आज पूरी दुनिया के अधिकांश देश एक ध्रुवीय अर्थव्यवस्था की तरह एक ध्रुवीय राजनीति की तरफ बढ़ रहे हैं। खास कर, वैसे लोकतांत्रिक देश, जो पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से संचालित होते हैं। इस तरह की प्रक्रिया 20वीं शताब्दी के 90 के दशक से शुरू हो गई थी। तब से दो ध्रुवीय दुनिया की जगह एक ध्रुवीय दुनिया बनने लगी थी। दूसरा ध्रुव जिनमें वार्सा सन्धि के देश आते थे, उनमें बिखराव शुरू हो गया था। संयुक्त समाजवादी सोवियत रूस बालू की दीवार की तरह ढह गया था। तब अमेरिका ने अपने प्रभामंडल को बढ़ाते हुए पूरी अर्थव्यवस्था को अपने कब्जे में लेने के लिए ‘ऑर्थर डंकल’ जैसे अर्थशास्त्री को दुनिया चलाने हेतु एक ठोस अर्थनीति बनाने की जिम्मेवारी सौंपी थी। उनके बनाए डंकल प्रस्ताव पर ही विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू.डी.ओ.) बना और उसके अनुरूप उनके सदस्य देशों में राजनैतिक और आर्थिक बदलाव होनी शुरू हो गई थी। विश्व व्यापार संगठन के सदस्य देशों में ज्यों-ज्यों यह बदलाव आता गया, त्यों-त्यों उन देशों की भीतरी राजनीति एक ध्रुवीय राजनीति का विकास होता चला गया। आज दुनिया के अधिकांश देशों में इस तरह की प्रणाली तेजी से बढ़ रही है।
अपने देश भारत में भी 90 के दशक से (प्रथम चरण) दो ध्रुवीय राजनीति का विकास देखा जा सकता है, जिसे हम दो महागठबंध्न के तहत देख सकते हैं। पहला एन.डी.ए. और दूसरा यू.पी.ए.। यह दो ध्रुवीय राजनीति धीरे-धीरे बहुध्रुवीय दलीय व्यवस्था को कमजोर करती चली गई। परिणाम सामने है कि वामपंथ पूरी तरह से राजनीति के केन्द्र से हाशिये पर आता चला गया।
सन् 2014 के बाद यह तस्वीर भी सामने आने लगी कि अगर अमेरिकी केन्द्रित अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाना है, तो एक ध्रुवीय राजनीतिक व्यवस्था ही चल सकती है। जिसकी स्पष्ट तस्वीर अब सामने आने लगी है। विपक्ष एक तरह से संदर्भहीन होता जा रहा है और उसकी मुखर राजनीति अब विलोपन की ओर बढ़ रही है। इसके निहितार्थ यह स्पष्ट है कि अतिकेन्द्रित अर्थव्यवस्था तभी फल-फूल सकती है जब बहुध्रुवीय राजनीति का विलोपन हो और एक ध्रुवीय राजनीति फल-फूल सके। इसे फलने-फूलने में कॉरपोरेट घराने मुक्त हस्त से कर रहे हैं। इसे वर्तमान संदर्भ में साफ तौर पर देखा और समझा जा सकता है।
इसके बीज स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ही उगने लगे थे। ज्यों-ज्यों भारत आजादी की तरफ बढ़ रहा था त्यों-त्यों गांधी और कांग्रेस के नेताओं के बीच, खासकर पंडित नेहरू के बीच मतभेद गहरा रहे थे। एक बार तो गांधीजी ने पंडित नेहरू को गंभीर सलाह देते हुए यह पत्र लिखा था कि हमारे और तुम्हारे बीच मतभेद इतने गहरा गये हैं कि इस मतभेद को अब जनता के सामने लाना जरूरी हो गया है। यह मतभेद खासकर स्वतंत्रता के बाद के भारत के निर्माण का है। लेकिन तब पंडित नेहरू ने बड़ी ही चालाकी से गांधी की इस बात को दबा दिया था। या यों कहे कि गांधी के इस तथ्यपरक साहस का सामना करने की हिम्मत नेहरू नहीं जुटा पाये थे। तब गांधी ने ग्राम स्वराज पर आधारित भारत के नवनिर्माण की तस्वीर देश के सामने पेश की थी। लेकिन पश्चिम की चकाचौंध एवं कथित आर्थिक विकास से ग्रस्त नेहरू को यह विचार पसंद नहीं था और वे चाहते थे कि अमेरिका और रूस की तरह भारत का निर्माण किया जाये।
