यत्र-तत्र

छत्तीसगढ़ी नाचा, मँदराजी और हबीब तनवीर

 

लोकनाट्य ‘नाचा’ छत्तीसगढ़ की विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान है। आज भी यह अत्यंत लोकप्रिय विधा है। उसके स्वरूप में समय के अनुसार क्रमशः बदलाव आया है लेकिन अब भी वह जीवंत और सक्रिय है। यह जीवनी-शक्ति उसे समाज और लोक-जीवन से ही प्राप्त होती है। पिछली शताब्दी के तीसरे दशक में दाऊ मँदराजी ने छत्तीसगढ़ में पहली संगठित नाचा पार्टी की स्थापना की थी। तब से लेकर आज तक नाचा ने स्वयं को लगातार सँवारा है। मँदराजी से पहले नाचा सिर्फ खड़े साज के रूप में हुआ करता था और उसमें सीमित वाद्ययंत्रों, केवल चिकारा और तबला, का प्रयोग किया जाता था। वादक कलाकार खड़े होकर बजाते थे और परी, जिसे जनाना भी कहा जाता था, नृत्य करती थी। परी दरअसल पुरुष नर्तक होता था। मशाल की रोशनी हुआ करती थी और मंच के चारों तरफ दर्शक एकत्र होकर नाचा का आनंद लेते थे। बाद में नाचा में कथानक और अभिनय का प्रवेश हुआ और वह वास्तविक अर्थ में नाट्य में बदल गया। फिर तो वह महज दर्शकों को आनंदित करने वाला कला-रूप भर नहीं रह गया, बल्कि उसमें सामाजिक जीवन की धड़कनें बोलने लगीं। क्रमशः उसकी कलात्मकता और मानवीय दृष्टि का विकास होता चला गया।

बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों में नाचा के स्वभाव, स्वरूप, उसके चरित्र और प्रारूप में क्रांतिकारी परिवर्तन घटित हुआ। इस परिवर्तन के सूत्रधार थे राजनांदगाँव जिले के कलाप्रेमी मालगुज़ार मँदराजी दाऊ। उन्होंने 1928 में छत्तीसगढ़ की पहली संगठित नाचा पार्टी का गठन किया। नाचा के इतिहास में यह एक नये युग की शुरुआत थी। मँदराजी ने नाचा में चिकारा के स्थान पर आधुनिक वाद्ययंत्र हारमोनियम का पहली बार इस्तेमाल किया, जिसे वह कलकत्ता से खरीद कर लाये थे।

मँदराजी के आने के बाद नाचा अब केवल नाच नहीं रह गया था, बल्कि उसमें गम्मत का प्रवेश हुआ। गम्मत यानी अभिनय या स्वांग। कलाकार दरअसल अपने अभिनय के माध्यम से किसी प्रसंग को लेकर अपने समकालीन परिवेश और उसमें आकार लेती हुई जीवन-वास्तविकता को प्रस्तुत करता था। दूसरे शब्दों में वह वास्तविकता की नकल कर उसे उजागर करता था। इसलिये गम्मत को नकल भी कहा जाता था। गम्मत के आने से नाचा को अद्भुत लोकप्रियता प्राप्त हुई। वह मैदानी छत्तीसगढ़ में रात्रिकालीन मनोरंजन का एक मात्र माध्यम बना। दर्शक रात-भर नाचा देखते और आनंदित होते। यह मनोरंजन की नई अवधारणा थी। इसके पहले खड़े साज में कमोबेश आधी रात तक गाने-बजाने की परिपाटी थी। रात्रिकालीन मनोरंजन की अवधि 3-4 घंटे के प्रदर्शन की थी। मगर गम्मत पूरी रात का मनोरंजन था। कलाकार स्वतःस्फूर्त अभिनय के माध्यम से अपने समय को स्वायत्त करता था। उसकी कला में उसका अनुभव बोलता था। नाचा की विषयवस्तु में सामाजिक जागरूकता भी स्वतः विन्यस्त थी। उस दौर में नाचा के जरिए दरअसल भारतीय लोकजागरण का एजेंडा छत्तीसगढ़ में जन-जन तक प्रसारित हो रहा था। गम्मत के कथानक अछूतोद्धार, अस्पृश्यता की समाप्ति, उच्च वर्ग का पाखंड, श्रमिक वर्ग की आशा-आकांक्षा, सामाजिक कुरीतियों का उन्मूलन-जैसे विषयों पर एकाग्र थे। इतना ही नहीं, नाचा के कलाकार, जो आमतौर पर मेहनतकश मजदूर हुआ करते थे, गम्मत में अभिनय करते हुए अपने मालिकों (गौंटिया) पर व्यंग्य भी किया करते थे। दिलचस्प यह है कि मालिक भी इसे सहज भाव से स्वीकार करते थे। ग्रामीण समाज में सामुदायिकता और सौहार्द्र की यह विलक्षण अभिव्यक्ति थी। नाचा की कलात्मकता वस्तुतः उसकी प्रतिरोध-वृत्ति में निहित थी। उसके भीतर प्रतिवादी स्वर अत्यंत मुखर था।

