फिलहाल कुछ भी नहीं बदला है
सब कुछ वही है– पूर्ववत यथावत। भाजपा संसदीय दल ने अपनी बैठक में लोकसभा में अपने नेता का चयन नहीं किया। उसने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमन्त्री नहीं बनाया। एनडीए की बैठक में, जिसमें भाजपा के सभी सांसद उपस्थित थे, नरेन्द्र मोदी को सर्वसम्मति से प्रधानमन्त्री पद के लिए चुना गया। किसी दूसरे नाम का वहाँ उल्लेख तक नहीं हुआ। सम्भव है, भाजपा संसदीय दल की बैठक में कोई और नाम भी प्रस्तावित होता। भाजपा संसदीय दल की अलग से, स्वतन्त्र रूप में कोई बैठक नहीं हुई। तीसरी बार नरेन्द्र दामोदर दास मोदी भारत के प्रधानमन्त्री बने हैं। जिन्हें गृहमन्त्री और लोकसभा के अध्यक्ष पद को लेकर दूसरे दल के व्यक्ति के बनाए जाने का अनुमान था, वह अनुमान ही रहा– कुछ भी नहीं बदला। गृहमन्त्री, रक्षामन्त्री, वित्तमन्त्री, विदेशमन्त्री, सब वही रहे, जो पहले थे। प्रधानमन्त्री ने जो चाहा, वही हुआ।
सहयोगी दलों का भाजपा पर कोई दबाव नहीं बना। मोदी की इच्छा के बिना कोई पता नहीं खड़कता। वे उन सभी सम्भावनाओं को, जो उनके विरोध में खड़ी हो सकती हैं, समाप्त करने में कहीं अधिक कुशल और प्रवीण हैं। किंग मेकर की भूमिका केवल ‘किंग‘ बनाने की रही। जिन 14 दलों– टीडीपी, जदयू, लोजपा रामाविलास, शिवसेना शिंदे, जनता दल सेक्युलर, राष्ट्रीय लोक दल, जनसेना पार्टी अपना दल सोनेलाल, असम गण परिषद, यूपीपी लिबरल, आजसू, हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा, नेशनलिस्ट काँग्रेस पार्टी पवार और सिक्किम क्रन्तिकारी मोर्चा का समर्थन भाजपा और नरेन्द्र मोदी को प्राप्त है, उन सबकी चिन्ताएँ साफ हैं। इन दलों की चिन्ता में क्या सचमुच ‘लोकतन्त्र’ ‘संविधान’ और ‘नागरिक अधिकारों की सुरक्षा‘ है या उनके अनुसार सब कुछ भला–चंगा है। खतरे में न लोकतन्त्र है, न संविधान।
भाजपा को भारतीय मतदाताओं ने अब भी पूरी तरह खारिज उस तरह नहीं किया है, जिस तरह, उसने दशकों पहले काँग्रेस को खारिज किया था। उसने स्पष्ट बहुमत न देकर उसे एक चेतावनी दी है, सोचने–विचारने एवं आत्ममन्थन का एक अवसर दिया है। क्या सचमुच मोदी–शाह इसे समझ कर अपनी नीतियों में, कार्य–व्यापारों में किसी तरह का परिवर्तन करेंगे? क्या भाजपा मोदीशाही के दौर से निकल कर लोकशाही की ओर बढ़ेगी? क्या आरएसएस को सचमुच लोकतन्त्र और संविधान से कोई मतलब है? उसका इतिहास ऐसा कुछ नहीं बताता। उसे लोकशाही से अधिक तानाशाही प्रिय है। मोदीशाही तानाशाही से किन अर्थों में भिन्न है? अयोध्या में लोकसभा और बद्रीनाथ में विधानसभा का चुनाव हारने के बाद भी भाजपा का धार्मिक और मुस्लिम विरोधी एजेण्डा बदलने वाला नहीं है। धर्म उसका अब भी राजनीतिक हथियार है, ‘न्याय’ के स्थान पर अब भी वह ‘बुलडोजर न्याय‘ को महत्त्व दे रही है। यूपी में करारी हार के बाद भी बुलडोजर कायम है। कोल्हापुर के विशालगढ़ में ‘शिव प्रेमियों‘ ने मस्जिदों, और घरों की तोड़–फोड़ की। पूर्व सांसद संभाजी राजे के नेतृत्व में कथित ‘अवैध अतिक्रमण‘ के खिलाफ विरोध–प्रदर्शन किया गया। मस्जिद पर हमले हुए। घरों में आगजनी की गयी। महाराष्ट्र में विधान सभा का चुनाव होने वाला है और भाजपा साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण कर सत्ता पर कब्जा करना चाहती है। बुलडोजर दिल्ली में भी चल रहे हैं। कोर्ट के आदेश का उल्लंघन किया जा रहा है।
