साहित्य मानव सभ्यता से उलझता है
विजयदेवनारायण साही (1924-1982 ई.) आलोचना की सर्जनात्मक जमीन तोड़ने वाले हिन्दी के विशिष्टतम आलोचक, कवि एवं विचारक थे जिनका यह जन्म शताब्दी वर्ष है। देशकाल की समाजार्थिकी के पृष्ठाधार से और अँगरेजी या पश्चिमी काव्यशास्त्र की पेशेगत सुगमता (अँगरेजी के अध्यापक, इलाहाबाद विश्विद्यालय) से हिन्दी आलोचना में उन्होंने तर्क और विश्लेषण तथा व्याख्या और पल्लवन के नये द्वार खोले थे। साही की आलोचना को पढ़ते हुए बारम्बार यह महसूस होता है कि काव्यात्मकता की पड़ताल के लिए लगभग उन्होंने नई सरणियाँ अपनाई हैं। निष्कर्ष कूटकर फलाफल बताने वाली हिन्दी आलोचना की ऊब को साही की आलोचना अपदस्थ करती हुई पाठकों को ‘रिफ्रेश’ करती है। साही की अपनी भीतरी मान्यताओं की स्वयं उनकी आलोचना पर चौकसी-सी रहती है। ये मान्यताएँ उनका ‘रोडमैप’ रही हैं, मसलन उनके एक-दो कथनों को याद कर लें (अ) ‘साहित्य मानव सभ्यता से उलझता है’, (आ) ‘जिन मान्यताओं के ऊपर हम खड़े हैं, उन पर फिर एक बार प्रश्नवाचक दृष्टि डालने की जरूरत है।’
‘लघु मानव के बहाने हिन्दी कविता पर बहस’- साही का वह बहुश्रुत और बहुपठित आलेख है जिसकी उद्भावनाएँ न केवल नव्यतर हैं, बल्कि वचन-विन्यास भी युगीन पर्यालोचन से अलहदा है। साही अपनी आलोचना में ही युगीन आलोचना की कलई खोलते हैं, एक तो यह कि ‘हम चिरंतन प्रश्नों पर चिरंतन दृष्टि से और समसामयिक प्रश्नों पर समसामयिक दृष्टि से विचार करने के अभ्यासी हो गये हैं।’ यहाँ साही का अनुरोध ‘वैपरीत्य साधर्म्य’ साध लेने का है। वैपरीत्य कैसा? श्रेष्ठ चिंतक को करना यह होगा कि समयामयिक प्रश्नों पर उसकी चिरंतन दृष्टि पड़े और चिरंतन प्रश्नों पर समसामयिक। रचनाकार एक ‘आतुर स्वप्नदर्शी’ होता है; उसे पढ़ते हुए उसके युग यहाँ तक कि रचनाकार की तमाम मलिनता और पवित्रता के पाठक साक्षी बनें। रचनाकार ‘सामाजिक सत्ता’ और ‘राजनीतिक सत्ता’, एवं अन्य प्रभावी सत्ताओं से बचकर नहीं निकल सकता।
कविता पुस्तकों (‘मछलीधर’, ‘साखी’, ‘संवाद तुमसे’, ‘आवाज हमारी जायेगी’) के अतिरिक्त साही ने ‘जायसी’, ‘साहित्य और साहित्यकार का दायित्व’, ‘छठवाँ दशक’ ‘साहित्य क्यों’, ‘वर्धमान और पतनशील’ जैसी आलोचनात्मक पुस्तकें दीं। जीते-जी ‘मछलीधर’ ही प्रकाशित पुस्तक थी। शेष का प्रकाशन पत्नी कंचनलता साही और मित्रों के सहयोग के उपरान्त प्रकाशित लेखों और भाषणों के संचयन के रूप में पुस्तकाकार हो पाया। साही अच्छे वक्ता थे। देशभर में आमंत्रित होते। उनके प्रकाशित श्रेष्ठ लेख श्रेष्ठ भाषण का भी हिस्सा रह चुके हैं। ‘साहित्य और साहित्यकार का दायित्व’ पुस्तक सौ प्रतिशत व्याख्यान का प्रकाशन है। इसी तरह के सामाजिक-राजनीतिक विषयों के कतिपय उनके व्याख्यान ‘लोकतन्त्र की कसौटियाँ’ (सन् 1990 , हिंदुस्तानी एकेडेमी, प्रयागराज) में संकलित हैं। इस पुस्तक में सांस्कृतिक उद्भावनाओं की प्रतीक्षा करते हुए साही राजनीति, समाज, दर्शन, साहित्य, क्रान्ति, लोकतन्त्र, वैज्ञानिक समाजवाद, पूँजीवाद, लोकतांत्रिक समाजवाद आदि के मसले उठाते हैं।
