अब वर्तमान को भूल जाएँ!
पहले एक कहावत थी “वर्तमान अतीत की ओर देखता है”, जैसे कि कभी-कभी लोग अब भी कह बैठते हैं कि इससे तो अच्छे अँग्रेज थे। अब वह बात नहीं रही। अब भला हो, कोरोना वायरस का! लोग अतीत की ओर नहीं भविष्य की ओर देखेंगे। अब हम ‘सामान्य’ की ओर नहीं लौट सकेंगे। काम के सम्बन्ध में हमारी अब तक की प्यारी धारणा का अब कोई अर्थ नहीं रह गया है। भविष्य अब उन लोगों का है जो जीवन की कला समझते हैं।
आजकल लोग जो घंटों दिन भर घर में काम करते रहते हैं, वे अभी भी किसी-न-किसी रूप में ‘उत्पादक’ हैं। अतः अब उन्हें रोज आफिस जाने की आवश्यकता नहीं रहेगी। हमारे नेताओं द्वारा लोगों को इस प्रकार भयावह रूप से ‘बचकाना’ बना देना उनके दिमाग की उपज है। अब सब-कुछ बदल गया है और अब हमें नए ‘सामान्य’ के लिए अपने को तैयार रखना चाहिए। लाक-डाउन जल्दी समाप्त होने वाला नहीं है और जब तक समाप्त होगा तब तक लोग घर में काम करने के इतने अभ्यस्त हो जाएँगे कि आफिस जाने से घबड़ाने लगेंगे। अब चुनने के लिए प्रश्न यह नहीं है कि लोगों को बचाना है या अर्थव्यवस्था को, क्योंकि दोनों आपस में गुँथे हुए हैं।
अब हम पीछे नहीं लौट सकते यानी कोरोना के पहले की स्थिति में। कुछ लोग यह पहले दिन से ही जान गये थे, अन्य लोग अभी भी इसे ‘नकारने’ की स्थिति में हैं। अब यह सोचना गलत नहीं होगा कि हमारे रहने/सहने के ढंग में जल्दी ही बदलाव, बहुत बड़ा बदलाव होने वाला है। एक बदलाव जो काफी समय से प्रसुप्त रहा है। सम्पन्न देशों में रहने वाले लोग अभी भी जलवायु परिवर्तन और भविष्य में उसके होने वाले प्रभाव की ही बात कर रहे हैं, लेकिन अब उनका पैसा उन्हें बचा नहीं पाएगा। शायद उनकी सुभेद्यता, लेकिन उसके लिए विनम्रता चाहिए। कुछ समय पहले फ्रांस के राष्ट्रपति मेकरान ने इस खतरे की आशंका व्यक्त कर दी थी जब उन्होंने कहा था – यह आराम से बैठ कर आदर्शवाद की बात करने का समय नहीं है।
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अब हमें लीक से हट कर चलना है, अपने आपको बदलना है, जीवन के/रहने के नए रास्ते खोजना है। नये रूप में रहने के कुछ रास्ते तो दिखाई पड़ने लगे हैं, लेकिन इस बात को लेकर काफी विरोध है कि वे स्थायी हैं। हम रोज देखते हैं कि कोविड 19 ने किस प्रकार असमता, लिंग, वर्ण, प्रजातीय आधार, वर्ग आदि का भेद ‘स्पष्ट’ कर दिया है, पर अब हम कुछ नए ‘भाग’ भी देखते हैं। एक तो वे लोग हैं जो घर से काम कर सकते हैं और दूसरे जो नहीं, जैसे सर्जन और नाई। एक ओर तो वे लोग हैं जो अपनी ही दुनिया में अभिमुग्ध हैं, अपने आपको तसल्ली देते हैं अपनी सीमित आमदनी से भी और दूसरी ओर वे लोग हैं जो अकेले हैं पूरी तरह निष्प्रयोजन।
बहुत से युवाओं में अपने को बदलने के,नए ढंग से जीने/रहने के लक्षण दिखाई देने लगे हैं और वे अविश्वसनीय रूप से नई परिस्थितियों में अपने को ढाल रहे हैं और छोटे व्यापारियों/दूकानदारों में भी जिन्होंने जल्दी ही जहां जैसी स्थिति में थे वहीं ठीक से ‘सेटिल’ हो गये हैं। बड़े प्रतिष्ठानो में अनम्यता देखी जा रही है, सरकारी कार्यालयों और सांस्कृतिक केन्द्रों में भी। यहाँ थोड़ी दक्षता भी है इस आशा से कि जल्दी ही पिछली ‘सामान्य’ स्थित में पहुँच जाएँगे।