 मँदराजी की रवेली नाचा पार्टी अत्यंत लोकप्रिय थी। स्वतंत्र भारत के छत्तीसगढ़ी युवा-वर्ग में रवेली नाचा पार्टी और मँदराजी के प्रति अद्भुत दीवानगी थी। भोजपुरी अंचल में बिदेसिया के पुरस्कर्त्ता भिखारी ठाकुर की तरह मँदराजी छत्तीसगढ़ी नाचा के उन्नायक शिखर व्यक्तित्व हैं। नाचा को उन्होंने न सिर्फ संस्कारित किया बल्कि एक अनुशासनबद्ध विधा के रूप में उसकी पहचान निर्मित करने और व्यवस्थित लोकनाट्य के रूप में उसे व्यक्तित्व प्रदान करने में भी उनका बड़ा योगदान है।

नाचा की कला के प्रति मँदराजी का समर्पण अतुलनीय है। आज यह विश्वास करना कठिन है कि कोई ऐसा व्यक्ति भी हो सकता है जो कला के लिए न सिर्फ अपनी संपत्ति को बल्कि अपने जीवन को भी निःशेष कर दे। वह कला के लिए जीने वाले विलक्षण कलाकार थे। नाचा को उन्होंने जुनून की तरह अपनाया था—सारी संपत्ति स्वाहा कर दी, नाचा के लिए जिये और नाचा के लिए ही खप गये।

दाऊ मँदराजी द्वारा तैयार की गई मजबूत जमीन पर अनेक ज्ञात-अज्ञात कलाकारों ने नाचा-विधा को एक अनूठे नाट्य-रूप के तौर पर विकसित करने में योगदान दिया है। फलस्वरूप नाचा आज अतिविकसित समकालीन रंगमंच के सामने एक चुनौती बन कर खड़ा है। शहरी रंगमंच के समकक्ष इसे खड़ा करने में हबीब तनवीर और दाऊ रामचंद्र देशमुख का अमूल्य योगदान रहा है। दाऊ रामचंद्र देशमुख ने जहाँ इसे छत्तीसगढ़ी परिवेश के भीतर ही नए रूप में ढालकर इसका बड़े पैमाने पर रंगमंचीय अनुकूलन ‘चंदैनी गोंदा’ के रूप में तैयार किया, वहीं हबीब तनवीर ने इसे केंद्र में रख कर आधुनिक भारतीय रंगमंच का सर्वथा नया मुहावरा विकसित किया जो कई दृष्टियों से अनूठा था।

