सामयिक

कोरोना संकट और सामाजिक उत्तरदायित्व

 

प्रोफेसर मार्शल मैक्लुहान की ‘ग्लोबल विलेज’ (वैश्विक गाँव) शब्द की अवधारणा को अगर इस वैश्विक महामारी और उसकी संक्रामकता के परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह स्पष्ट है कि अगर इस गाँव का एक कोना किसी संक्रामक बीमारी से ग्रसित होता है तो इससे पूरे गाँव का प्रभावित होना स्वाभाविक है।

आज पूरी दुनिया एक वैश्विक महामारी (कोरोना) की चपेट में है। चीन से उपजी समस्या ने अब तक विश्व के लाखों लोगों को अपनी गिरफ़्त में ले लिया है। अपनी क्षमताओं के उच्च शिखर पर आसीन हो चुका मनुष्य जब तक कुछ कर पाने की स्थिति में होगा तब तक यह बीमारी न जाने कितनों को निगल चुकी होगी।

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आज पृथ्वी पर वैश्विक आबादी का बढ़ता बोझ अतिरिक्त भार के रूप में परिलक्षित हो रहा है। वर्तमान समय में विश्व की कुल जनसंख्या 7.7 बिलियन है। जनगणना 2011 के अनुसार भारत की कुल आबादी 121 करोड़ थी। जनसंख्या नीति 2011 के अनुसार भारत की जनसंख्या वर्ष 2045 में स्थिर होगी। अर्थात जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि शून्य होगी। परन्तु एक नये अनुमान के मुताबिक भारत की जनसंख्या जहाँ 2045 में स्थिर होने वाली थी अब यह समय बढ़कर वर्ष 2070 हो गया है।  ऐसा माना जा रहा है कि समय रहते यदि जलवायु परिवर्तन और बढ़ते प्रदूषण से निपटने का तन्त्र विकसित नहीं किया गया तो भविष्य में इसके भयावह परिणाम भुगतने होंगे।

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चूँकि यह समस्या (बढ़ती आबादी) मानव जनित है तो मानव ने इसे एक समस्या के रूप में न लेकर ‘मानव संसाधन’ की संज्ञा दे दी है। मानव की पृथ्वी पर बढ़ती छाप जिसे हम ‘पारिस्थितिकी पदचिह्न’ (Ecological footprint) का नाम देते हैं, जिसके अनुसार यह अनुमान लगाया जाता है कि अगर प्रत्येक व्यक्ति एक निश्चित जीवनशैली का अनुसरण करे तो एक अनुमान के मुताबिक वर्तमान वैश्विक जनसंख्या के लिए तीन पृथ्वी की आवश्यकता है। बढ़ती आबादी, अन्धाधुँध नगरीकरण और मानव के अन्तहीन स्वार्थ के चलते पर्यावरण और भी दूषित हो चला है जो आज पनपी तमाम बीमारियों का एक प्रमुख कारण है।

यह कोरोना महामारी भी उसी प्रदूषण का नतीजा है। कोरोना को संयुक्त राष्ट्र संघ ने महामारी घोषित कर दिया है अर्थात अब यह एक ‘अन्तर्द्विपीय बीमारी’ बन गयी है। विश्व में इस बीमारी से अब तक दो लाख से अधिक लोगों की मृत्यु हो चुकी है। यह संख्या दिनोदिन बढ़ती ही जा रही है।

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महामारी की इस घड़ी में हम आपातकालीन स्थिति से गुजर रहे हैं। हम अपने ही घरों में कैद होकर इस अदृश्य बीमारी से लड़ रहे हैं। साथ ही इस बीमारी से बचाव हेतु ‘सामाजिक दूरी’ अर्थात ‘सोशल डिस्टेन्सिंग’ की बात की जा रही है। कोरोना महामारी की संक्रामकता के चलते इसे एक निश्चित भेदभाव की जरुरत के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। अतः इसे ‘फिजिकल डिस्टेन्सिंग’ अर्थात ‘भौतिक दूरी’ कहना ज्यादा उचित होगा। हालाँकि ‘भौतिक दूरी’ हो या ‘सामाजिक दूरी’ यह एक जाति या समुदाय की दूसरे जाति या समुदाय के प्रति घृणा और नकारात्मकता को प्रदर्शित करता है। इसको भारतीय समाज में जाति के आवश्यक तत्व के रूप में व्याप्त छुआछूत, खान-पान, हुक्का-पानी (उच्च जाति की निम्न जाति से एक दूरी) और ग्रामीण घरों की बसावट में देखा जा सकता है।

