प्रति व्यक्ति आय वित्त वर्ष 2019-20 में 50,745 रूपए थी जो कि भारत के सभी राज्यों में न्यून्यतम रही। भारत में सबसे ज्यादा कुपोषण बिहार में है। संयुक्त राष्ट्र विकास परिषद् और ऑक्सफ़ोर्ड पावर्टी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट इनिशिएटिव (ओ पी एच आई) के द्वारा विकसित मानकों के आधार पर नीति आयोग ने राष्ट्रीय बहुआयामी गरीबी सूचकांक रिपोर्ट नवम्बर 2021 में प्रकाशित की थी। नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार के अनुसार “बहुआयामी गरीबी के मापन के रूप में, ये सूचकांक परिवारों के द्वारा एक साथ सामना किए जाने वाले कई अभावों को चिन्हित कर लेता है।
भारत के पहले राष्ट्रीय बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) की यह आधारभूत रिपोर्ट राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) की 2015-16 की संदर्भ अवधि पर आधारित है। ” इस रिपोर्ट के अनुसार बिहार की जनसंख्या में गरीबी का अनुपात देश में सर्वाधिक 51.9% है। इसका अर्थ ये हुआ कि प्रति चार व्यक्ति में दो व्यक्ति बहुआयामी रूप से गरीब है। बहुआयामी गरीबी सूचकांक में सामान भारिता वाले तीन आयाम, स्वास्थ्य, शिक्षा और लोगों का जीवन स्तर, होते हैं। इन तीन आयामों के कुल 12 संकेतक, पोषण, शिशु और किशोर मृत्यु दर, प्रसवपूर्व देखभाल, स्कूली शिक्षा के वर्ष, स्कूल में उपस्थिति, रसोई के ईंधन की उपलब्धता, स्वच्छता, पेय जल, बिजली, आवास, संपत्ति, और बैंक खाता है। इन 12 संकेतकों में 7 में बिहार की स्थिति सोचनीय है। मातृ स्वास्थ्य से वंचित आबादी, स्कूली शिक्षा से वंचित आबादी, स्कूल में उपस्थिति, रसोई के ईंधन और बिजली से वंचित आबादी के प्रतिशत के मामले में बिहार का प्रदर्शन सबसे खराब है। शिशु और किशोर मृत्यु दर में सिर्फ उत्तर प्रदेश से बेहतर स्थिति में है।
राज्य का विकास वहाँ की जनता और जनता के लिए नीति निर्धारण करने वाली सरकार पर निर्भर करता है। समर्पित मानव संसाधन अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आवश्यक अन्यान्य संसाधनों की व्यवस्था कर लेता है अथवा वैकल्पिक मार्ग ढूंढ़ लेता है। पाटलिपुत्र को जैसे सशक्त सम्राट मिले वो सौभाग्य स्वतन्त्रता के पश्चात पटना को नहीं मिला। पिछले 75 वर्षों में 8 बार राष्ट्रपति शासन लगा तथा 22 मुख्यमन्त्री हुए। बिहार के वर्त्तमान मुख्यमन्त्री, नीतीश कुमार, अपने लगभग 16 वर्षो के शासनकाल में 8 बार मुख्यमन्त्री बने। इनसे पहले 1990-2005 लगभग 15 वर्षों तक लालू यादव और राबड़ी देवी का शासन रहा। इस बीच राष्ट्रपति शासन भी रहा। 90 के दशक में जब भारत आर्थिक सुधारों के साथ वैश्विक बाजार में अपनी पैठ बनाने के लिए संघर्ष कर रहा था तब बिहार में जातिवादी राजनीति, और सत्ता के लिए जोड़-तोड़ की राजनीति का नया दौर शुरू हुआ। सत्ताशीन नेताओ का पूरा ध्यान अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिए अपने वोट बैंक को खुश करने और गठबन्धन के समीकरण साधने में लगा रहा। प्रशासन की नाकामी के कारन नेताओं के संरक्षण में अपराध और अपहरण उद्द्योग का रूप ले लिया।
अंततः पटना उच्च न्यायलय को इसे ‘जंगलराज’ कहना पड़ा। नितीश कुमार के शासन के पहले दौर में कुछ उल्लेखनीय सुधर हुए। अर्थव्यवस्था की सड़क के गड्ढे भरने शुरू हुए। समाज में आर्थिक विकास का एक वातावरण तैयार होना शुरू हुआ की फिर से गठबन्धन के गांठों के खुलने और बांधने का दौर शुरू हो गया। राज्य में कमजोर सरकार, राजनैतिक अस्थिरता, व्यवसाय के लिए आवश्यक मूलभूत सुविधाओं का अभाव, और शासनतन्त्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण बाहरी निवेशक आकर्षित नहीं होते। साथ ही सक्षम बिहारी भी निवेश के लिए अन्य राज्यों में संभावना की तलाश करते है। ‘नॉन रेजिडेंट बिहारी’ एक समुदाय बन गया है जो बिहार के लिए एक प्रकार का ‘ब्रेन ड्रेन’ और ‘कैपिटल फ्लाइट’ ही है। बिहार का मानव संसाधन दूसरे राज्यों की समृद्धि में अपना योगदान दे रहे हैं। सुगरकेन डेवलपमेंट डिपार्टमेंट के रिपोर्ट के अनुसार स्वतन्त्रता के ठीक बाद बिहार में 28 चीनी मिलें थीं। जिसमे से अभी सिर्फ 11 चल रही है। 10 चीनी मीलों का संचालन प्राइवेट कंपनिया कर रही हैं। 17 चीनी मिलें बंद हैं। ये बंद पड़ीं चीनी मीलें राज्य में विऔद्योगीकरण की पहचान है। 2020 के आंकड़ों के अनुसार देश में कुल चीनी उत्पादन का 40% बिहार में उत्पादित होता था वहीं अब 4% होता है। जिन चीनी मीलों के कारन आज़ादी से पहले ब्रिटेन के बाजारों में मिठास रहती थी आज वही बिहार की अर्थव्यवस्था को फीकी कर रहीं हैं।
सरकारों के साथ-साथ अपने जनप्रतिनिधियों का चुनाव करने वाली जनता की जातिवादी रूढ़िवादिता भी बिहार की गठबन्धन वाली राजनीती और आर्थिक पिछड़ेपन का एक महत्वपूर्ण कारण है। सरकारी कामकाज में घुस के लेन -देन को एक सामान्य शिष्टाचार का रूप में समाज ने विकसित कर लिया है। एम पी आई का महत्वपूर्ण संकेतक है बैंक खाता और संपत्ति। ग्रामीण क्षेत्रों में एक बचत खाता खोलना के लिए भी सामान्यतः घुस देना पड़ता है। सरकारी नौकरियों के लिए लोग खेत (संपत्ति) बेच कर घूस के पैसे का इंतजाम करते है। इस स्तर तक घूसखोरी समाज-जीवन का अंग बन गया है। चिंतनीय विषय ये है कि वर्तमान पीढ़ी का एक बड़ा हिस्सा भी चुनावों के समय विकास के मुद्दों और दलों की आर्थिक नीतियों की जगह जनप्रतिनिधियों की जाति और उनतक अपनी पहुंच के आधार पर समर्थन और विरोध करती है।