वर्तमान में देश में जिस प्रकार की विरोधात्मक राजनीति की जा रही है, वह केवल अविश्वसनीयता के दायरे को और बड़ा करती हुई दिखाई देती है। इसको विपक्षी राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों की नकारात्मक चिंतन की राजनीति कहा जाए तो ज्यादा ठीक होगा। विरोधी दलों के नेतृत्व करने का दिखावा करने वाली कांग्रेस पार्टी महाभियोग प्रस्ताव को लेकर अपनी किरकिरी तो करवा ही रही है, साथ ही अन्य दलों पर भी सवाल खड़े होने के संकेत मिलने लगे हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सलमान खुर्शीद का महाभियोग प्रस्ताव के बारे में दिया गया बयान यही इंगित करता है कि कांग्रेस की इच्छा के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय निर्णय देती तो कांग्रेस संभवत: इस प्रस्ताव को नहीं लाती। इसका मतलब साफ है कि कांग्रेस अपने हिसाब से न्यायालय को चलाना चाहती है। कांग्रेस द्वारा उठाये गये कदम का सीधा अर्थ निकाला जाए तो यही कहना समुचित होगा कि यह कदम लोकतंत्र के लिए अत्यंत ही घातक है। क्योंकि लोकतंत्र की सलामती के लिए उसके चार स्तंभों का मतबूत होना बहुत जरुरी है। जिसमें से एक न्यायपालिका भी है। कांग्रेस सहित विपक्षी दलों की ओर से जो महाभियोग प्रस्ताव दिया गया था उसमें पांच ऐसे कारण गिनाए गए, जो महाभियोग लाने के लिए काफी थे, लेकिन संवैधानिक पद पर बैठे उपराष्ट्रपति नायडू ने पूरी तरह से विचार विमर्श करके उस नोटिस को महाभियोग लाने के लिए उपयुक्त नहीं माना।
बिना बिचारे जो करे, सो पीछे पछताय वाली कहावत को हम सभी जानते हैं। कांग्रेस पार्टी महाभियोग प्रस्ताव पर कुछ ऐसा ही कर रही है।
अब उस प्रस्ताव को राज्यसभा सभापति द्वारा नकार दिया है, इससे कांग्रेस फिर शून्य की तरफ जा चुकी है। वास्तविकता तो यह है कि इस बात को कांग्रेस भी अच्छी तरह से समझती है कि उनके द्वारा लाए जा रहे महाभियोग प्रस्ताव से होना कुछ नहीं है, न तो इससे मुख्य न्यायाधीश को हटाया जा सकता है और न ही कांग्रेस के पास पर्याप्त संख्या बल है। कांग्रेस का उद्देश्य यही है कि कैसे भी करके मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा को न्यायिक प्रकिया से अलग किया जाए। कांग्रेस अगर वह मुख्य न्यायाधीश को हटाने के बारे में चिंतन कर रही है तो उसे पहले ही कानूनविदों से सलाह लेकर ही ऐसा कदम उठाने के बारे सोचना चाहिए।
कांग्रेस और अन्य विपक्षी राजनीतिक दल महाभियोग के प्रस्ताव के माध्यम से देश की न्यायपालिका को डराने का काम कर रहे हैं। इतना ही नहीं देश के बुद्धिजीवी भी विपक्ष के इस कदम को गैर जरुरी बता चुके हैं, खुद कांग्रेस के भीतर ही महाभियोग को लेकर महासंग्राम छिड़ा हुआ है। कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल तो यहां तक कह चुके हैं कि पी. चिदम्बरम एक मामले में आरोपी हैं, इसलिए उन्हें इस प्रस्ताव से दूर रखा गया है, क्या कपिल सिब्बल के इस बयान का आशय यह नहीं है कि कांग्रेस भी चिदम्बरम को आरोपी मानती है। कांग्रेस का यह पूरा कदम न्यायपालिका के विश्वास को तोड़ने का ही है, आज देश की जनता न्याय पालिका के प्रति विश्वास का भाव रखती है, लेकिन कांग्रेस के कदम से न्याय पालिका की छवि को धक्का ही लगेगा।
यह बात सही है कांग्रेस ने महाभियोग प्रस्ताव को लाकर देश में यह संदेश दिया है कि न तो उसे देश की न्यायिक संस्था पर विश्वास है और न ही देश की सरकार पर। इसे पहले कांग्रेस की ओर से केन्द्रीय जांच ब्यूरो के न्यायाधीश बी.एम. लोया के मामले में जनहित के नाम पर याचिका उायर की थी, तब सर्वोच्च न्यायालय ने साफ कर दिया था कि इस मामले पर राजनीति न करें और न ही न्यायालय को राजनीति का अखाड़ा बनाएं। सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा की गई इस टिप्पणी के बाद वास्तव कांग्रेस को आत्ममंथन की मुद्रा में आना चाहिए था, लेकिन आत्म मंथन तो दूर की बात उसने सर्वोच्च न्यायालय की कार्यशैली पर ही प्रहार करना प्रारंभ कर दिया जिसकी परिणति में कांग्रेस ने कुछ विपक्षी दलों को साथ लेकर मुख्य न्यायाधीश के विरोध में महाभियोग लाने का नोटिस उप राष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति को सौंप दिया। इसके बाद कानूनविदों से सलाह लेकर उपराष्ट्रपति ने महाभियोग के प्रस्ताव को खारिज कर दिया।
सुरेश हिन्दुस्थानी
लेखक वरिष्ठ स्तंभ लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं
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