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अगर हम इस महामारी से उपजे भारतीय सामाजिक व्यवस्था और उसकी परिस्थिति का अवलोकन करें तो पाते हैं कि इस समय पूरा देश ‘होम क्वारंटीन’ में तब्दील हो गया है और हम सभी एक सामान्य सी संस्कृति ‘लॉक-डाउन’ का अनुपालन करने को विवश हैं। जबकि हमें यह अच्छी तरह ज्ञात है कि भारत जैसे विषमता वाले देश में सभी वर्गों की स्थितियाँ एक जैसी नहीं है। आर्थिक विन्यासीकरण के स्तर पर यह देश उच्च, निम्न और मध्यम श्रेणी में विभक्त है जिसमें एक बहुत ही बड़ी आबादी निम्न श्रेणी की है, जो अपनी जीविका के लिए प्रत्यक्ष रूप से दूसरों अर्थात मध्यम और उच्च वर्ग पर निर्भर है।

ऐसे में जब उच्च और कुछ हद तक मध्यम वर्ग को केवल महामारी से बचने की चिन्ता है तो वहीं निम्न वर्गों के पास महामारी और भुखमरी दोनों से बचने का संकट। कामकाज पूरी तरह ठप्प हो जाने और सड़कों पर निकलने की मनाही ने उनके जीवन संघर्ष को और अधिक बढ़ा दिया है।

दूसरी तरफ अपने-अपने घरों में कैद लोग ‘स्वयं के प्रति अलगाव’ की ज़िन्दगी जीने को विवश हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्ति पूर्ण रूप से न तो राजनीतिक भागीदारी कर पाता है, न ही स्वतन्त्र रूप से सोच पाता है। व्यक्ति की बाधक स्वतन्त्रता उसके आर्थिक, राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक विकास को क्षीण करती है। वित्त वर्ष 2017-18 में रोजगार के लिए तैयार प्रत्येक 100 व्यक्ति में से 6.1 व्यक्ति बेरोजगार रहे। वर्ष 2019 में जारी आंकड़ों के मुताबिक बेरोजगारी का यह आंकड़ा 45 वर्षों में सबसे ज्यादा है तथा पूरे देश में पुरूषों की बेरोजगारी दर 6.2% जबकि महिलाओं के मामले में 5.7% रही। ऐसी स्थिति में इस बीमारी से निपटने के लिए सिवाय ‘लॉक-डाउन’ के सरकार के पास कोई ठोस योजना नहीं है।

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यह महामारी आने वाले दिनों में एक बहुस्तरीय समस्या को जन्म देनेवाला साबित होगा जो सामाजिक बहिष्करण, लिंचिंग, कलंक (नस्लीय टिप्पणी जैसे चिंकी, चीनी, जमाती इत्यादि), विस्थापन, बेरोजगारी, भुखमरी, कुपोषण, शोषण, ऋणग्रस्तता, छुआछूत इत्यादि कुव्यवास्थाओं को जन्म देगी। आंकड़ो पर गौर करें तो यूनिसेफ 2019 की रिपोर्ट बताती है कि भारत में हर दूसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है। संयुक्त राष्ट्र के लक्ष्य के अनुसार जिसमें भारत भी सम्मिलित है, दुनिया को 2030 तक भुखमरी से मुक्ति दिलाने का संकल्प लिया गया है। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु भारत को अपनी वर्तमान दर से दोगुनी गति से प्रयास करना होगा, जो कि कठिन दिखाई पड़ता है।workers