इस खास पुस्तक को लेखक-कवि साही की प्रतिबद्धताओं के लिहाज से देखना जहाँ ज्यादा उचित है, उससे भी अधिक इस कारण यह पुस्तक पठनीय है कि – छठे और सातवें दशक के भारत में सामाजिक और राजनीतिक सत्ताएँ किस करवट बैठ रही हैं – पुस्तक से इसका पता चलता है। वे ‘तीसरा सप्तक’ में संकलित हुए थे। कविता में चाहे विद्रोही न हों, लेकिन ‘तीसरा सप्तक’ में नये दंग का ‘वक्तव्य’ लिखते हुए वे पच्चीस बिंदुओं मॆं पच्चीस ‘शीलों’ की बात करते हैं। ‘दूसरे शील’ में लिखते हैं : ‘मैं परम स्वतन्त्र हूँ। मेरे सिर पर कोई नहीं है। अर्थात अपने किये के लिए शत प्रतिशत जिम्मेदार हूँ। अर्थात मेरे लिए नैतिक होना सम्भव है।’ साही के पास सब दिन विचार की नैतिकता के स्रोत स्वरूप नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, गाँधी और लोहिया रहे।
कम्युनिस्ट प्रगतिवादियों से वैपरीत्य रखते रहे, हालांकि ‘वैपरीत्य भी एक प्रकार का साधर्म्य है’, यह स्वयं उन्हीं की राय है। दस वर्षों तक ट्रेड यूनियनों में मजदूरों के लिए काम किया। कानून की किताबें पढ़कर प्रवंचितों के वकील की भी भूमिका निभाई। सन् 1967 में साही संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से लोकसभा का चुनाव भी लड़ते हैं, मिर्जापुर से; लेकिन जीतते नहीं हैं। वक्रता और विरोधिता की स्वयं की चुनी हुई भूमि पर रहने के कारण तीन बार जेल गये। ‘तीसरा सप्तक’ के अपने ‘परिचय’ में उन्होंनें स्वयं कबूला, “एक बार एक महीने मजदूरों की हड़ताल के सम्बन्ध में, दूसरी बार तीन दिन गोलवलकर को काला झण्डा दिखाने के अपराध में,तीसरी बार तीन घण्टे जवाहरलाल नेहरू की मोटर के सामने किसानों का प्रदर्शन करने के दुस्साहस पर (पृष्ठ 181)।” साही साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल मानते थे।
‘लोकतन्त्र की कसौटियाँ’ नामक पुस्तक में साही के लेख सामाजिक परिवर्तन, लोकतंत्रीय कसौटियाँ, सम्पूर्ण कौमी एकता, सम्पूर्ण क्रान्ति के सामाजिक-सांस्कृतिक पहलू, लोकतांत्रिक समाजवाद में साहित्य की भूमिका, राजनीति और साहित्य, विदेशी सहायता इत्यादि विषयों से सम्बद्ध हैं। डायरी के कुछ अंश भी हैं तथा ‘राजनीति में साहित्यकार’ विषय पर एक साक्षात्कार भी है। ‘राजनीति और साहित्य’ विषयक लेख में अति संक्षेप में विश्व का सांस्कृतिक इतिहास भी है।
गैलिलियो के जमाने में, सोलहवीं शताब्दी में यूरोप में सबसे बड़ी घटना यह घटी थी कि विज्ञान और अनुसंधान ने सध्यवर्ग को उत्पादन के साधन प्रदान किये; विश्व-दर्शन दिया ताकि मध्यवर्ग सांस्कृतिक दासता से मुक्त हो सके। यूरोप एवं एशिया में सामंत युग का सफाया निश्चित रूप से इसी मध्यवर्ग ने किया। इससे एक नयी स्वातंत्र्य चेतना फैली जिसने “विश्व-दर्शन, सांस्कृतिक मूल्यों और साहित्य के क्षेत्र में ऐसी उथल-पुथल मचायी कि पुरानी परम्पराओं और मान्यताओं का सारा महल ढह गया।” फारसी साहित्य में सामंतशाही के उपराम होने पर ही फिरदौसी, मौलाना रूम, हाफिज, उमर खैय्याम का मुक्तकंठ से लेखन संभव हुआ।
