पश्चिम बंगाल

अन्याय के खिलाफ प्रतिवाद की पुरजोर आवाज

 

अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की उम्मीद सब से की जाती है लेकिन प्रायः यह देखा जाता है कि आम भारतीय मध्यवर्गीय लोग किसी विवाद के डर से गलत बात का विरोध करने से डरते हैं, पर जब पानी सिर से ऊपर गुजर जाता है तो आम आदमी के अंदर वर्षों से दबा गुस्सा, आक्रोश ज्वालामुखी के लावे की तरह फूट कर बह निकलता है। आम तौर पर देश और समाज में घटने वाली ढेरों अमानवीय घटनाओं, भ्रष्टाचार, घोटालों आदि को सिर झुकाकर स्वीकार कर लेने वाली भारतीय जनता ने इस बार बड़े जोरदार तरीके से यह बता दिया है कि सहनशीलता की भी एक सीमा होती है। 

बंगाल में प्रशिक्षु डाक्टर के साथ घटी नृशंस घटना ने सिर्फ बंगाल को ही नहीं, पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है। आज भारत का आदमी इस घटना की भयावहता से स्तब्ध है। समाचार पत्रों में इसकी रोजना रिपोर्ट छप रही है और इसकी हर छोटी-बड़ी तफसील सोशल माध्यमों पर उपलब्ध है। हर कोई इसे अपने नजरिये से देखने और दिखाने की कोशिश कर रहा है। सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है कि इसके खिलाफ उठी प्रबल प्रतिवाद की लहर ने सत्ता के गलियारे में दहशत का माहौल बना दिया है। 

प्राथमिक तौर पर जिस घटना को आत्महत्या ठहरा कर अस्पताल प्रशासन ठंडे बस्ते में डाल देना चाहता था, उस मामले की सच्चाई की भनक जब आम जनता तक पहुँची तो विपक्ष के राजनीतिज्ञों के साथ आम जनता भी सचेत हो उठी। प्रशिक्षु डाक्टर के शोक संतप्त घरवाले जब अपनी बेटी की मौत से आहत थे तब अस्पताल प्रशासन ने इस मामले से पल्ला झाड़ने के लिए आनन फानन में मृत देह का पोस्टमार्टम करवा कर, अन्तिम क्रिया के लिए रवाना कर दिया।

शववाही गाड़ी जब पुलिस के पहरे में शेष कृत्य के जा रही थी तब सर्वप्रथम डी. वाइ. एफ. आई. की युवा नेता मीनाक्षी मुखर्जी ने अपने साथियों के साथ उस गाड़ी का घेराव किया, रोकने की भरपूर कोशिश की और इस संदिग्ध मृत्यु को लेकर सवाल उठाए। उस समय कुछ जूनियर डाक्टरों ने भी उनका साथ दिया। उसके बाद इस घटना की भनक मीडिया तक पहुंची और विभिन्न चैनल इस घटना को कवर करने के लिए सक्रिय हो उठे। इसके बाद की कहानी तो हर किसी को मालूम है। नौ अगस्त से ही प्रतिवाद की आवाज गूंजने लगी, जुलूस निकलने लगे। बंगाल के उम्रदराज लोगों को मैंने यह कहते हुए सुना कि इस तरह का प्रतिवाद हमने अपने जीवन में आज तक नहीं देखा।