देखा जाय तो विगत कुछ वर्षों में देश के आर्थिक प्रगति करने के बावजूद भी ग्रामीण और मजदूर वर्ग की आय लगभग एक ही रही है। अतः हम कह सकते है कि वंचित लोगों को इसके लाभों के पुनर्वितरण के बिना आर्थिक विकास व्यर्थ है। महामारी के इस दौर में अपने ही देश के अन्दर यह कड़वा विरोधाभास दिखाई पड़ता है। शहरों से बेघर गरीब प्रवासियों को अपने घरों तक पहुँचने में सैकड़ों मील पैदल चलना पड़ रहा है वहीं सुविधाभोगी आर्थिक रूप से सम्पन्न अमीर वर्ग को सरकार हवाई यात्रा और अन्य सुविधाओं द्वारा उनको सुरक्षित उनके घर पहुँचा रही है जबकि यह ज्ञात है कि यह बीमारी भारत में बाहर से आयातित है।

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महामारी की इस भयावहता के बीच मदद के लिए सिर्फ सरकारी तन्त्र का सक्रिय रहना इस बात पर जोर देने लगा है कि निजीकरण सिर्फ स्वार्थगत हित को साधता है न कि सामूहिक हित को। ऐसे में जब सभी निजी संस्थागत हॉस्पिटल अपनी दुकान बन्द कर स्वयं को लॉक डाउन कर लिया है, आज हमारे डाक्टर, नर्स एवं समस्त स्वास्थ्यकर्मी, पुलिस, सेना के जवान से लेकर अन्य सरकारी तन्त्र अपने जान की बाज़ी लगाकर देश-सेवा में तत्पर हैं। यहाँ तक कि सरकारी स्कूल, कॉलेज ही नही बल्कि रेल के डिब्बे भी आइसोलेशन वार्ड में तब्दील हो गये हैं। निजीकरण को सही ठहराने वालों के लिए भी यह सोचने पर विवश करने करने वाला समय है। आज जरुरत है सभी संस्थाओं के राष्ट्रीयकरण की जो (चुनाव, जनगणना) और आपदा के समय हमेशा तत्पर रहती हैं।

अन्ततः वर्त्तमान स्थिति को देखते हुए एक बात तो साफ़ है कि जब तक हर नागरिक को चिकित्सा सुविधा नहीं मिलेगी तब तक हम इस तरह की बीमारियों से खुलकर सामना नहीं कर पाएँगे। ज्ञात हो कि वर्तमान में भारत अपनी कुल जीडीपी का मात्र 1.4 प्रतिशत ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है जबकि वैश्विक स्तर पर इसे 6 प्रतिशत माना गया है। देश को अपनी मुलभूत आवश्यकताएँ और प्राथमिकताएँ तय करनी होंगी। देश तभी तरक्की के रास्ते पर चल पायेगा जब हमारी आने वाली पीढ़ियाँ स्वस्थ एवं सक्षम होंगी।

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ऐसी समस्याओं से निजात पाने के लिए सिर्फ योजनाएँ बनाना पर्याप्त नहीं होता, बल्कि इन योजनाओं को लागू करने के लिए गम्भीर प्रयासों की भी जरूरत होगी। हम अभी तक शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे आधारभूत क्षेत्रों में कुछ संतोषजनक काम नहीं कर पाए हैं तो जाहिर है, यह हमारे तन्त्र की विफलता का सूचक है। अतः सबसे पहले उस तन्त्र को भी दुरुस्त करना होगा जिस पर ऐसे वृहद और बेहद बुनियादी लक्ष्यों को हासिल करने की जिम्मेदारी है।

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घनश्याम कुशवाहा

लेखक पंडित दीनदयाल उपाध्याय राजकीय बालिका महाविद्यालय सेवापुरी, वाराणसी में सहायक प्राध्यापक हैं। सम्पर्क +919984671213, ghanshyamjnu@gmail.com
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