साहित्य, कला, शास्त्र, दर्शन इत्यादि पर सामंत-युग में धर्म का ऐसा वर्चस्व था कि इन सभी अनुशासनों से जीवन या जन-जीवन ही हाशिये पर चला गया था। तब ये अनुशासन धर्म-दर्शन से यों बावस्ता हुए कि ये स्वयं जीवन की दार्शनिक व्यवस्था मात्र साबित हुए। यहाँ साही का एक उद्धरण देखने योग्य है, “मार्क्स ने कहा है कि जन-जीवन यदि बुनियादी ढाँचा है तो धर्म, विचार, शास्त्र, कला आदि बाह्य ढाँचे हैं। इस प्रकार साहित्य स्वयं एक अपने नियमों से परिचालित होने वाला बाह्य ढाँचा न रह कर, अन्य ढाँचे का ढाँचा बनने के लिए विवश हो गया (पृष्ठ 96)।”
महात्मा गाँधी पर यथास्थान विशेष फोकस मिलता है। गाँधी के अवदानों को याद करते हुए सन् 1967 के अपने साक्षात्कार में साही ने बताया कि “गाँधीजी की सबसे बड़ी देन यही रही है कि वह अहिंसात्मक ढंग से गतिरोध और विरोध को विकसित करने तथा मनोबल को दृढ़ करने की नयी प्रेरणा देश को दे गये हैं (पृष्ठ 114)।” उन्होंने गाँधी के दर्शन में लोकतांत्रिक समाजवाद के कुछ प्रारम्भिक सूत्र भी ढूँढ निकाले जब गाँधी यह कहते पाये गये कि “यदि हरेक आदमी जितना उसे चाहिए, उतना ही ले, ज्यादा न ले, तो दुनिया में गरीबी न रहे और कोई आदमी भूखा न मरे।”
राममनोहर लोहिया परवर्ती काल में लोकतांत्रिक समाजवाद के मसीहा साबित होते हैं, जो बकौल साही “अपने को, सरकारी और मठी गाँदीवादियों से अलग कुजात गाँधीवादी कहते थे”। साही ने कहा है कि भारतीय कम्युनिज्म की “सबसे बड़ी कमी यह है कि उसने गाँधी जी द्वारा प्रतिष्ठित जनहितों को व्यावहारिक स्तर पर आत्मसात करने के सत्य को स्वीकार नहीं किया।” गाँधी ही नहीं, उत्तर गाँधी युग में जयप्रकाश नारायण और लोहिया- कुल ये तीन ऐसे जननेता हुए ‘जिनके विचारों में ऐसा कुछ अंश है जो अकेले पड़ जाने पर भी आदमी में एक तरह के जिद्दीपन का निर्माण करता है कि कोई परवाह नहीं; हम रुकेंगे नहीं, चलते रहेंगे (पृष्ठ 02)’। जिसको हम गाँधीवाद कहते हैं, उसकी एक व्यापक सत्ता जनता की थी।
साही को भारतीय राजनीति से बौद्धिकता की अपेक्षा रहती थी। बौद्धिकता और राजनीति को विचार और कर्म के स्तर पर लाने की आवश्यकता पर साही मुखर थे। उनके शब्द हैं, “राजनीति को पूर्ण रूप से मानवीय बनाने के लिए यह आवश्यक है कि उसे बौद्धिक स्तर पर ग्रहण किया जाये और व्यवहार में डालने की चेष्टा की जाये।” राजनीति को मानवीय, व्यवहार्य, वैचारिक इत्यादि रूपों में परिवर्तनीय कीजिये। राजनीति के कई दूसरे अभिप्रेतों में उन्होंने इसकी सृजनशील शक्ति को भी रेखांकित किया जो समाज की जकड़न और पूर्वग्रहों पर चोट भी इसी नाते करती रही।