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अधिकांश लोग खुशी से काम कर रहे हैं यद्यपि उनके लिए जीवन का कोई अर्थ नहीं रह गया है। कुछ लोग अभी भी देर-देर तक/ओवरटाइम काम कर रहे हैं जबकि एक समाज के रूप में हम बेरोजगारी की ओर बढ़ते जा रहे हैं। जो कुछ भी हो, जो लोग घरों में रहते हुए सनसनाते हुए काम कर रहे हैं वे अभी भी किसी-न-किसी रूप में ‘उत्पादक’ तो हैं ही, अतः उन्हें अब कभी आफिस जाने की आवश्यकता नहीं होगी। काफी अनावश्यक आवाजाही अब रुक जाएगी, लोगों को मानना पड़ेगा कि पहले वे घर से ‘भागने’ के लिए ही बाहर काम करने जाते थे। इसमें कुछ भी गलत नहीं है , लेकिन अपने को अब बदलने के लिए कुछ ईमानदारी की आवश्यकता तो होगी ही।
निश्चित ही इस संकट की सबसे कठिन बात यह है कि हमने अपने काम करने के लिए जो कुछ चुना है उसी में खुश रहना है चाहे हम अकेले हों या परिवार में पत्नी और बच्चे हों या नहीं। अगर हम कम काम करते हैं तो कम उपभोग करेंगे और यह तो हम बहुत पहले से , जलवायु संकट के समय से ही, देख रहे हैं। क्या हमें ये सब चाहिए? इतने सारे कपड़े! इतने सारे जूते! टी वी पर तरह-तरह के प्रोग्राम कि क्या और कैसे बनाएँ/खाएँ! कितने प्रकार के चश्मे पहने! फिल्म स्टार और माडल बतलाएँ कि हम क्या और कैसे पहनें! अमीरों की लाइफ स्टाइल की नकल करने की कोशिश करते रहें! नहीं, नहीं!
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हमें छोटे-छोटे सप्लायर चाहिए। हमें लोगों से मेल-जोल चाहिए। नूक्लियर फेमीली की अवधारणा हमें बदलना होगी, क्योंकि वह हमारे नए जीवन में फिट नहीं होगी। हमें बहुत पहले से पता चल गया था, एक प्रकार से चेतावनी दे दी गयी थी कि आधे से अधिक लोगों का काम छूट जाएगा। वह भविष्य अब आ गया है। यह निश्चय ही कठिन समय होगा। महामारियाँ कुछ लोगों को जल्दी मारती हैं लेकिन अन्यों को धीरे-धीरे, गरीबी के कारण।
शायद हमें गाइड करने के लिए 1930 में जान मेनार्ड कीन्स ने ‘एक आर्थिक’ स्थिति से दूसरी स्थिति में बदलने के दर्द में पुनर्स्थापन’ के विषय में लिखा था। यह वही ‘लकवा’ की स्थिति है जिससे हम पिछले कुछ वर्षों से गुजर रहे हैं। नवप्रवर्तन बहुत मुश्किल से आता है।
हो सकता है कि यह सब सोचने/समझने की अभी बहुत जल्दी है। हमारी सरकार इस ‘तथ्य’ को नहीं बदल सकती कि निकट भविष्य में हम एक पार्टी की सरकार से रूबरू होंगे, अतः हमारा सामाजिक पुनर्जन्म नीचे से होना चाहिए, ऊपर से नीचे नहीं। पिछला जीवन क्रिया-कलाप और गतिविधियों से भरा रहा है। अब वह सब करीब-करीब समाप्त हो गया है। अब भविष्य उन लोगों का है जोजीवन की कलाएँ समझते हैं । यह बहुत बड़ा काम है ‘चक्र को पीछे की ओर घुमाना’ लेकिन अब वह समय आ गया है।