भाजपा की राजनीति धर्मस्थान में मौजूद है, नयी सरकार बनने के बाद देश के विभिन्न स्थलों में, छिटपुट ढंग से ही सही, घट रही घटनाओं पर दृष्टि डालने से पता चलेगा कि कहीं कुछ भी नहीं बदला है और न बदलने के आसार हैं। मुसलमानों के लिए ‘घुसपैठिए‘ शब्द का प्रयोग पहली बार जिस महानुभाव ने किया था, उनके पद चिह्नों पर चलने वाले अब इसका धड़ल्ले से प्रयोग कर रहे हैं। पवित्र धर्म स्थलों में चोरी की घटनाएँ पहले भी होती थीं, पर केदारनाथ के गर्भगृह से 228 किलोग्राम सोना गायब है। अब सभी शंकराचार्य भी पहले की तरह नहीं रहे। शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानन्द जितना मुखर हैं, उतना अन्य नहीं। भारत में धर्म का जो रूप–स्वरूप था, उसे पिछले दस वर्ष में पूरी तरह बदल दिया गया है। दिल्ली में केदारनाथ धाम की स्थापना हो रही है। हिमालय के केदारधाम को दिल्ली में लाने का यह प्रयत्न सोची समझी राजनीति के तहत है। उत्तराखण्ड के मुख्यमन्त्री पुष्कर सिंह धामी ने दिल्ली में भूमि पूजन किया। अब बुडारी की धरती ‘पावन धरती’ बना दी गयी है क्योंकि वहाँ मन्दिर–निर्माण होगा। ज्योतिर्लिंग केवल बारह हैं। उनके नाम और स्थान सुनिश्चित हैं। दिल्ली में श्री केदारनाथ दिल्ली ट्रस्ट का गठन हो चुका है। तर्क यह है कि केदारनाथ में जहाँ केवल छह महीने दर्शन होते हैं, वहाँ दिल्ली में बारहों महीने दर्शन होंगे। आलोचनाओं के बाद अब यह कहा जा रहा है कि जब इन्दौर में केदारनाथ मन्दिर है, मुम्बई में बद्रीनाथ मन्दिर है, तो दिल्ली में केदारनाथ मन्दिर क्यों नहीं हो सकता? पर ट्रस्ट का नाम केदारनाथ धाम है, मन्दिर नहीं।
प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी का तिथि–प्रेम अब सर्वज्ञात है। गृहमन्त्री का तिथि–प्रेम भी कम नहीं है। 26 नवम्बर भारत का संविधान दिवस है। भारत की संविधान सभा ने 26 नवम्बर 1949 को संविधान, अपनाया, जो 26 जनवरी 1950 से लागू हुआ। भारतीय संविधान के भाग 18 में अनुच्छेद 352 से 360 तक आपातकाल से सम्बन्धित उपबन्ध उल्लिखित हैं।
संविधान के अनुसार राष्ट्रपति आपातकाल की उद्घोषणा कर सकता है और किसी भी समय एक दूसरी उदघोषणा से इसे समाप्त भी कर सकता है। भारतीय प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी के कहने पर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने भारतीय संविधान की अनुच्छेद 352 के अधीन आपातकाल की घोषणा की थी। यह आपातकाल 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक था। यह आपातकाल घोषित था, जो 21 महीने तक रहा। ‘घोषित‘ को जितना समझा जाता है, उतना ‘अघोषित‘ को नहीं। मोदी के शासन–काल को अघोषित आपातकाल के रूप में देखा जाता है। सर संघ चालक बाला साहब देवरस ने आपातकाल का समर्थन किया था। आपातकाल लागू होने के पाँच दिन बाद 30 जून 1975 को देवरस को गिरफ्तार कर महाराष्ट्र की यरवदा जेल भेज दिया गया था। इंटेलिजेंस ब्यूरो