नेहरू औद्योगिक संस्कृति को विशेष महत्व देने लगे ओर दलों पर आधारित संसदीय लोकतंत्र को बढ़ावा दिया जाने लगा। गांधी की शहादत के बाद नेहरू को टोकने वाला और पश्चिम की नकल करने से रोकने वाला कोई कद्दावर नेता तब नहीं था। इसलिए नेहरू की मनमानी चलती चली गयी और भारत स्वावलंबी, स्वाभिमानी रास्ते को त्याग कर परावलंबी और अभिमानी रास्ते पर चल पड़ा। आज इसका हश्र सबके सामने है। संसदीय लोकतंत्र के नाम पर खास दलों की तानाशाही बढ़ती जा रही है। और, भारत धीरे-धीरे एक ध्रुवीय राजनीति की तरफ बढ़ता जा रहा है। दलों के प्रमुख अब सुप्रीमो बनते जा रहे हैं। संसद के बाहर और भीतर दल अपने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ में इतने मशगूल हो गये हैं कि इन्हें जनता के हित की बात सूझती ही नहीं। अगर एक शब्द में यह कहा जाये कि आज की राजनीतिक दलों का ‘कॉरपोरेटाइजेशन’ हो गया है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
भूमंडलीकरण की प्रक्रिया शुरू होते ही देश में नेशनल और इंटरनेशनल कॉरपोरेट का दबदबा इतना बढ़ गया है कि संसद में भी इनका वर्चस्व दिखने लगा है। सैकड़ों सांसद करोड़पति और अरबपति परिवार से बनने लगे हैं। धीरे-धीरे हमारी संसद भी परिवारवाद एवं कारपोरेट घराने की शिकार बना दी गई। ऐसी स्थिति में ‘सत्ता और संपति’ के लिए संसद के बाहर और भीतर खेल चलते रहे। परिणामतः जहां एक तरफ भ्रष्टाचार दिन-दूनी रात-चौगुनी गति से बढ़ने लगा वही दूसरी तरफ मंहगाई और बेरोजगारी के शिकार गरीब-गुरबे और नौजवान त्राहिमाम करने लगे।
अप्रैल 2011 से शुरू होकर अगस्त 2012 तक के समय ने देश के युवाओं को अपने गुस्से को प्रकट करने का और जनता को अपनी दमित इच्छा को सार्वजनिक करने का एक अवसर दिया। जंतर मंतर से लेकर रामलीला मैदान तक हजारों की संख्या में लोग तिरंगा लेकर सड़कों पर उतर आये। उम्र का फासला मिट गया और विचारों की विभिन्नता ने एकता का स्वरूप ग्रहण किया- जनलोकपाल के रूप में। पिछले 42 वर्षो से जिस लोकपाल विधेयक को तमाम सत्ताधीश और विपक्ष के लोग नजरअंदाज करते आ रहे थे टीम अण्णा ने उस लोकपाल विधेयक को ‘जनलोकपाल’ का जामा पहनाकर जनता के बीच ला खड़ा किया। अण्णा की हूंकार ने इस जनलोकपाल को और मजबूती प्रदान की। उनके अनशन और आमरण अनशन ने सत्याग्रह का काम किया और यूपीए की सरकार हिल उठी। इस आंदोलन की बैसाखी पर सवार होकर जहां एक तरफ अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली फतह कर लिया, वहीं एन.डी.ए. के घटक दलों का बना प्रधानमंत्री लालकिले पर तिरंगा फहराने में सफल हुआ। लेकिन वर्तमान सत्ताधीशों ने लोकपाल कानून का गला घोंट दिया।
