
अंधत्व अतीत का और आधुनिकता का
इन दिनों एक बार फिर, स्त्री-स्वतन्त्रता के हितैषी तर्क, एक नयी विचार शक्ति के साथ आते दिखाई देने लगे हैं। एक बन्द और पिछड़े समाज में, ऐसी शक्तिशाली लहर का ज्वार भाटे का रूप ले लेना, बहुत शुभ लक्षण हैं। उसका चतुर्दिक स्वागत होना चाहिए और आल्हादकारी बात यही है कि काफी हद तक ऐसा हो रहा है। क्योंकि, एक नयी सभ्यता आ रही है, जो हमारे रूढ़ और अर्द्ध सभ्य समाज को विकसित और सांस्कृतिक रूप से सम्पन्न बनाने में हमारे समाज की अभूतपूर्व मदद कर रही है।
बहरहाल, यह अब बहस का मुद्दा ही नहीं रह गया है, बल्कि सम्पूर्ण स्वीकार का बिंदु है कि इस समय, सब से उन्नत, सब से विकसित और सब से सभ्य समाज अमेरिकी समाज है। इसलिए, उस समाज के मूल्य, जीवन शैली को हम को आत्मसात कर लेना चाहिए। भारत का समूचा लाइफ स्टाइल जर्नलिज़्म,, रोज़ ही बता रहा है कि जीवन के सभी घटकों को, अमेरिकी समाज से, प्रतिमानीकरण करने में ही, हमारा और हमारे समाज का भविष्य बन सकेगा।
निश्चय ही ये एक नये सामाजिक परिवर्तन का काल है, जिसे अतीत के अंधे लोग, समझ नहीं पा रहे है। एक पैराडाइम शिफ्ट है। बहरहाल, जो वैचारिक उत्तेजना, इस समय उठ रही है, वो स्त्री के परिधान अर्थात रिप्पड जींस को लेकर है। हालांकि उसे युवक भी पहनते है।
जीन्स को, आमतौर पर और लो-वेस्ट जीन्स को लेकर खासतौर पर बहस खत्म हो चुकी है। जीन्स अब भारतीय युवती का, राष्ट्रीय परिधान है। वह साड़ी, सलवार-कमीज के, भेंनजी- छाप की दिखने के लांछन से निकल कर काफी दूर आ गयी है। वह पुराने रूपनिष्ठ आग्रह की लगभग ज़्यादती से निबट कर, देहनिष्ठ परिधान को वरेण्य बना चुकी है। यहां यह भी याद रखा जाना चाहिए कि एड्स नियन्त्रण अभियान में रोग से बचाव के उपकरणों ने, भारतीय युवती को, पुरानी सेक्स-स्टारविंग दुर्दशा से बाहर निकालने में, बड़ी मदद की। वे देह के आनंद से उम्र और उपयुक्त समय से पहिले परिचित हो सकने में, आत्म निर्भरता के स्तर पर आ गयी। लेकिन रिप्पड जीन्स की इस पूरे सोशल मीडिया में बहस में हर बार की तरह, तर्क वही है, ‘अश्लीलता देखने वाले की आंख में होती है, पोशाक में नहीं।’ ‘मेरा शरीर मेरा है!’ ‘यह स्त्री की आज़ादी का मामला है। पुरुष को अधिकार नहीं, वह तय करे कि स्त्री क्या पहनें, क्या नहीं।’
हमारे समाज मे पुरुष के तीन आततायी रूप हैं। पिता, भाई और पति। ये ही स्त्री की स्वतन्त्रता संहार में सदियों से लगे हुए है। इन पुरूष-रूप से ‘अन्य’ की दरकार सही है। ये ही स्त्री को प्रश्नांकित करते है। रिप्पड जीन्स की भर्त्सना करने वाले लोग, मोरलिस्ट है। वे नैतिकता की शब्दावली के साथ आते हैं। जबकि भारतीय स्त्री के लिए तो, ‘स्त्री आज़ादी की थ्योरीटिकल संभावना’ तक पहुँचने में अभी काफी विलम्ब है। भारतीय स्त्रीवादी, चिन्तक, यानी फेमिनिस्ट, जिनमे स्त्रियां ही अधिकतर होती है, अभी ‘अमेरिकी स्त्री की आज़ादी के सीमांतो’ तक नही पहुँच पाए है। उनका विरोध भी अभी काफी पिछड़ा हुआ है।
मसलन, अभी पुरुष के वर्चस्ववाद के विरोध को वह अमेरिकी विदुषियों के वांछित स्तर पर नहीं, ले जा पाए है। हालांकि, यह भी खबर आयी थी कि एक भारतीय विदुषी ने, रिप्पड जीन्स के विरोध करने वाले को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए, शॉर्ट्स में अपना छायाचित्र सोशल मीडिया पर डाल दिया। हो सकता है, उनके साहस का सीमांत और भी आगे जाये, यदि कोई उनके शॉर्ट्स वाले छाया चित्र की आलोचना कर दे। विजेता होने की ऐषणा बहुत मजबूत होती है।