के पूर्व निर्देशक टी वी राजेश्वर ने अपनी किताब ‘इण्डिया: द क्रूशियल इयर्स‘ में लिखा है कि बाला साहब देवरस ने इन्दिरा गाँधी के द्वारा उठाये गये कई कदमों का समर्थन किया था और संजय गाँधी के परिवार नियोजन अभियान की प्रशंसा भी की थी। देवरस ने अपनी प्रस्तक ‘हिन्दू संगठन और सत्तावादी राजनीति‘ में जेल जाने के बाद इन्दिरा गाँधी को कई पत्र लिखने का उल्लेख किया है। देवरस ने 22 अगस्त 1975 के बाद 10 नवम्बर 1975 को इन्दिरा गाँधी को लिखे अपने पत्र में अपने को आपातकाल विरोधी जे पी आन्दोलन से अलग बताया है– इन आन्दोलनों से संघ का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है।
इन्दिरा गाँधी ने आपातकाल लगाया और हटाया भी। यह आपातकाल दो वर्ष के लिए था। अघोषित आपातकाल दस वर्ष से है। अब सरकारी आदेश के अनुसार 25 जून संविधान हत्या दिवस होगा। संविधान को सर माथे पर लगाने से ही संवैधानिक मूल्यों की रक्षा नहीं होती, वह आचरण पर निर्भर करता है। अघोषित आपातकाल बहुत लोगों में भ्रम पैदा करता है कि सब कुछ सही सलामत है। वर्तमान समस्याओं से, महँगाई, बेरोजगारी और किसानी से ध्यान हटा कर पचास वर्ष पहले के आपातकाल को जनमानस में स्थापित किया जा रहा है, जिससे अब किसी को कुछ भी लेना–देना नहीं है। बाद में इन्दिरा गाँधी ने स्वयं अपनी गलती स्वीकार की। अब सरकार एक ओर ‘संविधान दिवस‘ मनाएगी और दूसरी ओर ‘संविधान हत्या दिवस’! इससे यह सिद्ध किया जाएगा कि भाजपा और प्रधानमन्त्री संविधान प्रेमी हैं, उन्हें संविधान की सर्वाधिक चिन्ता है। अपने ऊपर लगे आरोपों को दूसरों पर मढ़ देने में भाजपा निपुण है। इन्दिरा गाँधी और नरेन्द्र मोदी में अन्तर है– इन्दिरा गाँधी को लोकतन्त्र और संविधान में आस्था थी। नरेन्द्र मोदी में यह आस्था नहीं है। इन्दिरा गाँधी के कार्यकाल में लोकतान्त्रिक और संवैधानिक संस्थाएँ बची हुई थीं। उन्होंने इनमें पलीता नहीं लगाया था। पाँच महीने झारखण्ड के मुख्यमन्त्री हेमन्त सोरेन जेल में रहे हैं। दिल्ली के मुख्यमन्त्री अरविन्द केजरीवाल भी जेल में हैं। ईडी और सीबीआई की आज जैसी स्थिति है, वैसी पहले कभी नहीं थी। विगत दस वर्ष में 1 लाख 53 हजार 820 घर गिराये जा चुके हैं और 7 लाख 38 हजार 438 लोग अपने घरों से बेदखल हो चुके हैं। दिमाग को बदलने की दिशा में भाजपा बहुत आगे बढ़ चुकी है। संसद आज जिस तरह चल रही है, वैसी पहले नहीं थी। नक्सली इन्दिरा गाँधी के समय भी थे, पर उनके और काँग्रेस के विरोधियों को कभी ‘अर्बन नक्सल’ नहीं कहा गया।
देश लोकतान्त्रिक राज्य से कॉरपोरेट राज्य बनकर अब पुलिस राज्य की ओर बढ़ रहा है। तीन नये कानून पुलिस प्रशासन की निरंकुशता को बढ़ाने वाले हैं। इण्डियन पैनल कोड बनाने में 25 वर्ष लगे थे– 1834 से 1860 तक। इसे 1862 से लागू किया गया था। तीन नये कानून बनाने में भाजपा सरकार को कितने वर्ष लगे? अब नये कानून में सरकार के खिलाफ विरोध–प्रदर्शन अपराध होगा। सरकार के निर्णय के विरुद्ध लिखना–बोलना, उसके विरुद्ध प्रदर्शन आदि भी अपराध की श्रेणी में आएगा। ये तीन नये कानून संविधान के विरुद्ध हैं क्योंकि संविधान हमें संगठन बनाने, विरोध