बेजोड़ शिक्षक थे अभिमन्यु खाँ
- मणीन्द्र नाथ ठाकुर
मैं एक शिक्षक हूँ और यह प्रामाणिक तौर पर कह सकता हूँ कि जिन लोगों से मुझे शिक्षक बनने की प्रेरणा मिली उसमें से हमारे आदरणीय अभिमन्यु खाँ साहब प्रमुख थे। उनसे ही मुझे पता चला कि शिक्षक का काम केवल कोर्स पढ़ाना नहीं है, बल्कि एक व्यक्ति को मनुष्य के रूप में विकसित होने में मदद करना भी है। हाल के दिनों में उनसे बातचीत का कई मौक़ा मिला। हर बार मिल कर लगा कि वे सच्चे अर्थों में भारतीय परम्परा के बड़े दार्शनिक थे। उनके ग्रामीण और बेहद नज़दीक रहने वाले अमित आनंद से अवकाश प्राप्त के बाद अपने समाज के लिए किए गए कार्यों के बारे में भी पता चलता रहता था।
उनकी मृत्यु की ख़बर से मन भर आया और लगातार उनकी यादों में डूबता रहा। 1975 के मार्च का वह दिन याद आ गया जब विद्यालय आने के कुछ ही दिन बाद मुख्य भवन के उनके एकांत कमरे में बैठ कर मैं घर से अलग रहने पर परेशान हो रहा था। तभी अचानक श्री मान जी आ गए और मेरी व्यथा को समझते हुए भी उस पर चर्चा किए बिना बहुत देर तक मुझसे बातें करते रहे। अब समझ में आता है कि बालमनोविज्ञान पर उनकी ज़बरदस्त पकड़ थी।
एक घटना तो बहुत लोगों को याद होगी। जब छात्रों ने प्राचार्य त्रिपाठी जी के विरोध में कुछ पर्चे निकाले थे और कैंपस में पुलिस बुलाने की बात चल रही थी, उन्होंने उपवास रख कर छात्रों और शिक्षकों के लिय आत्मशुद्धि का प्रस्ताव रखा था। उसके बाद ‘आत्मप्रक्ष्यालन’ शब्द नेतरहाट विद्यालय में प्रचलित हो गया था।
लेकिन आज जो बात मुझे सबसे ज़्यादा याद आ रही है वह कुछ निजी अनुभव है। मैं इंटर फ़र्स्ट ईयर में था। अपने सेट को हमने सिल्ड दिलवाने के लिय बहुत प्रयास किया था। नाटक, ऐथलेटिक्स, खेल प्रतियोगिताओं आदि में हम लोग आगे चल रहे थे। आख़िरी में बचा फ़ुटबाल और वह दिन उसका आख़िरी दिन भी था और हमारा आख़िरी मैच था। हम आगे चल रहे थे। खेल ख़त्म होने में कुछ ही मिनट बचे थे। अचानक विरोधी टीम के एक खिलाड़ी ने जान बूझ कर हमारी टीम के गोलकीपर को ज़ोर से बूट मारा और चोट सीधे नाक पर लगी। गोलकीपर मेरा परम मित्र भी था। उसकी नाक टेढ़ी हो गई।हम लोग परेशान हो गए। जीत तो हम लोग गए लेकिन ख़ुशी से ज़्यादा ग़ुस्सा था।
विद्यालय प्रशासन ने विजय जुलूस निकालने से मना कर दिया था। हमारे कुछ वरीय छात्रों ने प्राचार्य से अनुरोध कर एक शांतिपूर्ण जुलूस निकालने की अनुमति प्राप्त कर ली। जब जुलूस उस आश्रम के पास पहुँचा, मुझे और मेरे कुछ साथियों का ग़ुस्सा क़ाबू में नहीं रहा। और हमने उस आश्रम और उसके कुछ छात्रों को ललकारा। अब याद तो नहीं है, लेकिन सम्भव है कुछ अपशब्द भी कहा हो।