मैं आप को याद दिलाना चाहता हूँ। अमेरिकी विदुषी ब्रिटनी स्पीयर्स ने, स्त्री की स्वतन्त्रता के प्रश्न को, ऊंचाइयां देने के लिए, छाया चित्रकारों को आमंत्रित किया और अपने यौनांगों के छायाचित्र निकालने का प्रस्ताव किया। ये एक वीरांगना का प्रतिमान का स्थापन था। नतीज़ा हुआ कि वे विश्व मीडिया में छा गयी।।
उनकी साहसिकता से उनकी प्रिय सखी पेरिस हिल्टन, जो दूसरे नंबर की सितारा हैसियत की विदुषी थी। उन्होंने स्वयं को पराजित अनुभव किया, और उन्होंने अपने पुरुष मित्र के साथ के दैहिक साहचर्य की वीडियो क्लिपिंग्स को सार्वजनिक कर दिया। वे ब्रिटनी स्पीयर्स से आगे निकल गयी। फिर तारा रिज और लिंडसे लोहान भी इस स्पर्धा में कूद पड़ीं। उन्होंने अपने शयन कक्ष की देहलीला को जन जन के लिए दृश्यमान कर दिया। ये एकांन्त को अनेकांत बनाने का स्त्रैण शौर्य था। फिर फ्लोरिडा के एक विद्यालय की लड़कियों ने अपने टॉप्स उतार फेंके। बड़ी चर्चा हुई, गर्ल्स गान वाइल्ड की हेडलाइंस बनी।
बाद में उन्होंने एक स्लोगन भी दिया, वी एन्जॉय आवर वैजाइना। ये स्लोगन टी-शर्ट्स पर छापा गया। इस सब से एक उम्र रशीदा विदुषी जेन जुस्का ने, जो स्कूल टीचर रही थी, अपने छात्रों के साथ रति-क्रिया के रोचक बखान में किताब लिखी–राउंड हील्ड वुमन।।
वह सब से अधिक बिकने वाली किताब सिद्ध हुई। ये तमाम, साहसिक प्रतिमान, उस सभ्य समाज की विदुषियों ने, रचे, जिस समाज का हम अनुकरण कर के सांकृतिक सम्पन्नता अर्जित करने को कृत संकल्प हैं।
दरअसल, अनिश्चितता का युग ही फैशन के वर्चस्व का युग होता है। इस समय मे ही, वह समाज को एक मिथ्या सामूहिकता के बोध में लपेट लेती है। फैशन एक किस्म के विचारहीनता के विचार का अनुकरणवाद पैदा करती है। और अब की बार भारत मे, ये काम, पश्चिम की कल्चर इंडस्ट्री कर रही है। वे कहते है, we don’t enter a country with gun-boats, rather with language and culture. और हम पाते है कि वो तो हमारे गुलाम बन जाने के लिए बेताब है। कहना न होगा, भारतीय इसमें सब से आगे है। मेरा बेटा पन्द्रह साल अमेरिका में पढ़ा। वह कहा करता था। यहाँ, जब एक जापानी लड़का-लड़की आता है, वो 105 प्रतिशत जापानी हो जाता है। चीनी यहाँ आकर 115 प्रतिशत चीनी हो जाता है।
भारतीय आते है, वो 80 प्रतिशत अमेरिकी हो जाने की कोशिश करते है। फिर भी अमेरिकी उनको कहते है, bloody third rate xerox copy of our culture. हम स्वत्वहीन कौम के उत्तराधिकारी है। गोरे रंग को लेकर हमारे समाज मे, इतनी दीवानगी है कि अगर गोरे पुरुष के शुक्राणु का बैंक खुल जायें तो उसके वितरण की घोषणा होते ही, बैंक परिसर में भारतीय स्त्री की इतनी अनियंत्रित भीड़ लगेगी कि लाठी चार्ज से स्थिति से ही नियन्त्रण सम्भव हो पाए।
दरअसल, आज भारतीय स्त्री, अपने पति के आग्रह, प्रस्ताव या तानाशाही आदेश पर भी सरेआम, अर्द्ध नग्नता के लिए तैयार नही होती, जबकि फैशन व्यवसाय के पुरूष ने उसे अर्द्ध नग्न होने के लिए आसानी से राजी कर लिया। दिलचस्प स्थिति यह है कि स्त्री जिस अर्द्धनग्न होने रहने को अपनी आजादी मानती है,
