भारतीय उच्च शिक्षा आयोग ने अपनी स्थापना की घोषणा 27 जून 2018 के साथ ही उच्च-शिक्षा जगत में एक नई बहस को जन्म दिया है, इस बहस के मूल में दो बड़े सवाल स्पष्ट रूप से नजर आ रहे है, प्रथम 1950 से लेकर वर्तमान तक उच्च शिक्षा को सुझाव देने वाली संस्था विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) को समाप्त करने के क्या कारण हो सकते है? द्वितीय क्या भारतीय उच्च शिक्षा आयोग की स्थापना उच्च शिक्षा के समक्ष आ रही चुनौतियों एवं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की असफलताओं के समाधान के रूप में की गई है? इन दोनों बिन्दुओं के इर्द-गिर्द कई अन्य सवाल भी उठने लगे है व उठने वाले सवालों की प्रासंगिकता इसलिए भी बढ़ जाती है क्योंकि जिस तरह की समाजिक संरचना हमारे देश में है जिसमे किसान,महिला,आदिवासी,दलित,पिछड़ा वर्ग व करोड़ों शिक्षा रोजगार से वंचित युवाओं की फौज है ऐसे में यह कदम न केवल सामाजिक पूंजी नष्ट कर रहा है अपितु भारतीय उपमहाद्वीप में सैकड़ों वर्षों से चली आ रही सांझी संस्कृति के विरोध में खड़ा नजर आ रहा है।
पंडित मदन मोहन मालवीय द्वारा 1903 में मद्रास में दिए गए भाषण एवं यूजीसी एक्ट 1956 से शिक्षा के प्रति समाज एवं राज्य की सोच स्पष्ट नजर आती है| पंडित मदन मोहन मालवीय ने लार्ड कर्जन के ‘यूनिवर्सिटीज-बिल’ का विरोध् करते हुए कहा था कि विश्वविद्यालय को सरकारी विभाग के रूप में नहीं चलाया जा सकता तथा विश्वविधालयों की गतिविधियों को सरकारी हस्तक्षेप से बाहर रखने के लिए संघर्ष करते रहना होगा।जहाँ एक तरफ पंडित मदन मोहन मालवीय के इस कथन से शिक्षा के प्रति भारतीय समाज की सोच स्पष्ट रूप से नजर आती है, वही दूसरी तरफ आजादी के बाद राज्य द्वारा पारित यूजीसी एक्ट 1956से भी शिक्षा के प्रति राज्य की यही समझ स्पष्ट होती हैं।देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 1952 में यह निर्णय लिया कि विश्वविद्यालयों को सीधे सरकार द्वारा अनुदान नहीं देना चाहिए क्योंकि इससे विश्वविद्यालयों में सरकारी हस्तक्षेप बढ़ता है। अतः यूजीसी की स्थापना एक ऐसी संस्था के रूप में की गई जो सरकार से अनुदान लेकर विश्वविद्यालयों को न केवल अनुदान देगी बल्कि उच्च शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए राय भी देती रहेगी।
यूजीसी की स्थापना में सरकार की बजाय शिक्षा एवं समाज की हिस्सेदारी इस सन्दर्भ में स्पष्ट होती है कि इस संस्था में चेयरमैन एवं वाइस चेयरमैन के अलावा जिन 10 लोगों को सदस्यता का प्रावधन किया गया था उसमें 10 में से केवल 2 ही सदस्य सरकार के प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार्य थे, अन्य 8 सदस्यों में कम से कम 2 सदस्य प्रतिष्ठित विद्वान की श्रेणी से थे तथा अन्य 6 सदस्य विश्वविद्यालयों के शिक्षक के रूप में स्वीकार्य थे।