भारतीय रंगमंच को लोकस्पर्श प्रदान कर उसे नयी ऊँचाइयों तक पहुँचाने में हबीब तनवीर की भूमिका से सभी परिचित हैं, लेकिन वे कामयाब न हो पाते, यदि 1958 की गर्मियों में रायपुर के लॉरी स्कूल के प्रांगण में एक रात अनायास न पहुँचते और नाचा का वह प्रदर्शन उन्होंने न देखा होता जिसने उनकी रंगदृष्टि को न सिर्फ नयी दिशा दी, बल्कि आगे चल कर उसे गढ़ने में भी निर्णायक भूमिका निभायी। रात-भर हबीब साहब दर्शकों के बीच जमे रहे। सुबह जब नाचा गम्मत खत्म हुआ तो वे चमत्कृत और विस्मय से अभिभूत थे। यह हबीब तनवीर के लिए अपूर्व-विलक्षण उपलब्धि का क्षण (Eureka moment) और भारतीय रंगमंच के लिए एक निर्णायक मोड़ (Turning point) था।

यह संयोगवश अनायास घटित हुआ था। ब्रिटेन में रंगकर्म का प्रशिक्षण लेने और इस सिलसिले में पश्चिमी थियेटर का अध्ययन करते हुए, यूरोप में यायावरी करने के बाद, हबीब तनवीर कुछ समय पहले भारत लौटे थे और दिल्ली में बेगम जैदी के थियेटर में काम करने लगे थे। अपने परिजनों से मिलने रायपुर आए हुए थे। तभी उनके मोहल्ले छोटापारा में उन्हें किसी ने बताया कि लॉरी स्कूल में नाचा होने वाला है। वे लॉरी स्कूल के छात्र रह चुके थे। उस रात नाचा देखने के लिये हबीब साहब पहुँचे तो कलाकारों के अभिनय के सम्मोहन से वह बँध गये। रात भर नाचा देखा। तीन या चार प्रहसन (गम्मत) पेश किये। कलाकारों में मदनलाल, ठाकुर राम, बाबूदास, भुलवाराम थे। सभी उत्कृष्ट गायक-अभिनेता और बहुत अच्छे कॉमेडियन थे। उन्होंने चपरासी नकल और साधु नकल पेश किया।हबीब साहब मंत्रमुग्ध थे। कार्यक्रम खत्म होने के बाद वह उनके पास गये और कहा ‘मेरे साथ दिल्ली चलोगे नाटक में काम करने के लिए?’ वे तैयार हो गए। हबीब साहब ने भुलवाराम, बाबू दास, ठाकुर राम, मदनलाल और जगमोहन को शामिल कर लिया। उस रात के नाचा-प्रदर्शन के बाद हबीब तनवीर राजनांदगाँव गये, जहाँ उनकी मुलाकात लालूराम से हुई। उनके घर में रात-भर उनके गाने सुनते रहे और अपनी मंडली में लालूराम को भी शामिल कर लिया। इस तरह छह कलाकार हबीब तनवीर के साथ दिल्ली गये और बेगम जैदी के हिंदुस्तानी थिएटर, जिसके डायरेक्टर खुद हबीब तनवीर थे, की प्रस्तुति में सम्मिलित हुए।

भारतीय रंगमंच के इतिहास की यह एक अभूतपूर्व घटना थी। यह पहला मौका था जब अपढ़-गँवई कलाकार शहरी रंगमंच पर अपनी ग्रामीण सहजता के साथ अवतरित हो रहे थे—वह भी एक क्लासिकल संस्कृत नाटक ‘मृच्छकटिकम’ के हिंदी रूपांतर ‘मिटटी की गाड़ी’ में। शास्त्रीयता और आधुनिकता के द्वैध में घिरे नागर रंगमंच के लिए ‘मृच्छकटिकम’ यूँ भी एक चुनौती था। ऊपर से लोक-कलाकारों का अनगढ़पन और उनके अभिनय की निचाट लोक-शैली, जो उच्चभ्रू शहरी दर्शकों को स्वभावतः सहज स्वीकार्य नहीं थी। संस्कृत-विद्वानों ने इसकी आलोचना की, कि एक ‘नाट्यधर्मी’ कृति को ‘लोकधर्मी’ पद्धति से खेला गया, जबकि इसे शास्त्रीय शैली में मंचित किया जाना चाहिए था। कुछ आलोचकों ने इसमें समरसता के अभाव या रसों के असंतुलन की शिकायत की।

