एक फिल्मकार का हलफ़नामा : भाग 9
गतांक से आगे…
…जिससे पूरे वातावरण में शोर गूँजने लगी…
अब इस गूंज में कुछ बातें उछल-उछल कर कानों से टकराने लगी- ‘हीरो के हए… हीरो के छोड़ हेरोइन केन्ने हए… देख न ओन्ने कोठारिया में नुकायल हए… अ चार गो लईकनो ढेकुआ खोसले हए… रे चुप्पे रह न तू सब… बकर-बकर करले हए… चल तू सब पीछे जो… हमरा देखे दे…।’ इस तरह भीड़ एक-दूसरे को धकेलते, आगे-पीछे होती एकदम कैमरा के पास आकर जब धक्का-मुक्की करने लगी तो मैं दलान पर से तेजी से उतरा और सभी को कहा- ‘शूटिंग देखे के हौ त अहाता से पीछे हटअ, न त शूटिंग न होतौ।’ यह सुनते ही भीड़ धीरे से कुछ कदम पीछे हट कर थम गई। फिर मैं खड़ी बोली अख्तियार किया- ‘आराम से शूटिंग देखना है तो अहाते से बाहर होकर खड़े हो जाएं। बच्चे और महिलाएं आगे बैठकर देखें।’ कहकर बच्चों से मुख़ातिब हुआ- ‘तू सब पीछे चल के बईठअ और आराम से देखअ।’ बूढ़े, जवान और घोग ताने औरतों को बोला- ‘अपने सब तनी पीछे होके देखीं। देखे लागी त ई बनिये रहल हए। अपने सब पीछे हो जायीं।’ इस तरह सब को प्रेम से अनुनय-विनय कर अहाते से बाहर कर बांस से बना गेट बंद किया। तबतक रमेश जी आकर उनलोगों को बिगड़े- “देखिह, हम्मर गेट पर न लदिहे। फाटक टूटल त जानिहे हम की करवउ? अ इकदम कोईओ हल्ला-गुल्ला न।” भीड़ शांत हो गई।
शिक्षक द्वारा बालक खत्री को पढ़ाने वाला ट्रॉली शॉट लेना था। साइलेन्स, लाइट, कैमरा, एक्शन होते ही ट्रॉली को दो लोग मूव करते हैं। आर्टिस्ट के संवाद पूरे होने के पहले ही ट्रॉली गंतव्य तक पहुँच थम जाती है। ‘कट…कट’ कहके शॉट रोकता हूँ। और कैमरामैन और ट्रॉली ठेलने वाले को समझता हूँ कि ट्रॉली की गति एकदम स्लो, एक्शन के साथ ही ट्रॉली ठेलना है। कैमरामैन को कहता हूँ कि आर्टिस्ट के संवाद बोलने तक ट्राली कैमरा के साथ मूव करेगा और पांडेजी, कुशाग्र और अनुराग को फिर से शॉट देने को कहता हूँ। ‘एक्शन’ के साथ फिर कैमरा रोल होता है और इस बार शॉट ओके हो जाता है। कैमरामैन को इसी सीन का कुछ मिड शॉट और क्लोजअप लेने को कहा और आर्टिस्टों को बताता हूँ कि फिर से अब वही संवाद दोहराना है। शॉट ओके होने के बाद कैमरामैन को कुछ रिएक्शन शॉट लेने को निर्देशित किया।
इसी बीच भीड़ में से किसी की आवाज गूँजी- ‘रे तू ई भीड़ में तांगा कहाँ घुसियाएल जा रहल हय, देहिया पर चढ़ा देबे की?’ रमेशजी को कहा कि देखिए शायद ताँगेवाला आ गया है। गेट खोलवा दीजिए ताकि अहाते में लगा दे। वे तेज कदमों से गेट की तरफ बढ़े।
उसके बाद एक सीन में अयोध्या के पिता जगजीवन लाल खत्री की भूमिका करने वाले दीपंकर सिंह ने जगजीवन लाल खत्री की पत्नी बनी नसीमा, जो रूम में थी को देखने की इक्षा प्रकट करते बोले कि साथ काम करने वाली से परिचय तो करा दीजिए। नसीमा इसके लिए तैयार नहीं थी। मैंने कहा कि आप काम से मतलब रखें। उसके बाद मौलवी साहब द्वारा बालक खत्री को पढ़ाने वाला शॉट फिल्माना था। मौलवी साहब की भूमिका के लिए कोई किरदार तय नहीं था तो अजय को ड्रेसअप होने को कहा तो उसने आपत्ति की कि मैं तो श्रीधर पाठक की भूमिका कर रहा हूँ। तो उसे बताया कि मुझे पता है। मेरे पास उस काम हेतु कोई दूसरा आर्टिस्ट अभी नहीं है। तुम तैयार हो लो, तुम्हारे बैक पोर्शन से शॉट लूंगा। तुम्हारा चेहरा नहीं लेना है। वह ड्रेसअप होने चला गया। सेट तैयार हो गया तो देखा मौलवी बने अजय के कंधे पर हरे रंग का चारखना वाला गमछा नहीं है। यह गमछा