करने, सभा–सम्मेलन करने और लिखने–बोलने की आजादी देता है। पुलिस अधिकारी इस नये कानून के अनुसार अब किसी भी नागरिक को आतंकवादी आरोपित कर करता है। इन कानूनों– भारतीय न्याय संहिता 2023, भारतीय साक्ष्य संहिता 2023 और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 से लोकतन्त्र सुदृढ़ होगा या कमजोर? संवैधानिक अधिकार कायम रहेंगे या समाप्त होंगे, कमजोर किये जाएँगे? मात्र शब्द–परिवर्तन का कोई अर्थ नहीं है। ‘दण्ड‘ के स्थान पर ‘न्याय‘ शब्द रख देने से ही न्याय प्राप्त नहीं होता है। भारत में आपराधिक कानून (क्रिमिनल लॉ) अँग्रेजों की देन था।
अँग्रेजों ने हिन्दू और मुस्लिम कानून हटाकर एक नया कानून बनाया था। क्या उसे हटा भर देने से हम औपनिवेशिकता से, औपनिवेशिक मानस से मुक्त हो जाएँगे? हमारा आपराधिक कानून दण्ड–आधारित था। क्या सचमुच अब नये कानून न्यायाधारित होंगे? तीन नये आपराधिक कानून संसद के पिछले सत्र में पारित हो चुके थे, जिन्हें अब 1 जुलाई से लागू कर दिया गया है। 1973 में जो सी आर पी सी (कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसिजर, दण्ड प्रक्रिया संहिता) कानून पारित हुआ था, क्या उसके बाद भी नये कानून लाने की अधिक आवश्यकता थी? कानून विदों ने आपराधिक कानून में अँग्रेजों के योगदान की सराहना की है। अँग्रेजों ने भारत में जो कानून बनाया था, वह इंग्लैंड में भी नहीं था। वहाँ ‘केऑस‘ की और यहाँ भारत में ‘कॉसमोस’ की बात कही गयी थी। अब भारत पुलिस राज्य की दिशा में बढ़ रहा है। नरेन्द्र मोदी की विशेषता यह है कि उनके कार्यकाल में बहुत कुछ अघोषित रूप में है– अघोषित आपातकाल, अघोषित पुलिस राज्य आदि। पुलिस राज्य में सरकारी संस्थाएँ नागरिक समाज और स्वतन्त्रता पर अधिक नियन्त्रण रखती है। हम सब यह जानते हैं कि सरकारी संस्थाएँ किनके नियन्त्रण में हैं। 20 दिसम्बर 2023 को 146 विपक्षी सांसदों को निलम्बित करने के बाद, उनकी अनुपस्थिति में तीन नये आपराधिक कानून पारित किये गये थे। 146 निलम्बित विपक्षी सांसद 24 करोड़ जनता के प्रतिनिधि थे। उस समय भाजपा बहुमत में थी। वह भारतीय जनता पार्टी थी, पर भारतीय जनता की आवाज नहीं सुनती थी और न संसद में उनके प्रतिनिधियों की आवाज का ही उसके लिए कोई अर्थ था। बिना किसी बहस के ये कानून पारित किये गये। कानूनविदों ने भी इन नये कानूनों को न लागू करने को कहा था, पर उनकी भी नहीं सुनी गयी।
प्रधानमन्त्री किसी की नहीं सुनते। उनका राजनीतिक जीवन अन्य नेताओं से भिन्न रहा है। अपनी पार्टी के भीतर उनसे कोई बहस नहीं करता। विपक्षी दलों के सांसदों की बातों का भी उनके यहाँ कोई अर्थ नहीं है। क्या भाजपा के अल्पमत में आ जाने के बाद उनके स्वभाव और विचार में किसी प्रकार का परिवर्तन सम्भव है? नहीं है, वे जो चाहते हैं, वही होता है। विपक्ष पहले की तुलना में अधिक ताकतवर है। संसद में विपक्ष की बातों का उनके पास कोई जवाब नहीं है, अब भी राहुल गाँधी कहते हैं कि माइक ऑफ है। किसने किया, इसका कोई जवाब नहीं है। पंजाब और हरियाणा के किसान अपने साथ छह महीने का राशन लेकर दिल्ली कूच की तैयारी में हैं उनकी माँगें नहीं सुनी जा रही हैं। मणिपुर आज भी अशान्त है और प्रधानमन्त्री वहाँ नहीं गये हैं। मणिपुर भारत का एक राज्य है और नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमन्त्री हैं। मोदीशाही कायम रहेगी। भाजपा लोकतन्त्र और संविधान का जाप कर सामान्य जन में यह भ्रम उत्पन्न करेगी कि उसे लोकतन्त्र और संविधान की चिन्ता है, पर सारे कार्य गैर लोकतान्त्रिक और असंवैधानिक होते रहेंगे।