लेकिन यूरोप से लौट कर अपनी शैलीगत पहचान की तलाश में जद्दोजेहद कर रहे हबीब तनवीर को अपना निजी मुहावरा मिल चुका था। बाद में उन्होंने लोक-शैली को आलंकारिक युक्ति के तौर पर नहीं, बल्कि रंगमंच की बुनियादी जरूरत के रूप में विकसित किया और इसके लिए वह देश-विदेश में जाने गये।

जाहिर है, हबीब तनवीर की रंग-शैली के निर्माण में छत्तीसगढ़ के लोक-कलाकारों के नैसर्गिक अभिनय की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है? लालूराम, मदन निषाद, भुलवाराम, ठाकुर राम, गोविंदराम निर्मलकर या फिदाबाई के बिना क्या हबीब तनवीर के थियेटर की कल्पना की जा सकती है? ये सभी नाचा के सिध्द कलाकार थे। उस रात हबीब तनवीर ने जिस नाचा-दल का प्रदर्शन देखा था, उसके प्रबंधक और संगठक दाऊ रामचंद्र देशमुख थे, जिन्होंने छत्तीसगढ़ी देहाती कला विकास मंडल का गठन कर नाचा-कलाकारों को प्रोत्साहन और संरक्षण दिया था। बाद में दाऊ रामचंद्र देशमुख ने आरोप लगाया कि हबीब तनवीर छत्तीसगढ़ी देहाती कला विकास मंडल के कलाकारों को बहका कर अपने साथ दिल्ली ले गए। दाऊजी मृत्यु-पर्यन्त यह शिकायत करते रहे। मगर स्वयं दाऊ रामचंद्र देशमुख पर यह आरोप था कि उन्होंने मँदराजी की रिंगनी-रवेली नाचा पार्टी के कलाकारों को तोड़कर छत्तीसगढ़ी देहाती कला विकास मंडल का गठन किया था।

रवेली नाचा-पार्टी के मैनेजर दाऊ दुलार सिंह थे जो ‘मँदराजी’ के नाम से लोक-प्रसिद्ध थे। वह राजनांदगाँव के पास रवेली गाँव के रहने वाले थे। रिंगनी-पार्टी के सर्वेसर्वा पंचराम देवदास थे। लालूराम, मदन निषाद और जगमोहन रवेली पार्टी के कलाकार थे। भुलवाराम, ठाकुर राम, बाबूदास रिंगनी-पार्टी के सदस्य थे। रिंगनी नाचा पार्टी का बाद में रवेली पार्टी में विलय हो गया। हबीब तनवीर के साथ रवेली-पार्टी के गोविंदराम निर्मलकर, फिदाबाई, मालाबाई-जैसे कुशल कलाकार भी बाद में जुड़ गए। जाहिर है, ये सारे लोक कलाकार मूल रूप से मँदराजी के रिंगनी-रवेली पार्टी से संबंधित थे।

फर्ज करें कि ये कलाकार न होते तो भारतीय रंगमंच क्या वही रह जाता जो वह हबीब तनवीर के योगदान के चलते हुआ? सच कहा जाये तो मँदराजी दाऊ की नाचा-पार्टी के इन कलाकारों ने ‘नया थियेटर’ में आधुनिक रंगमंच में लोक-शैली के सर्जनात्मक विनियोग का बिल्कुल अनूठा अध्याय खोला। उन्होंने लोक और नागर के द्वैत को किसी हद तक मिटा दिया। एडिनबर्ग ड्रामा फेस्टिवल (1982) में ‘चरणदास चोर’ के लिए जो एडिनबर्ग फ्रिंज अवार्ड हबीब तनवीर को प्राप्त हुआ, उसका श्रेय उनके निर्देशकीय कौशल के साथ उस रंग-भाषा को भी जाता है, जिसे रचने में छत्तीसगढ़ी लोक-नाट्य ‘नाचा’ और उसके कलाकारों का बड़ा योगदान है।