अगले दिन तो हंगमा हो गया और उस आश्रम के आश्रमाध्यक्ष ने बेहद संगीन आरोप मेरे ऊपर लगाया। बताया गया कि मैंने साम्प्रदायिक गालियाँ दीं। ज्ञातव्य है कि विद्यालय में मुस्लिम छात्र बहुत कम थे और मेरे मित्र पर आघात करनेवाला और बाद में उसे चिढ़ानेवाला छात्र भी संयोग से मुस्लिम था। सांप्रदायिक बातें तो हमारे मन में उस समय आती भी नहीं थी। लेकिन शायद यह समझा गया कि ऐसा कहने से मुझे सबक़ सिखाना और दंड देना आसान होगा। दंड मिला और उससे मेरे अंदर प्रतिशोध की ज्वाला और भड़क गई।
मैं इस कहानी के विस्तार में नहीं जाना चाहता हूँ। केवल इतना बताना चाहता हूँ कि यह सच है कि उस उम्र में मुझे ग़ुस्सा बहुत आता था और ग़ुस्से में ऐसे कई काम करता था जो सही नहीं था। इस घटना के बाद भी मैं बदला लेने की बात सोच ही रहा कि अचानक एक दिन श्रीमान जी ने मुझे बुलाया। उन्होंने बहुत ही साफ़गोई के साथ मुझे कहा कि मेरा क्रोध मेरे लिय घातक हो सकता है। क्रोध पर एक संक्षिप्त भाषण के बाद उन्होंने मुझे गीता का एक श्लोक दिया, जिसमें क्रोध के अवगुणों का वर्णन था। उनका सुझाव था कि इस श्लोक का निरंतर अभ्यास करना चाहिय। इससे क्रोध के विकार से मुक्ति मिलना सम्भव हो पाएगा। पहले तो मुझे ग़ुस्सा ही आया कि उन्हें सम्पूर्ण सत्य मालूम नहीं था और मेरे हिसाब से मेरे साथ अन्याय हो रहा था। फिर काफ़ी सोचने के बाद मुझे उनकी बात सही लगी और मैं सचमुच नित्य उसका अभ्यास करने लगा। समय तो लगा लेकिन उस अभ्यास का बहुत प्रभाव पड़ा। ऐसा तो मैं नहीं कह सकता हूँ कि मैंने क्रोध पर विजय प्राप्त कर लिया है, लेकिन इतना तो ज़रूर है कि मेरे साथ व्यवहार करनेवाले लोग मानते हैं कि मुझे क्रोध बहुत कम आता है। अपने ऊपर सीधा प्रहार करनेवालों के साथ भी मैं शांति से काम ले पाता हूँ।
मेरे ख़याल से श्रीमान जी का यही काम शिक्षक होने का सही मतलब है। इंसान पुरुषार्थ और विकारों के बीच खेलता रहता है। विकार हमारे अंदर का दानवीय गुण है। शिक्षकों का काम केवल विद्यादान करना नहीं है बल्कि हमें अपने आदमीयत को विकसित करने में मदद करना भी है। मैं इसके लिए अभिमन्यु खाँ साहब का आभारी हूँ। उनके स्वर्गारोहण से हम सबलोग आहत हैं और कामना करते हैं कि शोक सन्तप्त परिवार को ईश्वर दुःख सहने की शक्ति प्रदान करे।
लेखक समाज शास्त्री और जेएनयू में प्राध्यापक हैं| +919968406430
करीब ढाई साल पहले डीडी बिहार ने उनका इंटरव्यू लिया था. आप नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करके उन्हें सुन सकते हैं.
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सबलोगFeb 13, 2020डोनेट करें
जब समाज चौतरफा संकट से घिरा है, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, मीडिया चैनलों की या तो बोलती बन्द है या वे सत्ता के स्वर से अपना सुर मिला रहे हैं। केन्द्रीय परिदृश्य से जनपक्षीय और ईमानदार पत्रकारिता लगभग अनुपस्थित है; ऐसे समय में ‘सबलोग’ देश के जागरूक पाठकों के लिए वैचारिक और बौद्धिक विकल्प के तौर पर मौजूद है।
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