 प्रथमदृष्टया बलात्कार नजर आनेवाली इस घटना को जब रेशा दर रेशा उधेड़ कर देखा गया तो लोग दहल उठे। सरकार और पूरे सरकारी अमले का बदसूरत चेहरा उधड़ पर सामने आने लगा। बहुत सारे तथ्य रोज दर रोज सामने आने लगे और उनके आलोक में जो सवाल उठे, वे बेहद गंभीर थे, मसलन- नृशंस मृत्यु को आत्महत्या साबित करने की कोशिश करना, आनन फानन में शव का पोस्टमार्टम उसी अस्पताल में करवाना, सदमे में डूबे शोक विह्वल माता पिता को मृत बिटिया के शव को ठीक से देखने तक न देना, पुलिस द्वारा ही शववाही गाड़ी का बन्दोबस्त करके झटपट दाह की व्यवस्था करना, गाड़ी का खर्च पुलिस द्वारा वहन किया जाना, जिस सेमिनार हाल में यह घटना घटी थी, वहाँ दूसरे ही दिन मरम्मत का काम करवाना, हत्या के तकरीबन चौदह घंटे के बाद अप्राकृतिक मृत्यु की रिपोर्ट दर्ज होना, सत्तापक्ष के कुछ लोगों द्वारा यह बेहूदा सवाल उछाला जाना कि वह इतनी रात को सेमिनार हाल में भला क्या करने गयी थी, तत्कालीन प्राचार्य संदीप घोष के आर. जी. कर. से इस्तीफा देने के तुरन्त बाद उन्हें दूसरे स्थान पर महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त करना, सबूतों के साथ छेडखानी कर मामले को दबाने की कोशिश करना आदि ऐसे बहुत से उदाहरण यह सिद्ध करते हैं कि यह सिर्फ एक प्रशिक्षु डाक्टर की दुष्कर्म के बाद नृशंस हत्या का मामला भर नहीं है बल्कि वर्षों से चले आते एक गहरे षड्यन्त्र का मामला है जिसमें मंत्री से लेकर संतरी तक सभी शामिल हैं।

जैसे ही मंत्रियों पर खतरा मंडराने लगता है, संजय राय जैसे किसी संतरी को आगे कर दिया जाता है। दुखद आश्चर्य की बात है कि संजय राय जैसा प्यादा बड़ी निर्लज्जता से अपना अपराध स्वीकार करते हुए यह कहता है कि उसे फाँसी की सजा मंजूर है। क्या उसे यह भरोसा है कि उसे हर हाल में बचा लिया जाएगा या फिर सरकारी न्यायालयों की कछुआ गति से वाकिफ वह इस बात को लेकर आशवस्त है कि या तो उसे माफी मिल जाएगी या जेल से भगा दिया जाएगा। 

इसी आपराधिक निर्लज्जता के कारण इस बार आम नागरिक का खून खौला है और इस मामले को वह आसानी से भुलाना नहीं चाहती। आठ अगस्त 2024 को घटी इस घटना के दूसरे ही दिन से प्रतिवाद की आवाज गूंजने लगी और रोज दर रोज उसकी तीव्रता बढ़ती ही जा रही है। आजादी की पूर्वसंध्या पर जब पूरा देश जश्न की तैयारी में डूबा होता है तब वाम राजनीति से जुड़ी एक महिला ने “रात दखल” करने का नारा दिया। निर्भया केस के दौरान यह सवाल बहुत से लोगों ने उठाया था कि वह इतनी रात को बाहर क्या कर रही थी। लड़कियों के लिए चाहे घर हो या होस्टल रात का कर्फ्यू होता है। सवाल यह है कि लड़कियों पर कर्फ्यू लगाने की जगह हम समाज को सभ्य, सुशिक्षित और सुरक्षित क्यों नहीं बना सकते। इसी कारण 14 अगस्त को स्त्रियों द्वारा रात पर कब्जा करने का यह नारा मानीखेज था। फेमिनिस्ट आन्दोलन के दौरान ‘रात को वापस लो’ (take back the night) का नारा गूंजा था। “रात्रि दखल” का यह आन्दोलन उसी का उत्तरआधुनिक संस्करण है। हजारों लाखों की संख्या में बंगाल के विभिन्न हिस्सों में हर उम्र और वर्ग की महिलाओं ने सड़कों पर उतर कर यह साबित कर दिया कि अब इस तरह के जुल्म को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।