दरअसल नाचा अपने कलाकारों की विस्मयजनक नैसर्गिक अभिनय-प्रतिभा की दृष्टि से ही नहीं, अपनी विषयवस्तु की समकालीनता के लिये भी उल्लेखनीय रहा है। नाचा आजादी की लड़ाई की चेतना से अप्रभावित नहीं रह सका। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध की सामाजिक परिस्थितियों, राजनीतिक घटनाक्रम और स्थानीय परिवेश में घटित उथल-पुथल के चलते मँदराजी दाऊ के रचनात्मक मानस का गठन हुआ था। नाचा गम्मत के उनके कथानकों में गांधी जी के छत्तीसगढ़-प्रवास और जनमानस पर उनके प्रभाव, पं. सुंदरलाल शर्मा के अछूतोद्धार कार्यक्रम, राजनांदगाँव के बंगाल नागपुर कॉटन मिल में 1919 में हुए 35 दिनों के मजदूर आंदोलन, 1920 के कंडेल नहर सत्याग्रह के रूप में किसान आंदोलन आदि का उल्लेख हुआ करता था। इन घटनाओं का उस दौर के युवा-मानस पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था। मँदराजी के नाचा-प्रदर्शनों में राष्ट्र और समाज की मुक्ति का स्वप्न, देश भक्ति और समाज-सुधार की चेतना, इन्हीं कारणों से प्रकट हो रही थी।

मँदराजी अपने गम्मत में आजादी का संदेश दिया करते थे। यही कारण है कि एक बार रवेली नाचा-पार्टी पर अंग्रेजी शासन की कुदृष्टि पड़ी और उसके कार्यक्रम को दुर्ग के समीप आमदी गाँव में पुलिस ने प्रतिबंधित कर दिया। अन्य स्थानों पर हुई नाचा-प्रस्तुतियों पर भी पुलिस की निगरानी रहती थी। दरअसल अभिनय करते हुए नाचा कलाकार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अंग्रेजी शासन के विरुद्ध कुछ उत्तेजक संवाद बोल दिया करते थे। उस समय गाँव में पत्र-पत्रिकाएँ, रेडियो आदि प्रचार-प्रसार के साधन नहीं होने के कारण नाचा-पार्टी को कांग्रेस के नेता भीड़ जुटाने का माध्यम मानते थे। दाऊजी स्वयं इस प्रकार के कार्यों में रुचि रखते थे। उनका नाचा स्वभावतः समाजधर्मी था। उनके गम्मतों के कथानक अछूतोद्धार, अस्पृश्यता निवारण, जाति और वर्ण पर आक्षेप, उच्च वर्ग के पाखंड का दृढ़तापूर्वक विरोध, श्रमिक वर्ग की आशा-आकांक्षा, सामाजिक कुरीतियों का उन्मूलन-जैसे विषयों पर एकाग्र थे। उन्होंने जो विषय चुने, वे राष्ट्रीय चेतना और सामाजिक सुधार से संबंधित हुआ करते थे। अंचल में प्रचलित बाल-विवाह और अनमेल विवाह के विरुद्ध उन्होंने ‘बुढ़वा बिहाव’ गम्मत में मुखर आवाज उठाई। समाज-सुधारक पंडित सुंदरलाल शर्मा द्वारा गाँधीजी के समर्थन से चलाए जा रहे अछूतोद्धार कार्यक्रम से उत्पन्न चेतना का प्रभाव मँदराजी के ‘मेहतरिन’ या ‘पोंगवा पंडित’ गम्मत में दिखाई दे रहा था। इस पृष्ठभूमि में विचार करें तो नाचा की सामाजिक सजगता और लोकधर्मिता के साथ हबीब तनवीर की रंगदृष्टि के सहज तालमेल को लक्ष्य किया जा सकता है। उनकी सामाजिक चेतना को यदि छत्तीसगढ़ की लोकचेतना का ही सुसंगत तार्किक विकास माना जाए तो यह गलत नहीं होगा।

