एक फिल्मकार का हलफनामा : भाग 14
गतांक से आगे
पिछले वर्ष 24 दिसंबर को हुए मुहूर्त वाले सीन को फिर से फिल्माना था जो अजय नांदे के कारण बर्बाद हो गया था। यह फिल्म का सबसे अहम हिस्सा था, क्योंकि इसी में काव्य भाषा आंदोलन का समूचा परिदृश्य उभरकर सामने आना था। इस सीन में राधाचरण गोस्वामी, प्रताप नारायण मिश्र और श्रीधर पाठक के बीच होने वाले आरोप प्रत्यारोप का दृष्यांकन होना था और इसे इस तरह नियोजित करना था कि आम दर्शकों समझ जाएं और ऊबे भी नहीं। मानू बाबू की हवेली में ऐतिहासिक फर्नीचर काफी मात्रा में थी और वह पूरी तरह मेंटेन भी था। उनमें से कुछ फर्नीचर चुनकर सेट तैयार करवाया और सभी आर्टिस्टों को ड्रेसअप होने को कहा। अजय को सख़्त हिदायत दी कि पिछली पुनरावृति न हो। साइलेंस, कैमेरा, एक्शन के साथ क्लैप होते ही शूटिंग शुरू हुई। बीच-बीच में मानू बाबू आकर अपने कक्ष में मुझे ले जाते और जाम बढ़ाते। यह क्षेपक हलक को तर करने के साथ थकान मिटातेराहत दे रहा था तो लोगों की नजरे बचा राहत लेता शूटिंग करता रहा। देर रात तक चला यह दोनों काज मन माफिक हो गया तो दिल को करार आया। फिल्म का यह सबसे लंबा सीन था इसलिए इसे टुकड़ों-टुकड़ों में कई एंगल से शूट किया और फिर कैमरामैन को बहुत सारे रिएक्शन शॉट्स लेने को कहा ताकि एडिटिंग के समय व्यवधान न उत्पन्न हो।
कल फिर इसी कोठी पर अंतिम दृश्य फिल्माना था, जिसमें जैन वैद्य, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, श्यामसुंदर दास और खत्री जी के बीच चलने वाले संवाद थे। सहारा समय चैनल का रिपोर्टर मुकेश तब के डीआईजी गुप्तेश्वर पाण्डेय के बारे में कई हफ्तों से उन्हें एक रोल देने की सिफारिश कर रहा था तो उसे रात फोन किया कि कल सुबह उन्हें गुलेरी जी की भूमिका करनी है। जेल चौक पर मानू बाबू की कोठी पर उन्हें आने के लिए कह दीजिए। उनसे बात कर मुकेश ने मुझे फोन किया कि सर कह रहें हैं कि उन्हीं की कोठी पर आकर कर लीजिए !
“ऐसा थोड़े होता है ! उन्हें कहिए कि शूटिंग स्थल पर ही यह सम्पन्न होगा। यदि आ सकते हैं तो ठीक, अन्यथा दूसरे से करवा लूंगा।” – यह बात उसे कही तो सवेरे-सवेरे गुप्तेश्वर पाण्डेय बिना सिक्योरिटी के मुकेश के साथ सहारा समय की मारूति वान से पहुंचे। मुकेश को भी एक छोटी सी भूमिका श्याम सुंदर दास की करनी थी और जैन वैद्य की भूमिका विनय तो था ही। तीनों को ड्रेसअप कराकर मेकअप कराने को कहा। ड्रेसअप होते समय मानू बाबू की गाड़ी पोर्टिको में आकर लगी। बरामदे में चढ़ें तो उनका परिचय गुप्तेश्वर पाण्डेय से कराना चाहा तो बिना रुके हाथ उठा अभिवादन करते अंदर चले गए। उनकी चाल से लगा कि वे क्लब में सारी रात बिता अभी लौट रहे।