राजनीति में ठहराववाद की घातक सामाजिक हानियाँ हैं। साही ने कहा, “ठहराववाद का एक-दो सिद्धान्त इससे जरूर निकलता है- कहो कड़ी दूरगामी परिवर्तन की बात, गहरे परिर्वतन की बात, करो कुछ नहीं (पृष्ठ 60)”। लोकतन्त्र की तीन आवश्यक शर्तों, यथा-समानता स्वतन्त्रता और भ्रातृत्व पर यथेष्ट प्रकाश डालते हुए वे क्रान्तिकारी राजनीतिज्ञों से सतत विकेन्द्रीकरण को बढ़ावा देने की अपील करते हैं। साही की वैचारिकी में पारम्परिक और नैतिक आस्था पर बहुत बल है। इसे देखते हुए सामाजिक परिवर्तन के मसले पर उनका दृढ़ विश्वास था कि सकारात्मक एवं सृजनशील बातों को जनता के बीच लाकर परिवर्तन की आशा की जा सकती है, “आज जब पूरे देश को बरगलाने वाले की आवाज सुनी जाती है, तब भी मुझे भरोसा है कि मैं अपनी बात कहकर देश को बदल सकता हूँ।”
सच्चे लोकतन्त्र में सामाजिक परिवर्तन को संभव करने वाली ताकतें स्वतन्त्रता, समानता, भ्रातृत्व और विकेंद्रीकरण की प्रवृत्तियाँ ही हैं। साही ने आगाह किया है कि ‘स्वतन्त्रता केवल चुने हुए लोगों’ तक ही सीमित न रहे। इसी प्रकार समानता को केवल कानूनी जामा पहना देने से लोकतन्त्र के लक्ष्य की सिद्धि नहीं होती है। और भ्रातृत्व केवल राष्ट्रीय देशप्रेम तक ही नत्थी नहीं है। साही ने भ्रातृत्व को परिभाषित करते हुए लिखा, “भ्रातृत्व का अर्थ गाँव में फलीभूत एक प्रकार की साझेदारी है, फिर एक मीलों तक जाती हुई धारा है (प्रष्ठ 15)।”
साही ने इस्लाम में भ्रातृत्व के सघन बीज देखे क्योंकि वहाँ स्थापित सत्य है कि ‘खुदा के सामने वाले सब भाई हैं।’ विकेंद्रीकरण लोकतन्त्र को नीचे तक ले जाने वाला तत्व है; शक्ति के विद्युत कणों को ऊपर से नीचे तक बाँटना होगा। साही का चिंतन था कि राजनैतिक चिंतन से उपजा हुआ सामाजिक परिर्वतन बिना आर्थिक विकास के भी हासिल हो सकता है बशर्ते मुस्तैदी से स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व को बढ़ावा दिया जा सके। विकास के नाम वाला सामाजिक परिवर्तन दृढ़ इच्छाशक्ति से यदि संबलित होगा, तो परिवर्तन तो आएगा ही। दूसरी जरूरत संगठनात्मक है जिसका बीज विकेंद्रीकरण में है। ऊपर से नीचे तक, अन्तिम व्यक्ति को घेरती हुई समितियाँ हों। सामाजिक परिर्वतन के लिए चौकसी गैर-बराबरी की करती रहनी होगी क्योंकि गैर-बराबरी एक मापदण्ड भी है। ‘जातिवाद का चरित्र भ्रातृत्व का है, लेकिन विषमता को तोड़ने के लिए जाति पर प्रहार करना आवश्यक है।,
साही यह जोर देकर कहते हैं कि भ्रष्टाचार का मसला भारत की राजनीति में कोई मुद्दा है ही नहीं। भारतीय राजनीति में मतदाता सदाचारी-दूराचारी को नहीं देखते। साही ने ‘साँच को आँच क्या’ की- तर्ज पर लिखा, “याद दिलाना चाहता हूँ कि किसी आदमी का एक प्रतिशत वोट आज तक इस बात पर हुआ है कि वे भ्रष्टाचारी हैं या एक आदमी का एक प्रतिशत वोट इस आधार पर पड़ गया है, कि वह सदाचारी है। (पृष्ठ 48)?”