यह व्यवस्था दर्शाती है कि यूजीसी की स्थापना एक ऐसी संस्था के रूप् में की गई थी जिसकी कार्य प्रणाली शिक्षक एवं समाज के प्रतिष्ठित विद्वानों द्वारा संचालित थी। यूजीसी एक्ट 1956 के भाग 3 के अनुच्छेद 12 में यह स्पष्ट कहा गया है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग विश्वविद्यालयों के साथ संवाद के माध्यम से शिक्षा को बेहतर बनाने का प्रयास करेगा तथा आयोग को निधि देने का कार्य केन्द्र सरकार करेगी। अनुच्छेद 12 के उप-भाग डी में विश्वविद्यालय में शिक्षा सुधार के सन्दर्भ में आयोग की भूमिका केवल सुझाव देने वाली संस्था के रूप में तय की गई, हालांकि यूजीसी से भी विश्वविद्यालय शिक्षक- छात्रों को लगातार समस्याएं रही है| किन्तु इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि यूजीसी के माध्यम से उच्च शिक्षा के चरित्र को पब्लिक फंडेड एवं राजनीतिक हस्तक्षेप से परे रखने में सफलता मिली है।
यूजीसी को समाप्त कर वर्तमान सरकार भारतीय उच्च शिक्षा आयोग की स्थापना करना चाह रही है तथा इसके बिल के ड्राफ्ट का अध्ययन करने पर यह नजर आता है कि सरकार शिक्षा को पब्लिक फण्डिड की बजाय बाजार केन्द्रित और शिक्षा में सरकारी हस्तक्षेप के रास्ते खोलना चाहती है|भारतीय उच्च शिक्षा आयोग में वाइस चेयरमैन के अलावा 12 सदस्यों की व्यवस्था की गई है तथा 12 में से केवल 2 लोग ही शिक्षक के रूप में स्वीकार्य किये गए है। अन्य 10 सदस्यों में 3 सदस्य नौकरशाही क्षेत्र से, 4 सदस्य शिक्षण संस्थाओं के चेयरपर्सन 2 सदस्य वाइस चांसलर तथा 1 सदस्य उद्योग जगत से सम्मिलित किये गए है।इस संरचना से स्पष्ट होता है कि सरकार उच्च शिक्षा आयोग के माध्यम से भारत में शिक्षा का निर्णय नौकरशाह, प्रशासक एवं उद्योगपतियों के हाथों में सौपना चाहती है। यहां यह बात गौर तलब है कि उच्च आयोग के अनुच्छेद 21एवं 22 में सरकार द्वारा अनुदान देने की बात नहीं की गई है, तब प्रश्न उठता है कि विश्वविद्यालयों को फण्ड कहाँ से मिलेगा? इस बिल के अनुच्छेद 24 को अध्ययन करने पर यह स्पष्ट होता है कि परामर्श परिषद के नाम पर, जिसके चेयरमैन मानव संसाधन मंत्री होगे, उच्च शिक्षा आयोग की पूरी कार्य प्रणाली को मंत्रालय के अधीन कर दिया गया है। इस आयोग में अधिकारों का वर्णन अनुच्छेद 15 में किया गया है तथा यह अनुच्छेद स्पष्ट करता है कि इस आयोग की भूमिका विश्वविद्यालयों को सुझाव देने की बजाय निर्देश देने की है इसके अलावा शिक्षकों को कार्यानुसार वेतन, विश्वविद्यालयों में हर स्तर पर प्रशासन के नियम तय करना शिक्षण संस्थाओं को बंद करना इत्यादि प्रावधानों को पढ़ने से इस आयोग की छवि लार्ड कर्जन के बिल में प्रस्तावित शिक्षा व्यवस्था से अभिप्रेरित स्पष्ट रूप से नजर आती है। इसके अलावा इस बिल की छवि वर्ष2003 में आने वाली बिरला-अम्बानी रिपोर्ट में भी देखी जा सकती है। हालाकि बिरला-अंबानी रिपोर्ट में राजनीतिक हस्तक्षेप की बजाय सम्पूर्ण उच्च शिक्षा व्यवस्था के बाजारीकरण के स्पष्ट प्रावधान किए गए थे।
सवाल यह है क्या उच्च शिक्षा आयोग बिल में उच्च शिक्षा के समक्ष चुनौतियों के समाधान की व्यवस्था की गई है? आल इण्डिया सर्वे आफ हायर एजूकेशन की रिपोर्ट यह बाताती है कि भारत में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के इच्छुक युवाओं की आबादी है 14.16 करोड़ लेकिन वास्तविक रूप से उच्च शिक्षा पाने वाले युवकों की आबादी केवल 3.7 करोड है अर्थात लगभग 11 करोड़ युवाओं को आज भी शिक्षा नहीं मिल पा रही है। उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले युवाओं की कुल संख्या का केवल 0.4 प्रतिशत (1.41037 है) पीएचडी में दाखिला ले पा रहा है। इसी प्रकार महिला, अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग,अल्पसंख्यक इत्यादि वंचित वर्ग वर्तमान शैक्षिक परिवेश में तो हाशिये पर खड़ा है इससे स्पष्ट होता है कि उच्च शिक्षा के सामने सबसे बड़ी चुनौती है सबको शिक्षा के अवसर किस तरह प्रदान किये जाये? और इसका एक रास्ता अधिक से अधिक पब्लिक फंडेड उच्च शिक्षा संस्थान स्थापित करके किया जाए लेकिन उच्च शिक्षा आयोग के माध्यम से शिक्षा के जिस मॉडल को सुझाया गया है उसमे पब्लिक फंडेड शिक्षा को तो पूरी तरह समाप्त करने का प्रावधान कर दिया गया है| भारत में उच्च शिक्षा की यह दुर्दशा केवल केन्द्रीय सरकार के स्तर पर ही नही है बल्कि देश की राजधानी दिल्ली में 1950 में 9 लाख की आबादी से लेकर वर्ष 2018 में 2 करोड़ की आबादी तक, में भी पब्लिक फंडेड शिक्षण संस्थाओ का विस्तार नही देखा गया है| उदाहरणार्थ वर्ष 2013 में 11 विश्वविद्यालय थे तथा राज्य सरकार ने कोई नया विश्वविद्यालय नहीं बनाया| हालाँकि दिल्ली के सरकारी स्कूलों की कक्षाओं में कैमरे लगाकर शिक्षा का समाधान ढूंढ रही है जबकि जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में 13 जुलाई को विद्वत परिषद में शिक्षकों के लिए बायोमेट्रिक उपस्थिति का नियम पास करके शिक्षा को बेहतर(?) बनाने का प्रयास किया जा रहा है|
इन सब परिवर्तनों के बीच भारतीय समाज में युवाओ के सन्दर्भ में जो नई प्रवृति देखने को मिल रही है उसमे हिंसा, बेरोजगारी, तनाव, असंवेदनशीलता, आत्मकेंद्रित होना इत्यादि शामिल है| यदि जेंडर संदर्भ में बात करे तो स्पष्ट होता है कि चाहे युवा या युवा अवस्था को पार करने वाले पुरुष जिस तरह के जघन्य अपराध महिलाओं पर कर रहे है क्या इन सबके कारण शिक्षा व्यवस्था की संरचना से नहीं जुड़े हुए है? राजस्थान, महाराष्ट्र, असम इत्यादि राज्यों में किसी भी कारण से भीड़ द्वारा खुलेआम लोगो की हत्या और उस पर समाज की चुप्पी या केन्द्रीय मंत्री जयंत सिन्हा द्वारा अपराधिक व्यक्तियों के साथ फोटो खिचवाना क्या समाज के स्वभाव में मानवतावादी संस्कृति के बजाय बहिष्कार एवम् विभाजन केन्द्रित संस्कृति अपनी जड तो नही जमा रही है? भारत की भूमि में ही महात्मा गांधी ने जन्म लिया जिन्होंने सांझी संस्कृति को बचाने के लिए अपनी जान भी कुर्बान कर दी और आज भारतीय समाज ही ऐसे युवाओं को देख रहा है जो मानवता के विरुद्ग जाने में किसी भी हद का परहेज नही करता है| क्या यह मुद्दे शिक्षा की संरचना से नहीं जुड़े हुए है? क्या यह सब मुद्दे उच्च शिक्षा आयोग का निर्माण करते हुए नहीं सोचे जाने चाहिए थे? लेकिन उच्च शिक्षा आयोग की स्थापना से उच्च शिक्षा के समक्ष उत्पन्न समस्या का समाधान तो होता नहीं दिख रहा है बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि इस आयोग की स्थापना से ऊपर वर्णित समस्याएं बढ़े तो आश्चर्य नहीं होगा |
सुरेन्द्र कुमार
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में प्राध्यापक हैं |
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