इस दृश्य के फिल्मांकन का आज आखिरी दिन था और सभी टेक्नीशियन को आज ही लौटना भी था। मानसिक दबाव इतना था कि इस दृश्य के अंकन में मैं अपना ही आधा संवाद भूल जा रहा था। बार बार के रीटेक से परेशान विवेक से स्क्रिप्ट की कॉपी ले पूरा संवाद पढ़ने के बाद तय किया कि इसके आधे डायलॉग से भी, जो बात कहनी है, संप्रेषित हो जाती है तो वही कर छुट्टी पाई और तमाम टेक्नीशियन को उनकी तय रकम देकर वापस विदा किया।
शूटिंग से थककर चूर हो जाने के कारण दो दिन तक बेहोशी का आलम रहा। स्वस्थ मनःस्थिति बनी तो शेष बचे दृश्य पर मंथन शुरू किया। इनमें जंगली लाल, ग्रियर्सन, फ्रेडरिक पिनकॉट और बंगाल गवर्नर से भूदेव मुखोपाध्याय की बातचीत वाले अंश शेष रह गए थे। पंद्रह दिन की शूटिंग के बाद महसूस किया कि फ्रेडरिक पिनकॉट वाला दृश्य लंदन में फिल्माना न तो संभव था और न ही सेट खड़ा कर फिल्माने की औकात। तो मन ही मन सोचा कि इसके साथ और भी कुछ बचे दृश्य को डॉक्यूमेंट्स के आधार पर दिखाकर बात संप्रेषित की जा सकती है, लेकिन गवर्नर वाला दृश्य फिल्माना आवश्यक था ! तो पुनः प्रकाश झा याद आएं और याद पड़े त्रिपुरारि शरण आईएएस, जो उनकी “विद्रोह” टेलीफिल्म में काम कर चुके थे।
त्रिपुरारि शरण के बारे में पता चला कि वे इस समय पूना फिल्म एंड टेलीविजन संस्थान के निदेशक हैं। उनका नंबर पता कर डायल किया। उनकी मधुर और शालीन आवाज आई तो उन्हें अपना परिचय देते पूरी बात बताई और अनुरोध किया कि आप को इस फिल्म में छोटी सी भूमिका करनी है। उन्होंने दरियाफ्त की- “आप मुझे कैसे जानते ? मैंने आपको पहचाना नहीं ?” के जबाव में उन्हें स्मरण दिलाया कि प्रकाश झा वाली विद्रोह फिल्म में मैं भी था और बेतिया में शूटिंग के समय प्रकाश जी से आप की जो नोक झोंक हुई थी। बीच में ही मेरी बात काट हंसते हुए कहा कि हां तब से हमदोनों के बीच एक गांठ बनकर रह गई। फिर उन्होंने मुजफ्फरपुर आने में समयाभाव के कारण असमर्थता व्यक्त की और कहा कि पूना आकर शूटिंग कर लें।
स्वाधीन दास को कहा कि आप एडिटिंग हेतु कलकत्ता जाएं, मैं पीछे से पहुंचता हूं। रुपए दे उन्हें कलकत्ता भेज दिया। एडिटिंग कराने से लेकर पूना जाकर वह सीन फिल्माने में अब अर्थ आरे आ चुका था। यह विपन्नता दूर कैसे हो की सोच में पड़ गया तो इसकी पूर्ति बेगम की ! कहां से की ? वह तो कभी बताया नहीं, लेकिन उसके बाद से उसे कभी सोना पहनते नहीं देखा और न कभी इसका मलाल रहा उसे। पूछने पर कहती- ‘सोना-गहना धातू से ज्यादा कुछ नहीं मेरे लिए’ और जकड़ी- ‘मेरे सोना तो तुम हो।’
बेगम के दिए रुपए समेट कलकत्ता पहुंचा तो एडिटिंग का काम शुरू भी नहीं हुआ था। स्वाधीन दास के साथ सियालदाह से लोकल ट्रेन पकड़ बेलघोरिया स्टेशन उतरा। वहां से वॉकिंग डिस्टेंस पर एडिटर सुजीत बर्मन के घरनुमा एडिटिंग रूम में उससे परिचय हुआ तो तपाक से मिलते जबरन हिन्दी बोलने की कोशिश की लेकिन बांग्ला में ही बोला कि आज यह काम खत्म हो जाएगा दादा। कल से आपके काम में हाथ लगेगा। स्वाधीन दा ने तर्जुमा कर यह बात बताई।