दरअसल फैशन के ” व्यवसाय के पुरूष ‘ की ये व्यवसायिक सफलता है। उसने भारत को उस पिछड़ी स्त्री को इस सीमांत तक राजी कर लिया कि जिन वस्त्रों में वह स्नानघर से बाहर नही आ पाती थी, उतने कम वस्त्रों मे वह चौराहे पर आने को तैयार हो गयी।
ये स्त्री की यौनिकता के क्ष्रेत्र में, बनते स्पेस की सफलता का बढ़ता हुआ ग्राफ है। ये याद रखिये, फ़ैशन के व्यवसाय में पुरूष ही उसकी गढ़न्त तैयार करते है। वही तय करते है कि स्त्री की देह का कौनसा भाग कितना और किस जगह से खुला रखा जाए कि वह पुरूष के भीतर देह की उत्तेजना पैदा करे। फैशन की ये सैद्धान्तिकी पुरुष को माचो-मैन बनाती है। वह पुरुष की यौनिकता को उकसाने के लिए, एक विधान रचती है। ये फ़ैशन का प्राथमिक अभीष्ट है।
वह स्त्री के गोपन को, सार्वजनिक क्षेत्र में लाने के मनोविज्ञान में निष्णात है। मुझे विदेश की भारत मे अपना कारोबार करने वाली कम्पनी के, एक विज्ञापन फ़िल्म निर्माण करने वाले, व्यक्ति ने, बहुत अच्छे से समझाया। उसने कहा, टॉप और जीन्स, जैसे वेस्टर्न गारमेंट का व्यवसाय करने वालों ने समस्या रखी, भारत मे, एक लाख करोड़ से ऊपर का व्यवसाय केवल साड़ी करती है, और सलवार कमीज अलग है। वेस्टर्न गारमेंट के उत्पाद के लिए, इन दोनों को, मार्केट से बाहर करना बहुत ज़रूरी है। नतीजतन, हमने, भारतीय स्त्री में, यौनिक निजता को संभालने वाले दुपट्टे, या साड़ी के पल्ले को हटा कर, वक्ष को पब्लिक स्पीयर्स में लाना ज़रूरी था। स्त्री की यौनिक निजता, जनता की थाती बने। पब्लिक स्फीयर में प्रवेश कर जाए।
हमने एक विज्ञापन बनाया। जिस में पहाड़ पर स्त्री खड़ी है, सलवार कमीज और दुपट्टे में। पहाड़ पर हवा चल रही है, और दुपट्टा वक्ष से उड़ कर, उसके गले से लिपट जाता है। विज्ञापन खूब चलवाया गया। दो साल में पूरे देश मे स्त्री ने दुपट्टे को वक्ष ढांपने की ज़िम्मेदारी से मुक्त कर दिया। वह गले मे लिपटा रहने लगा
फिर दूसरा विज्ञापन बनाया। उस मे दुपट्टा तो है, पर वक्ष ढांपने के लिए नही। केवल दाए या बाएं कंधे पर रखने के लिए। फैशन चल निकली। आखरी विज्ञापन में दुपट्टा कंधे से गायब कर दिया। अब स्त्री के वक्ष, पूरी तरह पुरुष की आंख को, देखने के लिए उपलब्ध थे। यानी हमने भारतीय स्त्री के भीतर ये भर दिया कि दुपट्टा रखना, पिछड़ी और अधपढी स्त्री के लिए है। टॉप में रहने के लिए जो संकोच था, वो पूरी तरह ही खत्म कर दिया। हमारी मनोवैज्ञानिक रणनीति की ये भारतीय स्त्री पर विजय थी।
यानी मात्र सात साल में वरेली की साड़ियां, गार्डन की साड़ियां, ओनली विमल वाले साड़ियों के विज्ञापन, टेलीविजन से गायब हो गए। फिर भी जीन्स के प्रमोशन के लिए, कांटा लगा, गाना आया, और जीन्स युवतियों की पहली पसंद बन गयी। लता मंगेशकर ने विरोध भी किया कि उनके गाने को अश्लील बना दिया जा रहा है। हमने गाना हटा दिया। लेकिन हम जीत चुके थे।
उस कम्पनी ने एक बार मेरे पेंटिंग्स खरीदे। तब मुझे लो-वेस्ट जीन्स के प्रमोशनल विज्ञापन फ़िल्म की शूटिंग देखने का मौका मिला। लो-वेस्ट जीन्स की बैक फिटिंग को हाई लाइट करना था। शूटिंग में, लड़कीं एशियाटिक सोसाइटी की सीढ़ियां चढ़ती है। ओएसिस शॉट से शुरू होती है फिर झुक कर लुक-बैक शॉट देती है। ध्यान रखा गया था कि सीढ़ियों पर झुकने के बाद, मॉडल के बट-क्रैक दिखना चाहिए। कैमरा जूम करेगा। फ्रेम टाइट हो जाएगी। मैंने देखा, जो डायरेक्टर था, केमरामेन को निर्देश दे रहा था, ‘ the shot of her back should create a fantasy of dogi-fuck.