तो खरीदा ही नहीं था तो शूटिंग कैसे हो। यह बात कर ही रहा था कि तरौरा पंचायत के मुखिया काले खां अपनी मोटरसाइकिल लिए शूटिंग देखने के ख़याल से पहुँचे। उनके कंधे पर वही गमछा नज़र आया। मैंने उन्हें बुलाया और उनसे अपना गमछा देने को कहा। बेझिझक वे खुशी से अपना गमछा उतार कर सौंपे और फिर बताया कि किस तरह मौलवी साहेब कंधे पर गमछा रखते हैं। यह कहते हुए अजय के कंधे पर उन्होंने गमछा सही से डाला। इस तरह यह शॉट ओके हुआ। बाद में पता कि काले खां एक नामी स्प्रिट माफिया था। अब वह इस दुनिया में नहीं है।
सभी को तेज़ भूख लग रही थी और सुनील नंदा से पूछा तो उसने बताया कि खाना तैयार है। इस ठंड में आज का मीनू था- लिट्टी और घुघनी। शूटिंग ब्रेक कर सभी को खा लेने को कहा। अहाते में एक ओर टेंट में खाने की व्यवस्था थी। धीरे-धीरे सभी खाने स्थल की ओर बढ़े। एक दोने में लिट्टी और दूसरे में घुघनी ले सभी खाने लगे। सुनील ने आकर बताया कि गांव के लोग भी घुस कर खा रहे हैं। मैंने उसे मना करने को कहा तो उसने कहा – “भीड़ काफी छट चुकी है। ज्यादा नहीं तीस-चालीस लोग हैं। खाने दो, स्टॉक है मेरे पास, घटेगा नहीं।” मैं चुप रह गया।
क्षुदा शांति के बाद अब तांगे पर शॉट लेना था। तांगेवाले को तांगे पर से प्लास्टिक और फूलपत्ती हटाने को कहा। फिर उसे ड्रेसअप करवाया। यह सब होने के बाद कैमरा जब भी रोल होता, घोड़ा बिदक जाता और तांगेवाला हर्र… हर्र… हुर्र कहता उसे नियंत्रित करने की कोशिश करता, लेकिन क्या मजाल कि वह अपनी कारिस्तानी से बाज आता। मैंने पूछा कि घोड़ा भुखायल त न न हौ? तो उसने कहा भोरे के खाएल हए। तो मैं बोला- ” कुछ खिलो एकरा पहले। कुछो हौ कि न?” तो उसने सिर हिला हामी भरी और तांगे के नीचे रखे बोरे से घास निकाल उसके आगे रखा। वह टूट पड़ा। घोड़े के पानी पीने के बाद जब शॉट ओके हुआ। इसके बाद कैमरामैन को समझाया कि अब चलते तांगे के चक्के का क्लोजअप शॉट लेना है। कैमरा तांगे के चक्के पर फोकअस करें। चक्का चलते ही कैमरा क्लोजअप से जूम आउट करें। उसने प्रश्न किया कि इस शॉट का क्या मतलब? मैं कुछ पल के लिए उसे घूरा फिर कहा- ‘यह इसलिए कि इस शॉट के बाद बालक खत्री को वयस्क दिखलाना है। इसे मोंटाज शॉट कहते हैं। इसका प्रयोग दुनिया में सबसे पहले सोवियत संघ के महान फिल्मकार सेर्गेई आइंस्टीन ने किया था। सेर्गेई का नाम सुना है?’ पूछने पर वह चुप हो ‘नहीं’ में सिर हिलाया। मन ही मन सोचा सेर्गेई आइंस्टीन का नाम नहीं सुना और कैमरामैन बनके आ गया! फिर उसे समझाया- “फिल्म में देखते हैं न कि बच्चे को जब फिल्म में बड़ा होते दिखाना होता है तो पहले आपको एक बच्चा स्क्रीन पर दौड़ता हुआ नजर आता है। धीरे-धीरे कैमरा जूम इन हो उसके नन्हें पांव पर दौड़ता होता है और फिर अचानक फ्रेम में दौड़ता हुआ पांव बड़े व्यक्ति का दिखने लगता है और कैमरा जूम आउट होते ही वह वयस्क नजर आने लगता है। इस तरह के शॉट्स की एडिटिंग में जरूरत पड़ती है। फिल्म की लंबाई और उबाऊपन को दूर करने के लिए इसका इस्तेमाल होता है, जिसे सबसे पहले सेर्गेई आइंस्टीन ने प्रयोग किया था। उन्हें ‘मोंटाज का पितामह कहा जाता है।” यह सब सुन वह जी…जी… करता सिर हिलाता रहा। मैं मन ही मन सोच लिया कि अब ऐसे बकलोल कैमरामैन को आगे की शूटिंग में नहीं रखूँगा।
मैंने बात बदल उसे बाकी के रिएक्शन शॉट्स लेने को कहा…
(जारी…)
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