आधुनिक दौर में अंधा युग का अश्वत्थामा
लॉकडाउन के दौरान जब से सरकारी चैनलों पर पौराणिक धारावाहिकों का प्रसारण होने लगा, तब से रामायण और महाभारत पर पुन: विमर्श शुरू हो गया है। दोनों ही कथाओं पर लोगों ने नए सिरे से सोचना प्रारंभ कर दिया है। ऐसे धारावाहिक इस दौरान समाज के अभिन्न हिस्से बन चुके हैं। इनकी लोकप्रियता के परिणामस्वरूप विभिन्न पात्रों की चर्चा घर-घर में होने लगी है। इन पात्रों के बीच होने वाले संवाद और विवाद दोनों ने समाज को जिस तरीके से सोचने और विचार करने के लिए विवश किया है, वे रामायण और महाभारत की महत्ता को ही प्रतिपादित करता है।
रामायण और महाभारत काल में जिस स्वर्ण युग को दिखाया गया था, वह आज किसी स्वप्न से कम नहीं है। रामायण और महाभारत प्रारंभ से ही हिंदू समाज में अविस्मरणीय छाप रखते हैं। ये दोनों महाकाव्य भारतीय (हिंदू समाज) जनमानस की आत्मा में बसते हैं। इनके पात्रों को ईश्वरत्व का रंग रूप दिया गया है। समाज में इनकी पूजा की जाती है। ये धार्मिक आख्यान से जुड़े हुए हैं। ऐसे महाकाव्यों से मिलने वाली अनमोल शिक्षा के बावजूद लोगों की मानसिकता निर्मल और स्वच्छ न होकर विकृति की ओर अग्रसर हो रही है। ऐसा क्यों? क्या भारतीय जनमानस ने धर्म, मर्यादा के महत्व को भूला दिया है। यदि ऐसा है तो पूजा-पाठ के नाम पर यह आडम्बर क्यों?
रामायण और महाभारत में सिर्फ किवदन्तियां नहीं हैं, बल्कि जीवन जीने की कला है और जीवनदृष्टि भी है। बहुत हद तक भारतीय जीवनशैली इसी जीवनदृष्टि की आधारशिला पर खड़ी है। इन पौराणिक आख्यानों में एक बात सामान्य है वह है, युद्ध का दृश्य। किसी भी पौराणिक कथाओं को देखें या पढ़ें, तो वे युद्ध के बिना अपूर्ण हैं। इन्हीं के ईद-गिर्द जीवन का चक्र- नीति-अनीति, सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय, पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म आदि घूमता है। इस धर्म-अधर्म के बीच की लड़ाई में धर्मवीर भारती के नाटक ‘अंधा युग’ का अश्वत्थामा आज भी समसामयिक, प्रासंगिक और कालजयी प्रतीत होता है। इस नाटक को मुख्यत: अश्वत्थामा की एक क्रूर भूमिका पर केंद्रित किया गया है और उसके क्रूर बनने के कारणों पर भी प्रकाश डाला गया है। साथ ही युद्ध के बाद की त्रासदी को भी रेखांकित किया गया है।
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यों तो महाभारत अधर्म पर धर्म की कथा पर केंद्रित है। फिर भी महाभारत के युद्ध में दोनों पक्षों की तरफ से मर्यादाओं, मानवीय मूल्यों और नैतिकता का हनन प्रतीत होता है। युधिष्ठिर ने कहा ‘हतो: नरो वा कुंजरो वा’। धर्मभीरू कहे जाने वाले युधिष्ठिर ने भी धार्मिक नियमों का उल्लंघन करते हुए अश्वत्थामा के सामने जो अर्द्धसत्य रखा, वह धार्मिकता को कटघरे में खड़ा कर देता है। द्रोणाचार्य, युधिष्ठिर के मुख से अर्द्धसत्य सुनकर पुत्र-शोक में डूब जाते हैं और हथियार डालकर, ध्यान मग्न होकर बैठ जाते हैं। इसी मौके का फायदा उठाकर ‘धृष्टद्युम्न’ उनके सिर को तलवार से काट देता है। युधिष्ठिर के अर्द्धसत्य और दुर्योधन की अधर्मयुक्त हत्या को अश्वत्थामा सहन नहीं कर पाता है। इस प्रकार युद्ध की यह भयावह स्थिति अश्वत्थामा के मन में व्याप्त सत्य, शिव और सुन्दर के भाव को कुचल कर रख देता है।
उपर्युक्त परिस्थितियों के कारण अश्वत्थामा मानसिक संतुलन खो बैठता है। वह छला हुआ महसूस करता है। इसलिए वह धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, नैतिक-अनैतिक का भेद भूल जाता है। महाभारत के इस युद्ध से एक बात तो स्पष्ट है कि युद्ध की परिणति चाहे कुछ भी हो, किन्तु युद्ध का चरित्र अंतत: भयावह ही होता है और इस तरह मानवीय मूल्यों वाली अश्वत्थामा की पहली भूमिका का समापन हो जाता है।