अण्णा के नेतृत्व में शुरू हुए आंदोलन ने इस बहस को पूरे देश में तेजी से उछाला कि संसद बड़ी है या जनता? ज्यों-ज्यों जनलोकपाल का आंदोलन आकार ग्रहण करता गया त्यों-त्यों संसद से लेकर सड़क तक यह बहस फैलती चली गई कि क्या लोकतंत्र महज एक व्यवस्था है या फिर एक सांस्कृतिक अवधारणा ? पश्चिम के लोकतंत्र और देशज लोकतंत्र में कोई अंतर है या नहीं? संसद तो एक व्यवस्था भर है जिसे मतदाताओं के चुने हुए प्रतिनिधियों के द्वारा गठित किया जाता है और इसे पांच वर्ष में या जरूरत पड़ने पर इससे पहले भी भंग किया जा सकता है। लोकतंत्र में लोगों की इच्छाओं के अनुरूप नहीं काम करने वाले प्रतिनिधियों को वापस भी बुलाया जा सकता है। हालांकि अपने देश में इसकी व्यवस्था नहीं है लेकिन दुनिया के कई देशों में इस तरह की ‘राइट-टू-रिकॉल’ की व्यवस्था है। सन् ‘74 के आंदोलन में ‘राइट-टू-रिकॉल’ की मांग बड़ी जोरदार ढंग से उठायी गयी थी। इस आंदोलन में भी इस मांग को टीम अण्णा ने जोरदार ढंग से उठाया। इसमें एक और नई बात जोड़ दी गई जो सरल भी है लेकिन जरूरी है वह है ‘राइट-टू-रिजेक्ट’ का। इतना ही नहीं इस आंदोलन ने इस बात को भी स्थापित करने की कोशिश की कि ग्राम सभा लोकतंत्र की सबसे बुनियादी इकाई है जो स्वयंभू और सार्वभौम है। ग्राम सभा की बुनियाद पर किसी भी लोकतंत्र की एक विकेन्द्रित और जनकेन्द्रित व्यवस्था खड़ी की जा सकती है जो एक निश्चित कार्यकाल में धीरे-धीरे संस्कृति का रूप धारण कर सकती है।
जैसा कि ‘74 आंदोलन के दौरान ‘जनता सरकार’ के गठन के समय उस समय की नेतृत्व-जमात ने की थी। तब यह जमात ने कहा था कि बूथ कमिटियां और ग्राम सभाओं को सशक्त करने के दौरान उन बातों पर भी विशेष ध्यान देना पड़ेगा। गांव के नवनिर्माण के लिए यह जरूरी है। गांव में सामाजिक विषमता और लैंगिक असमानता को दूर करने एवं अंधविश्वास को हटाने के लिए युवाओं और किशोरों की नवनिर्माण वाहिनी जैसा संगठन बनाने की जरूरत पड़ सकती है।
युवाओं और किशोरों के संगठन की यह प्रक्रिया देश के मजदूरों और किसानों के साथ मिलकर गांव और शहरों में देशज लोकतंत्र को मजबूत करे तो एक ध्रुवीय राजनीति के खिलाफ जन-ध्रुवीय राजनीति का विकास संभव है। इसके बल पर चुना गया संसद प्रतिनिधि न सिर्फ संसद के प्रति वफादार होगा बल्कि वह लोगों तथा गांव के प्रति अभिप्रेरित होकर ‘ग्राम संसद’ को मजबूत करने की भी ठोस पहल करेगा। तब चुने हुए प्रतिनिधि और ग्राम सभा के चयनित प्रतिनिधि मिलकर एक सशक्त लोकतंत्र का निर्माण कर सकेंगे और इस प्रकार गांव गणराज्य की प्रक्रिया पर एक नई राजनीति और जीवन्त लोकतंत्र विकसित हो सकेगा- जो महज अभिजात लोगों का लोकतंत्र नहीं बल्कि ‘आम और अंतिम जन’ का भी लोकतंत्र होगा। जन केन्द्रित बहुध्रुवीय राजनीति, जो भारत की विविधता और विभिन्नता पर आधारित होगी।
घनश्याम