यानी, स्त्री परिधान से, पुरूष की यौनेच्छा को बढ़ाने में कैसे काम लिया जाता है। ये उस परिधान का निहितार्थ है, जो बहुत स्पष्ट है। ऐसे में जब लोग तर्क देते है कि अश्लीलता तो आंख में होती है, कपड़े में नही। कपड़े नहीं तू नज़र बदल। तो लगता ऐसे लोग निपट भोले, अज्ञानी और बहुत पवित्र लोग है। मज़ेदार बात कि ये तर्क खुद, उत्पाद के व्यवसाय वाले ही, सामान्य आदमी की जुबान पर चढ़ा देते है, जो साइकोलॉजी ऑफ फैशन की कोई समझ नही रखते। तर्क पकड़ा देते है। जैसे नोट बन्दी में, तर्क काले धन को खत्म करने का पकड़ा दिया गया, और भक्त लोग काले धन का कीर्तन करने लगे जबकि काले धन से उसका कोई रिश्ता ही नही था। मोदी सरकार को भारत मे, अमेरिका की इच्छा के हिसाब से केवल, डिजिटल करेंसी को लाना था।
बौद्धिक स्तर पर कमजोर और बावला भारतीय समाज मूर्ख बनने के लिए हमेशा तैयार रहता है। राजनीति तो बनाती ही है, भूमंडलीकरण भी बना रहा है। फ्रेडरिक जेमेसन ने तो कहा ही था, जब तक भूमंडलीकरण को लोग समझेंगे तब तक वह अपना काम निबटा चुकेगा। वह आधुनिकता के अंधत्व से इतना भर दिया जाता है कि उसको असली निहितार्थ कभी समझ में नही आते। “मेरा शरीर मेरा” का स्लोगन पोर्न व्यवसाय के कानूनी लड़ाई लड़ने वाले वकीलों ने दिया था। उसे हमारे साहित्यिक बिरादरी में राजेन्द्र यादव जी ने उठा लिया और लेखिकाओं की एक बिरादरी ने अपना आप्त वाक्य बना लिया। इस तर्क के खिलाफ, मुकदमा लड़ने वाले वकील ने ज़िरह में कहा था, “अगर व्यक्ति का शरीर केवल उसका है तो किसी को आत्महत्या करने से रोकना, उसकी स्वतन्त्रता का अपहरण है। अलबत्ता, जो संस्थाएं, आत्महत्या से बचाने के लिए आगे आती है वे दरअसल, व्यक्ति की स्वतन्त्रता के विरूद्ध काम करती है। उनके खिलाफ मुकदमा दायर करना चाहिए।
बाज़ारवाद की कोख से जन्मे इस फेमिनिज़्म का रिश्ता, वुमन-लिब से नहीं है। ये तो रौंच-कल्चर का हिस्सा है, जिसमे पोर्न-इंडस्ट्री की पूंजी लगी हुई है। याद रखिये कि किसी भी देश और समाज का पोरनिफिकेशन परिधान में ही उलटफेर कर के किया जाता है। स्त्री इसके केंद्र में है। भारत का सेक्चुलाइजेशन भूमंडलीकरण में बहुत तेज़ी से किया गया। बहरहाल, स्त्री जो पोशाक पहनती है, वह उसका तो वक्तव्य होता ही है, साथ ही उसकी पोशाक उस व्यक्ति पर भी टिप्पणी होती है, जिसने वैसा नहीं पहन रखा है। सेक्सी होना और सेक्सी दिखना, फैशन का मूलमंत्र है। आज सम्पूर्ण भारतीय समाज, एक नयी सांकृतिक चपेट में है, जो भूमंडलीकृत समय की कल्चर इंडस्ट्री के द्वारा तेज़ गति से काम कर रही है।
बहरहाल, जो रिप्पड जीन्स के विरोध में बोल रहे है या पक्ष में लपक कर आगे आ रहे है, दोनो ही अपने अपने अर्द्ध सत्य को लेकर, मैदान में उतर रहे है। कम से कम, स्त्री की आज़ादी से इसका कोई रिश्ता नही है। हो सकता है, स्त्री आज़ादी की थिओरीटिकल संभावना तक भारतीय स्त्री पहुंचे और उस आज़ादी का उपभोग कर सके। जो अमेरिका की पोर्न व्यवसाय से जुड़ी स्त्रियां करती है। भेंजी छाप मेधा पाटकर, पिछड़ी स्त्री मानी जायेगी और सनी लियोनी अधिक आधुनिक। आमीन। ।
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