पिता की क्रूर हत्या और दुर्योधन की दीन-हीन दशा को देखकर अश्वत्थामा की मानसिक प्रवृत्ति में बदलाव आ जाता है। अब यह, वह अश्वत्थामा है जो रक्तपात, विध्वंस, कुरूपता, बर्बरता अनास्था, निराशा, प्रतिशोध, कुठा, संत्रास, स्वार्थ और पशुता के भाव में लिप्त है। उसके मन में प्रतिशोध की ज्वाला है। अंधा, बर्बर और पशुवत अश्वत्थामा का उदय दूसरी भूमिका के रूप में होता है। धर्मवीर भारती का ये, वही अश्वत्थामा है जो महाभारत युद्ध के अठारहवें दिन की संध्या से लेकर प्रभास तीर्थ में कृष्ण की मृत्यु के क्षण तक की घटना काल को समेटे हुए है। साथ ही महाभारत युद्ध के उपरांत की त्रासदी को भी उजागर करता है।
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अश्वत्थामा अपनी दूसरी भूमिका में छलकपट कर गुप्त रूप से पांडवों के शिविर में प्रवेश कर ‘धृष्टद्युम्न‘ और पांडव पुत्रों की बर्बरतापूवर्क हत्या कर, शिविर में आग लगा देता है, जो निश्चय ही अनुचित कार्य है। किन्तु युधिष्ठिर के अर्द्धसत्य और दुर्योधन की भी छलकपट से हत्या करना, कहाँ तक उचित और तर्कसंगत है? यह एक विचारणीय प्रश्न है। अश्वत्थामा की दूसरी भूमिका का कारण पांडवों का अधर्मयुक्त युद्ध ही है, जिसके कारण अश्वत्थामा के नैतिक मूल्यों का हनन होता है और इस तरह वे अंधा, बर्बर और पशुवत अश्वत्थामा बन जाता है। तथाकथित समय में अश्वत्थामा जैसे लोगों का उदय निरंतर होता जा रहा है। इसलिए महाभारत का यह पात्र समसामयिक भी लगता है। आधुनिक समाज, अश्वत्थामा की पहली प्रवृत्ति वाली भूमिका को छोड़ चुका है और दूसरी प्रवृत्ति वाली भूमिका को अपना रहा है।
आज हमारे बीच धर्मवीर भारती का ‘अंधा युग’ नाटक यथार्थ के धरातल पर खड़ा दिखाई पड़ता है। आधुनिक समाज में घर-घर पर महाभारत चल रहा है। इस महाभारत के केन्द्र में दुर्योधन जैसी प्रवृत्ति वाले लोगों की संख्या निरंतर बढ़ती ही जा रही है। ऐसे लोग अपने निजी स्वार्थ, सत्ता लोलुपता, पूंजी, स्त्री, भूमि आदि के लोभ में किसी भी हद तक जा रहे हैं। इसलिए वर्तमान समाज में अधिकांश लोग मर्यादाओं की सीमाओं का उल्लंघन करते हुए प्रतीत होते हैं। जहां रिश्ते-नातों का मूल्य और अधिक वीभत्स होता जा रहा है। ठीक ऐसे ही आधुनिक समाज का चरित्र भी दिखाई देने लगा है। बल्कि, उससे भी भवावह स्थिति पैदा हो गई है। इस ‘अंधा युग’ के आगे कौन सा युग आयेगा? यह कह पाना बेहद कठिन है।
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वर्तमान परिदृश्य में पौराणिक युद्ध भले ही इतिहास के पन्नों में बंद है। किन्तु, उनके मूल्य आज भी प्रासंगिक हैं। समाज, परिवार और व्यवस्था के बीच जो युद्ध छिड़ा हुआ है, वह किसी बर्बर अंधा युग से कम नहीं है। निजी स्वार्थ ने लोगों को इतना अंधा बना दिया है कि अब वे किसी भी अनैतिक कार्य को करने से नहीं झिझकते हैं। अधिकांश लोग अपनी निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए जघन्य-से-जघन्य अपराध को करने से भी कोई परहेज नहीं करते हैं।
इस परिदृश्य को देखते हुए एक ही बात याद आती है कि -‘प्यार और जंग में सब जायज है।’ यह कथन वर्तमान, भूत, भविष्य सभी कालों में तर्कसंगत प्रतीत होता है। अंधा युग नाटक के पात्र वर्तमान साहित्य की मुख्य धारा का केंन्द्र बना हुआ है। इस प्रकार धर्मवीर भारती का नाटक ‘अंधा युग’ एक दूरदृष्टि से अभिभूत नाटक है, जो समाज में व्याप्त विसंगतियों पर करारा प्रहार करता है। इस नाटक में एक और महत्वपूर्ण संदेश यह दिया गया है कि किसी भी व्यक्ति की भूमिका अधिकांश परिस्थितिजन्य होती है, जिनमें से एक अश्वत्थामा भी था।
लेखक शिक्षाविद् एवं स्वतन्त्र लेखक हैं|
सम्पर्क- +919479273685, santosh.baghel@gmail.com
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