साही ने मार्क्स, गाँधी, आचार्य नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश नारायण और लोहिया के श्रेष्ठ विचारों की भित्ति पर अपनी समाजवादी वैचारिकता की नींव रखी थी; लेखकों और दर्शनिकों में और भी कइयों के नामोल्ळेख आते हैं, लेकिन बहुत-से अवसरों पर वे मार्क्स, गाँधी, लोहिया इत्यादि की बहुत-सी नीतिगत पद्धतियों से तीव्रतापूर्वक प्रतिक्रिया करते हैं क्योंकि ‘प्रश्नवाचक दृष्टि’ फेरने की उनकी अपनी स्थापित रीति है।
राष्ट्रवाद और समाजवाद के आग्रही रहने के कारण ही लोहिया ने ‘अँग्रेजी हटाओ’ की बात उठाई थी और हिन्दी का धुर समर्थन किया था, साही ने यह लिखा। साहित्य में रहकर ‘समाजवाद’ से वितृष्णा नहीं रह सकती क्योंकि ‘साहित्य समाजवाद का लगभग समानधर्मा है।’ साहित्य में रहती है भाषा जो आद्यन्त समाजिक होती है। साहित्य की भाषा संगीत की भाषा से भी अधिक प्रभावकारी होती है क्योंकि संगीत की भाषा के कर्णकुहरों में खो जाने के बाद, लगभग निःशेष हो जाने के बाद भी साहित्य की वाणी ‘अजेय शक्ति से जगती है।’
लेकिन साहित्य की दुर्गति तब आती है, जब व्यवस्था दिवालिया हो जाती है, तब भी साहित्य बाजार में पण्य के रूप में अस्तित्व के लिए लड़ता है। साही की दृढ़ मान्यता है कि ऐसे आपदधर्म में भी साहित्य अपना स्वधर्म छोड़ना नहीं चाहता। समाजवादी रूस में जब साहित्य का स्वधर्म टूटने लगा था, तब रूसी साहित्यकार मायको की ललकार वाली घोषणा आई थी, “दोस्तो, ऐसी पुरजोर कविताएँ लिखो जो लाल सेना के हर कदम पर ताल दे सकें, ताकि पार्टी के अपने सालाने जलसे में जब कामरेड स्टालिन इस्पात की राष्ट्रीय पैदावार की रपट पेश करने लगें, तो वे कविता के उत्पादन का हिसाब देना न भूलें (पृष्ठ 90)।”
साहित्य से बदलाव की आशा रखने के कारण धूमिल ‘कल सुनना मुझे’ की बात कर गये थे। विजयदेवनारायण साही के एक गजल-संग्रह का नाम भी इसी तर्ज पर है- ‘आवाज हमारी जायेगी।’ ‘लोकतांत्रिक समाजवाद में साहित्य की भूमिका’ विषयक अपने भाषण में साही ने महाभारतकार को याद करते हुए सभी साहित्यकारों की तरफ से कहा था, “हाँ, आज मेरी बात जनता नहीं सुनती है, लेकिन एक दिन सुनेगी जरूर, लेकिन तब शायद मैं नहीं रह जाऊँगा (पृष्ठ 91)।”