रवेली नाचा पार्टी ‘पोंगवा पंडित’ को खेलती थी तो दर्शकों का खूब मनोरंजन होता था। वर्ण-व्यवस्था पर कठोर व्यंग्य-प्रहार के बावजूद इस गम्मत से शांतिभंग की स्थिति कभी नहीं उत्पन्न हुईं। छत्तीसगढ़ के लोकजीवन में सौहार्द और सहिष्णुता की एक मजबूत परंपरा थी जिसके चलते सवर्ण और सामंती शक्तियाँ भी लोक-कलाकारों के प्रतिरोध को स्वाभाविक समझकर अन्यथा नहीं लेती थीं। लेकिन 1990 के दशक में जब हबीब तनवीर ने इसे शहरी रंगमंच पर ‘पोंगा पंडित’ के रूप में खेला तो प्रतिक्रियावादी-साम्प्रदायिक ताकतों ने उसका जमकर विरोध किया और उनके मंचों पर तोड़फोड़ की।

आरम्भिक दौर के नाचा की विषयवस्तु में बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध्द का समूचा सांस्कृतिक परिदृश्य समाहित था। इसलिए अचरज नहीं कि मँदराजी दाऊ के ‘ईरानी’ नकल में हिंदू-मुस्लिम एकता का संदेश था या उनके ‘मरारिन नकल’ में प्रेम और आत्मीयता का संदेश था। शायद यही वजह है कि नाचा के कलाकारों द्वारा पारंपरिक रूप से खेले गए कुछ गम्मतों को ज्यों-का-त्यों नागर रंगमंच पर प्रदर्शित करने में हबीब तनवीर को कोई संकोच नहीं हुआ। उन्होंने ‘बुढ़वा बिहाव’ गम्मत को ‘मोर नाँव दमांद, गाँव के नाँव ससुरार’ नाटक के रूप में खेला जो देश-विदेश में अत्यंत लोकप्रिय हुआ।

मँदराजी छत्तीसगढ़ी नाचा के पर्याय थे। नाचा को मंदराजी ने न सिर्फ संस्कारित किया बल्कि एक अनुशासित विधा के रूप में उसकी पहचान निर्मित करने में उनका बड़ा योगदान है। नाचा को उन्होंने आधुनिक और लौकिक तेवर दिया और उसके भीतर अपने समय से टकराने का नया अंदाज पैदा किया। एक पारंपरिक कला को उन्होंने सुगठित और नए जमाने के मुताबिक नया रूप दिया। हबीब तनवीर ने नागर रंगमंच के अनुरूप उसे समकालीन मुहावरे में ढाल कर छत्तीसगढ़ के गाँव-कूचे से निकाला और विश्व-रंगमंच पर प्रतिष्ठित किया। यह कहना मुनासिब होगा कि हबीब तनवीर के लिए नाचा महज एक नाट्य-शैली या आधुनिक रंगमंच के एक विशिष्ट मुहावरे की तरह नहीं था, वह उनके रंगमंच में प्राणतत्त्व की तरह समाया हुआ था। इस अर्थ में हबीब तनवीर के रंग व्यक्तित्व को दाऊ मँदराजी की लोकचेतना के विस्तार के रूप में देखा जाये तो यह अनुचित न होगा

.

Show More

जय प्रकाश

लेखक साहित्य-संस्कृति से सम्बन्धित विभिन्न विषयों पर पिछले 25 वर्षों से लेखन कर रहे हैं। सम्पर्क +919981064205, jaiprakash.shabdsetu@gmail.com
5 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x