कुछ दृश्य जिसे फिल्माना अर्थाभाव के कारण संभव न था तो सोचा कि उसे डॉक्यूमेंट्स की तरह डालेंगे लेकिन इसके लिए बैकग्राउंड से उस प्रसंग के संवाद भी बोले जाने थे। वह संवाद बोले कौन ? जहां एडिटिंग करा रहे थे, वे सभी बांग्ला भाषी। स्वाधीन दास की हिन्दी बोली में बंगाली टोन साफ झलकता था। इसलिए यह संभव न था और मैं अपनी आवाज दे नहीं सकता था। उस वक्त यहीं कलकत्ता के वरिष्ठ लेखक डॉ. शम्भुनाथ याद आएं जिनसे पहले भी मिल चुका था। उनके पास पहुंच समस्या बताई तो उन्होंने वेद रमण पाण्डेय के पास भेज दिया। दूसरे दिन उनसे मिला और अपनी समस्या से अवगत कराया। उन्होंने हामी भरी तो उन्हें संवाद थमाई। दूसरे दिन एडिटिंग स्थल पर आकर उन्होंने कई तरह के टोन में संवाद रिकॉर्ड करा मेरी समस्या का निदान किया और जिसकी कोई पारिश्रमिक भी नहीं ली।
सात दिन पश्चात फिल्म की एडिटिंग लगभग पूरी होने को थी। तय हुआ कि अब पूना जाकर वह सीन शूट कर लौटे तो फाइनल एडिटिंग होगी। यह सब होते हवाते उस दिन बेलगोरिया में काफी देर हो गई। वहां से सियालदाह लौटे तो रात के बारह बज रहे थे। सियालदाह स्टेशन के आस पास की सड़कों पर सन्नाटा पसरा हुआ था। कोई रेस्टोरेंट खुला नहीं कि पेट की आग बुझाई जा सके। स्टेशन परिसर में ‘चाह खाबीन दादा’ के अलावा कुछ नहीं। तब स्वाधीन दास ने कहा कि एक जगह खाना मिल तो सकता है किन्तु आप वहां खा नहीं पाएंगे ! मेरे क्यों के सवाल पर बोलें कि वहां खाना एकदम गर्म मिलेगा। गर्मागर्म आलू दम और रोटी, लेकिन ….।
“लेकिन वेकिन छोड़िए और चलिए। पेट में आग लगी हो तो क्या ठंडा, क्या गर्म ! भूखे पेट भजन जब न होए तो नींद कहां से आये ? चलिए।” मेरे यह कहते ही वे स्टेशन के पास की ही एक पतली गली से उस काले से रसोई घर नुमा ढाबे में ले गए जहां खाने वालों की भीड़ दिखी। एक छोटी सी दुकान, जिसकी सभी दीवार और छत कोयले के चूल्हे से पूरी तरह काला पड़ चुका था। चूल्हे पर आलू दम की चढ़ी कराही और रोटी बनाने में तल्लीन दो लोग। बैठने की कोई जगह नहीं। एक व्यक्ति अखबार के टुकड़े पर दो गर्म रोटी रखता और आलू दम की लटपट तरकारी रोटी पर डाल ग्राहक को बढ़ाता। ग्राहक उसे थाम रोड पर खड़े-खड़े टूट रहे थें। हमलोग भी टूट पड़े। पेट में लगी हो आग तो नून रोटी भी अमृत लगे ! और ये तो गर्मागर्म स्वादिष्ट खाना था। दो-दो के बाद दो-दो और रोटी ले हमलोग जी भर जीमे। खाने के बाद कुल सोलह रुपए लगे तो आश्चर्य नहीं हुआ। देश के तमाम मेट्रोपोलिटन सिटी में कलकत्ता ही ऐसी जगह है, जहां आज भी गरीबों का गुजारा हो जाता है। मन ही मन उसका शुक्रिया अदा करता होटल में जा लंबलेट हुए, जहां ठहरे थे।
आधी रात को भूकंप के झटके से जगे हमदोनों और उठकर पलंग पर बैठ गए। बैठने को बैठ गए लेकिन पलंग थरथराते हुए अपनी जगह से घिसकता रहा तबतक, जबतक कि घड़घड़ाने की तेज आवाज बंद न हो गई। स्वाधीन दास ने बताया कि ऐसा रोज होता है। पूरा होटल कांप उठता है, जब भी ट्रक या बस रात को इस रोड से गुजरती है। बाकी रात यह खेल चलता रहा और हमारी नींद जगती रही।
जारी…..