बहुत से विद्यालयों, महाविद्यालयों के शिक्षकों, नाट्य कर्मियों, सिने सितारों आदि ने जमीनी स्तर पर इस आन्दोलन को अपना समर्थन दिया। जिन संस्थानों में सत्ता पक्ष के लोग सक्रिय भूमिकाओं और महत्वपूर्ण पदों पर थे, वहाँ के लोगों को ऐसे जुलूसों में जाने से, आन्दोलन में शामिल होने से रोका गया लेकिन लोगो के मन की धधकती हुई आक्रोश की आग को इतनी आसानी से शांत नहीं किया जा सकता। इस दौरान कही शांतिपूर्ण जुलूस निकाले गये तो कहीं जोशभरे अर्थपूर्ण नारे लगाए गए। इन नारों के शब्दों ने आम आदमी के मन को आन्दोलित कर दिया। कुछ उदाहरण देखिए- “बैठ कर देखने से कुछ नहीं होगा, रास्ते पर उतरना होगा”, “डाक्टर बिटिया का रक्त, कभी नहीं होगा व्यर्थ”, “चूड़ी पहन के हल्ला बोल” आदि। सरकार द्वारा दिए जाने वाले जुर्माने की पेशकश का जवाब इस तरह दिया गया- “दस लाख ले जाओ, बिटिया हमारी दे जाओ”। सड़क जाम या जुलूसों के कारण साधारण लोगों को असुविधा भी हो रही है लेकिन उनका कहना है कि, “एटार दरकार छिल, आर कत सह्य करबो” (इसकी जरूरत थी और कितना बर्दाश्त करेंगे)। 

एक घटना साझा करना चाहूंगी। 31 अगस्त को शिक्षकों की एक संस्था ने कालेज स्ट्रीट में शाम को साढ़े चार बजे आक्रोश सभा की घोषणा की थी। उस दिन आसमान टूट कर बरस रहा था मानो उसे किसी ने आन्दोलन को विफल करने के षड्यन्त्र में शामिल कर लिया हो। मैं और मित्र अरुन्धती कालेज स्ट्रीट के लिए निकले। सारी सड़कें पानी में डूबी हुई थीं। वाहन बस सरक रहे थे। हमने सूर्यसेन स्ट्रीट से होकर पैदल कलकत्ता विश्वविद्यालय तक पहुंचने का निर्णय लिया लेकिन घुटनों तक जमा पानी देखकर वापस आ गए। एक चाय की गुमटी पर हम चाय पी रहे थे कि दो महिलाओं ने सामने वाली गली की ओर संकेत करते हुए पूछा कि “क्या यहाँ से विश्वविद्यालय की ओर जाया जा सकता है? “मैंने कहा-मत जाइए, बहुत पानी है। हम आधे रास्ते से लौट आए हैं।” उन्होंने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा, “ना, हम जाएंगे। हम कल्याणी से आ रहे हैं” और आगे बढ़ गई। 

यह वह जज्बा है जिसके बलबूते सरकार द्वारा दी जानेवाली तमाम चेतावनियों के बावजूद यह आन्दोलन एक महीने के बाद भी न्याय की आस में जारी है। आज 14 सितम्बर को जब मैं यह लेख लिख रही हूँ, इस आन्दोलन का पैंतीसवां दिन है। आज भी कोलकाता में बारिश हो रही है लेकिन उसकी परवाह किए बिना लोग न्याय की तलाश में सड़कों पर उतर आए हैं, कनिष्ठ चिकित्सकों के समर्थन में स्वास्थ्य भवन तक जा रहे हैं और फिर से रात पर कब्जा करने का संकल्प लिया गया है और सबके होठों पर एक ही आवाज़ है, “तिलोत्तमा (अभया) को न्याय दो” या “जस्टिस फार आर. जी. कर”। जनता ने साबित कर दिया है कि “वह न तो मूक है न निर्जीव”। अब सरकार को खुद को साबित करना है

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गीता दुबे

लेखिका स्कॉटिश चर्च कॉलेज, कोलकाता में एसोसिएट प्रोफ़ेसर (हिन्दी विभाग) हैं। सम्पर्क +919883224359, dugeeta@gmail.com
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