तीन नये कानून न्यायशास्त्र की आधुनिक अवधारणा के खिलाफ हैं। इन कानूनों के द्वारा जमानत और कठिन होगी और पुलिस को किसी भी नागरिक को हिरासत में रखने का अधिकार प्राप्त होगा, पहले हिरासत की अवधि 15 दिन थी, जो अब बढ़कर 60 से 90 दिनों की हो गयी है। डर घटेगा नहीं, बढ़ेगा। इस वर्ष विजयादशमी के बाद आर एस एस सौवें वर्ष में प्रवेश करेगा। राँची में तीन दिनों (12-14 जुलाई 2024) की आर एस एस की जो अखिल भारतीय प्रान्त प्रचारक वार्षिक बैठक सम्पन्न हुई है, उसमें सांगठनिक विस्तार के साथ जन्मशती वर्ष आयोजन (2025-26) पर भी बातें हुई हैं। इस बैठक में संघ प्रमुख मोहन भागवत, महासचिव दत्तात्रेय होसबले, राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य गण और सभी प्रान्त प्रचारक शामिल थे। इस वर्ष महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखण्ड और कश्मीर में विधानसभा का चुनाव होना है। राँची में यह बैठक झारखण्ड के चुनाव को ध्यान में रखकर की गयी थी। महाराष्ट्र और हरियाणा में इण्डिया गठबन्धन ने लोकसभा की अधिक सीटें जीती थीं झारखण्ड में नहीं। झारखण्ड की 14 लोकसभा सीटों में से भाजपा ने 9 सीटें जीती हैं, एक महीने के भीतर तीन बार असम के मुख्यमन्त्री हेमन्त बिस्वा सरमा राँची आ चुके हैं और यह घोषणा कर रहे हैं कि झारखण्ड में सरकार बनानी है। भाजपा का झारखण्ड में प्रचार–अभियान आरम्भ हो चुका है और इण्डिया गठबन्धन अभी सुस्त है।
प्रधानमन्त्री ने अपने चुनावी भाषण में अम्बानी–अडानी द्वारा बोरे में पैसा भर–भर कर काँग्रेस को पहुँचाने की बात कही थी। मुकेश अम्बानी के बेटे अनन्त अम्बानी की शादी में प्रधानमन्त्री गये। वहाँ ढाई घंटे रहे। मुकेश अम्बानी ने स्वयं जाकर सोनिया गाँधी को इस विवाह में आमन्त्रित किया था। गाँधी परिवार का कोई व्यक्ति अनन्त अम्बानी की शादी में शामिल नहीं हुआ। राहुल गाँधी अकेले नेता है, जिन्होंने बार–बार आरएसएस और अम्बानी–अडानी की वास्तविकता सबके सामने रखी, सरकार कहने को एन डी ए की हो, पर मोदी जो चाहेंगे, वही होगा। वही हो भी रहा है। उनके साथ आर एस एस और कॉरपोरेट हैं। अनन्त अम्बानी की शादी में कौन उपस्थित नहीं था? शंकराचार्य मौजूद थे। यह धर्म और कॉरपोरेट का वह सम्बन्ध है, जिसकी अभी तक अनदेखी की गयी है, किसी बड़े जनान्दोलन की कोई सम्भावना नहीं है। पहले से सारे इन्तजाम किये जा चुके हैं। नये कानून लागू हो चुके हैं। संसद में विपक्ष की आवाजें गूँजेगी पर उनकी अनसुनी भी होगी। लोकसभा अध्यक्ष वही हैं, जो पहले थे। यह सच है कि कुछ भी अब तक नहीं बदला है, पर यह भी सच है कि बदलने की सम्भावनाएँ पहले की तुलना में अधिक बढ़ी है। यह समय निष्क्रियता और तटस्थता का न होकर सक्रियता का है।